शनिवार, 2 मई 2020

मजदूरों का पलायन रुकेगा यदि देश का समरूप विकास हो

कोरोना महामारी के समय एक बात फिर खुल कर सामने आई है। वह यह कि कितनी बड़ी संख्या में बिहार के मजदूरों को हर साल दूसरे राज्यों में रोजी-रोटी के लिए जाना पड़ता है! अपुष्ट आकलन 30 लाख मजदूरों का है।

आजादी के बाद यदि देश का समरूप विकास हुआ होता तो शायद बिहार से मजदूरों का असामान्य पलायन हर साल नहीं होता। आजादी के बाद के वर्षों में विकास की असमान नीति के कारण कुछ राज्य उन्नत तो हुए। पर, बिहार जैसे कुछ राज्य पिछड़ गए।

बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान को तो ‘बीमारू’ राज्य कहा गया। बेहतर जीवन के लिए किसी अन्य देश या प्रदेश में किसी का जाना चिंता की बात नहीं। पर, बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए घर-द्वार-परिवार से लाखों लोगों को कोसों दूर जाना पड़े तो यह स्थिति जरूर चिंताजनक हो जाती है। उस चिंता को कोरोना जैसी विपत्ति कई गुणा बढ़ा देती है। कोई नहीं कह सकता कि यह आखिरी विपत्ति है।

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अविभाजित बिहार में इसलिए बसा टाटा नगर 
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आजादी से पहले अविभाजित बिहार के खनिज बहुल हिस्से में जमशेदजी नौसरवान जी टाटा ने उन्नीसवीं सदी में बड़ा उद्योग लगाया। उस जगह का नाम पड़ा जमशेदपुर। खनिज पदार्थों के मामले में देश संपन्न राज्य होने के कारण टाटा को गुजरात से बिहार आना पड़ा था।

रेल भाड़ा को लेकर यदि पहले की स्थिति बनी रहती तो आज भी क्या होता! जमशेदपुर की तरह अन्य अनेक बड़े आद्योगिक केंद्र बनते। लोगों को रोजगार मिलते। इस राज्य का पिछड़ापन कम होता। पर, पचास के दशक में केंद्र सरकार ने बिहार से वह बढ़त छीन ली। रेल भाड़ा समानीकरण नीति, 1952 ने अविभाजित बिहार की आर्थिक प्रगति रोक दी।

पंजाब की तरह यहां खेती का विकास हुआ होता तो एक हद तक क्षतिपूर्ति होती। पर वह भी नहीं होने दिया गया। कोसी और गंडक सिंचाई योजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गईं।

रेल भाड़ा समानीकरण नीति के तहत खनिज पदार्थों की ढुलाई का रेल भाड़ा पूरे देश के लिए एक समान कर दिया गया था। नियम बना कि धनबाद से सौ टन कोयला रांची पहुंचाने का जितना रेल भाड़ा लगेगा, उतना ही रेल भाड़ा उसे मद्रास या बंबई पहुंचाने में लगेगा। फिर बंबई का कोई उद्योगपति बंदरगाह के पास का इलाका छोड़कर बिहार में उद्योग क्यों लगाता?

इस नीति का जब भारी विरोध हुआ तो नब्बे के दशक में केंद्र सरकार ने इसे समाप्त किया। पर एक अनुमान के अनुसार उस नीति से अविभाजित बिहार को इस बीच 10 लाख करोड़ रुपए का नुकसान पहुंच चुका था। उसकी भरपाई आज तक नहीं हो सकी। विशेष राज्य के दर्जे की मांग उसी क्षतिपूर्ति के लिए होती रही है। नतीजतन बिहार से मजदूरों का पलायन अवश्यंवी हो गया।

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अब नहीं होगी खेती के लिए मजदूरों की कमी
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बाहर से आए और आ रहे मजदूरों में से अनेक लोग अब बिहार में ही रहकर कुछ काम -धंधा करना चाहते हैं। यदि ऐसा हुआ तो खेती के लिए मजदूरों की अब पहले जैसी कमी नहीं रहेगी। पर, इसके साथ ऐसे उपाय भी किए जा सकते हैं जिनसे मजदूर और किसान दोनों पहले की अपेक्षा बेहतर स्थिति में रहें। 

एक उपाय तुरंत दिखाई पड़ रहा है। यदि मनरेगा मजदूरों को किसानों की खेती से जोड़ दिया जाए तो दोनों फायदे में रहेंगे। किसान के खेत में काम के लिए मजदूरों को मनरेगा फंड से भी यदि अलग से कुछ पैसे मिलने लगे तो खेती के काम तेजी से आगे बढ़ेंगे।

तब मनरेगा का बजट भी थोड़ा कम हो जाएगा और किसानों को भी कम मजदूरी देनी पड़ेगी।इसके बावजूद दोनों को मिलाकर पहले की अपेक्षा मजदूरों को अधिक मजदूरी मिलेगी। इन दिनों खेती में लागत अधिक और आय कम है। नतीजतन कई किसान अपनी कुछ ही जमीन पर खेती  कर पा रहे हैं। यदि मजदूरी कम देने पड़ें तो किसान जमीन परती नहीं छोड़ेगा। 

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 भूली-बिसरी याद
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आज मधु लिमये का जन्म दिन है। इस अवसर पर उनके बारे में कुछ बातें! वे बिहार से बारी -बारी से चार बार लोकसभा सदस्य चुने गए थे। उनके बारे में बिहार के अनेक लोग कई बातें तो पहले से ही जानते हैं। पर, कुछ जिज्ञासु लोग एक सवाल अक्सर करते हैं। वह यह कि सन 1977 में मधु लिमये मोरारजी देसाई मंत्रिमंडल में शामिल क्यों नहीं हुए? क्या मोरारजी ने उनके नाम पर एतराज किया था ?

इस सवाल का जवाब दिया था उनकी पत्नी चंपा लिमये ने। चंपा जी के अनुसार, ‘‘मोरारजी देसाई ने मधु जी से कहा था कि ‘तुम, जार्ज और मधु दंडवते में से दो लोग मुझे चाहिए अपने मंत्रिमंडल में। पर मधु लिमये ने मोरारजी से कहा कि आप जार्ज फर्नांडिस और मधु दंडवते को  मंत्रिमंडल में शामिल कर लीजिए।’ वे शामिल हुए भी।

लिमये ने इसका यह कारण बताया था, ‘‘ जार्ज पर बड़ौदा डायनामाइट केस चल रहा है। एक मानी में वह केस उस पर टंगी हुई तलवार है। और बाहर रह कर वह रेल हड़ताल आदि कामों से जनता सरकार को परेशानी में डाल देगा। इसलिए जार्ज को मंत्रिमंडल में शामिल करके उसे रचनात्मक काम करने देना चाहिए।’’

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और अंत में
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जानकार सूत्रों के अनुसार बिहार सहित देश के 17 राज्यों में केंद्रीय सचिवालय की शाखाएं खुलेंगी। इस पर केंद्र सरकार ने प्रारंभिक काम भी शुरू कर दिया है। राज्य मुख्यालयों में स्थित केंद्र सरकार के सारे कार्यालय एक जगह रहेंगे। उसके लिए 140 एकड़ जमीन की जरूरत पड़ेगी।

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(1 मई 2020 के प्रभात खबर, पटना में प्रकाशित मेरे साप्ताहिक काॅलम ‘कानोंकान’ से।)

  



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