गुरुवार, 28 मई 2020

लिफाफा देख कर ही चल जाता है मजमून का पता !

इन दिनों अखबारों में प्रकाशित लेखों को पढ़ने में कम ही समय लगता है। पहले अपेक्षाकृत अधिक लगता था। अब तो अधिकतर लेखकों के नाम देख कर ही यह पूर्वानुमान हो जाता है कि उन्होंने क्या लिखा होगा।

किसी के पक्ष या विपक्ष में लिखना गलत नहीं है। हां, तथ्य और तार्किकता की कमी से अवश्य ऊब हो जाती है। अब एकालाप अधिक रहता है।

किसी मुद्दे या व्यक्तित्व पर लिखते समय विचारों की ताजगी व नई जानकारियां मिले, तो अच्छा लगता है। संतुलन मिल जाए, तब तो और भी अच्छा। पर वह तो विरल है। और, लगता है कि आगे भी विरल ही रहेगा।

कुछ दशक पहले तक इस देश की विधायिकाओं में कुछ गार्जियननुमा बुजुर्ग सदस्य हुआ करते थे। वे कई बार दलगत भावना से ऊपर उठ कर बोलते थे। जब वे बोलते थे तो सदस्य उन्हें सुनते भी थे। पत्रकारिता में भी ऐसी हस्ती की कमी खलती है।


---सुरेंद्र किशोर--23 मई 2020 

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