रविवार, 10 मई 2020

मेरी लघु साइकिल यात्रा !

मुझे भी अपनी एक लघु साइकिल यात्रा की याद आ गई। प्रवासी मजदूरों की लंबी-लंबी तकलीफदेह साइकिल यात्राओं के चित्र अखबारों में देखने के बाद ऐसा हुआ। पर, मेरी यात्रा तो मात्र 57 किलोमीटर की थी। पर, उसी से ऐसी यात्रा की तकलीफ का अनुभव हुआ।

वह यात्रा थी--आरा से पटना के बीच। 1963 की बात है। तब मैं आरा में पढ़ता था। एक दिन मेरे मित्र और सहपाठी रामकुमार गुप्ता ने कहा कि ‘चलो पटना सिनेमा देखने।’ दरअसल उन दिनों आरा में सिर्फ दो ही सिनेमा हाॅल थे--रूपम और मोहन। पता नहीं, आज कितने है !

वहां कितना देख पाते सिनेमा !! वह उम्र ही थी सिनमा देखने की। अब तो दशकों हो गए सिनेमा हाॅल गए। खैर, हम दोनों एक ही साइकिल पर पटना के लिए चल दिए। कभी मैं साइकिल चलाता और वह सहयात्री होता तो कभी वह चलाता और मैं सहयात्री। आरा से पटना तक की यात्रा तो हमने पूरी कर ली। ‘पर्ल’ में सिनेमा देखा। फिर साइकिल से ही आरा लौटने लगा। पर हमलोग थककर चूर हो चुके थे। दानापुर पहुंचकर ट्रेन पर साइकिल लादी और आरा वापस।

अब अंदाज लगाइए,उन मजदूरों की तकलीफों की। सैकड़ों किलोमीटर की साइकिल यात्राओं के बाद वे घर लौट रहे हैं। यह जरुर है कि वे हम लोगों की तरह सुकुमार नहीं हैं। रामकुमार गुप्त तो आरा के एक बहुत बड़े व्यापारी परिवार का है। पिछले कई वर्षों से रामकुमार से मेरा कोई संपर्क नहीं है। पर, उसकी याद आती है।

जीवन के जिस मोड़ पर जब जहां जो मिला, मित्र बना या परिचित, उनमें से अधिकतर बारी -बारी से यदाकदा मुझे याद आते रहते हैं। उम्मीद है कि और लोगों को भी अपने मित्र याद आते होंगे। वह भी निःस्वार्थ भाव से !

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--सुरेंद्र किशोर - 10 मई 2020

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