बुधवार, 27 मई 2020

जरूरी नहीं तो नगरों में भीड़ बढ़ाने के बदले गांवों में बसें

जो काम आप इस देश की किसी छोटी जगह में रहकर भी कर सकते हैं, उसके लिए महानगरों में भीड़ न बढ़ाएं। कोरोना महामारी ने भी हमें यही सीख दी है, प्रवासी मजदूरों से लेकर अन्य लोगों को भी।

कोरोना विपत्ति तो समय के साथ गुजर जाएगी, पर, आने वाले दिनों में नगरों-महानगरों पर अन्य तरह के संकट भी आ सकते हैं। वे संकट कैसे होंगे, क्या होंगे, उनका स्वरूप क्या होगा, उसका थोड़ा-बहुत अंदाज मुझे है। पर, उस पर अभी कुछ कहना सही नहीं है।

मैं एक सामान्य आदमी हूं। एक छोटी जगह में रहकर वह सब कर लिया और कर रहा हूं जो मैं करना चाहता था। वैसे प्रारंभ से ही मेरी आकांक्षाएं सीमित ही रही हैं। सन 1977 और उसके बाद दिल्ली में बसने के लिए मुझे बारी -बारी से कम से कम पांच आफर -अवसर मिले थे। हर बार मैंने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया।

सन 1998 में तो अपनी बदली कैंसिल करवाकर दिल्ली से एक ही माह में पटना लौट आया था।
अब मैं मुख्य पटना नगर में भी नहीं, बल्कि पटना के पास के एक गांव में घर बना कर रहता हूं। नगर यहां तक भी धीरे -धीरे हमारा पीछा कर रहा है। पर, इसे भी नगर हो जाने में अभी समय लगेगा। 

यहीं से मैं वह सब काम कर सकता हूं, करता हूं जो करना चाहता रहा हूं। तकनीकी ने ऐसी सुविधा प्रदान कर दी है कि अब तो अपने पुश्तैनी गांव से भी सब काम कर सकता हूं। मैंने ‘टकू -टकू ट्राक -ट्राक’ के जमाने से पत्रकारिता शुरू की थी। टेलीग्राम यानी तार आज लगाने पर जरूरी नहीं कि दिल्ली आज ही मिल जाए। कई बार एक दिन बाद मिलता था।

वह भी एक जमाना था। पर आज बहुत फर्क आ गया है। मेरा पुश्तैनी गांव अभी तो सड़क मार्ग से मुख्य पटना से 45 किलोमीटर पर है। पर यदि प्रस्तावित पटना रिंग रोड बन गया तो वह दूरी करीब 30 किलोमीटर रह जाएगी। अभी जहां रहता हूं ,वहां प्रकृति के बहुत करीब हूं। मेरे घर के आसपास अनेक वृक्ष हैं। कुछ मैंने भी अपने परिसर में लगाए हैं।

पौधों को बढ़ते हुए देखने में भी एक अजीब सुख है। उनमें फल-फूल लगे हों तब तो बात ही कुछ और है। यहां दूर-दूर तक फैले खेत और इक्के -दुक्के मकान हैं। स्वच्छ हवा। दूध-सब्जी अपेक्षाकृत शुद्ध। हां, जब तक नौकरी में था, पटना में रहने की मजबूरी थी। पर 20 साल पहले ही योजना बना ली थी कि नगर के पास के किसी गांव में घर बनाऊंगा। मेरी योजना ‘विपत्ति में वरदान’ की तरह ही थी।

नगर में ऐसा आवास खड़ा करना जो खुला-खुला भी हो, मेरे जैसे सीमित आय वाले के लिए असंभव था। हां, मेरी शिक्षिका पत्नी के ‘सेवांत लाभ’ ने गांव में ठीक से बसने लायक साधन मुहैया करा दिया। हमारे आसपास के जो कुछ सज्जन नगर से आकर बसे हैं, उनमें भी एक दूसरे की मदद करने की भावना बनी हुई है। ऐसा महानगरों में कौन कहे, नगरों में भी विरल है।

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26 मई 2020

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