कोरोना महामारी की पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गांव, जिला और राज्य को आत्मनिर्भर बनाने की जरूरत बताई है। बात बहुत अच्छी है। पर आजादी के बाद ऐसा करने के लिए दिल्ली से पहले भी पैसे भेजे जाते रहे। उन पैसों का कितना सदुपयोग हुआ ? आज भी कितना कुछ हो रहा है ? अब जो भेजे जाएंगे,उनका कितना होगा ? पहले इन बातों पर विचार करने की जरूरत है। कहीं कमी है तो पहले उसे दूर करना होगा।
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मेरे गांव में 2009 में ही पहली बार बिजली जा सकी। अस्सी के दशक में पहली बार मेरे गांव तक पहुंचने वाली कच्ची सड़क को अलकतरा के दर्शन हुए। वह भी ऐसी सड़क बनी जो हर बरसात में टूट जाती थी। तीन साल पहले जरूर एस.एच. बन गई है। वह भी विशेष प्रयास से।
सन 2009 से पहले गांवों के लिए जितनी योजनाएं बनाई गईं, उनका कार्यान्वयन कितना हुआ ? मेरे गांव में उसका लाभ कितना पहुंचा ? मैंने अपने गांव की चर्चा इसलिए की क्योंकि उसका मैं खद ही गवाह हूं।
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मैंने सुना है कि केंद्र और राज्य सरकारों की विकास, कल्याण और निर्माण की सैकड़ों योजनाएं चलती रहती हैं। उनके लिए पैसे आवंटित होते रहते हैं। उनमें से कितनी योजनाएं धरती पर उतर पाती हैं ? क्या उन सैकड़ों योजनाओं के नाम भी गांव के लोगों को मालूम हैं ?
मुझे तो नहीं मालूम।
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भ्रष्टाचारियों के लिए यह सुविधाजनक स्थिति है।
यदि केंद्र और राज्य सरकारें अपनी योजनाओं की सूची अखबारों में विज्ञापन देकर प्रचारित करे तो लोग जान सकेंगे कि सरकार उनके लिए कितना खर्च कर रही है। और, उनमें से कितने पैसे बीच में हड़प लिए जाते हैं। कितनी योजनाएं कागज पर है ? और कितनों के तहत पैसे खर्च हो पाते हैं ? उन पैसों में से भी कितना वास्तव में खर्च होता है ? और कितना कमीशन में चला जाता है ? मोदीजी, पहले पैसों के सदुपयोग की गारंटी करिए। फिर गांवों- जिलों-राज्यों को आत्म निर्भर बनाने का सपना देखिए। क्या यह उम्मीद की जाए कि ‘‘मोदी है तो यह भी मुमकिन है ?’’ चूंकि खुद आपको अपनी निजी संपत्ति बढ़ाने में कोई रुचि नहीं रही है, इसलिए आपसे उम्मीद की जा सकती है।
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चीन में एक कहावत है।
वह यह कि भारत सरकार अपने बजट का पैसा एक ऐसे लोटे में रखती है जिसकी पेंदी में सैकड़ों छेद होते हैं। चीन ने भ्रष्टाचारियों के लिए फांसी की सजा का प्रबंध करके अपने छेदों का भरसक बंद कर दिया। तभी वह एक ताकतवर देश बना है। और हमें भी आंखें दिखाता रहता है।
हमने अपनी ताकत पहले की अपेक्षा अब जरूर बढ़ा ली है। पर इस दिशा में अभी बहुत कुछ करना बाकी है। स्वस्थ शरीर में जल्दी रोग नहीं पैठता। उसी तरह आर्थिक रूप से ताकतवर देश को जल्दी कोई आंखें नहीं दिखाता।
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सुरेंद्र किशोर-31 मई 2020
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मेरे गांव में 2009 में ही पहली बार बिजली जा सकी। अस्सी के दशक में पहली बार मेरे गांव तक पहुंचने वाली कच्ची सड़क को अलकतरा के दर्शन हुए। वह भी ऐसी सड़क बनी जो हर बरसात में टूट जाती थी। तीन साल पहले जरूर एस.एच. बन गई है। वह भी विशेष प्रयास से।
सन 2009 से पहले गांवों के लिए जितनी योजनाएं बनाई गईं, उनका कार्यान्वयन कितना हुआ ? मेरे गांव में उसका लाभ कितना पहुंचा ? मैंने अपने गांव की चर्चा इसलिए की क्योंकि उसका मैं खद ही गवाह हूं।
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मैंने सुना है कि केंद्र और राज्य सरकारों की विकास, कल्याण और निर्माण की सैकड़ों योजनाएं चलती रहती हैं। उनके लिए पैसे आवंटित होते रहते हैं। उनमें से कितनी योजनाएं धरती पर उतर पाती हैं ? क्या उन सैकड़ों योजनाओं के नाम भी गांव के लोगों को मालूम हैं ?
मुझे तो नहीं मालूम।
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भ्रष्टाचारियों के लिए यह सुविधाजनक स्थिति है।
यदि केंद्र और राज्य सरकारें अपनी योजनाओं की सूची अखबारों में विज्ञापन देकर प्रचारित करे तो लोग जान सकेंगे कि सरकार उनके लिए कितना खर्च कर रही है। और, उनमें से कितने पैसे बीच में हड़प लिए जाते हैं। कितनी योजनाएं कागज पर है ? और कितनों के तहत पैसे खर्च हो पाते हैं ? उन पैसों में से भी कितना वास्तव में खर्च होता है ? और कितना कमीशन में चला जाता है ? मोदीजी, पहले पैसों के सदुपयोग की गारंटी करिए। फिर गांवों- जिलों-राज्यों को आत्म निर्भर बनाने का सपना देखिए। क्या यह उम्मीद की जाए कि ‘‘मोदी है तो यह भी मुमकिन है ?’’ चूंकि खुद आपको अपनी निजी संपत्ति बढ़ाने में कोई रुचि नहीं रही है, इसलिए आपसे उम्मीद की जा सकती है।
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चीन में एक कहावत है।
वह यह कि भारत सरकार अपने बजट का पैसा एक ऐसे लोटे में रखती है जिसकी पेंदी में सैकड़ों छेद होते हैं। चीन ने भ्रष्टाचारियों के लिए फांसी की सजा का प्रबंध करके अपने छेदों का भरसक बंद कर दिया। तभी वह एक ताकतवर देश बना है। और हमें भी आंखें दिखाता रहता है।
हमने अपनी ताकत पहले की अपेक्षा अब जरूर बढ़ा ली है। पर इस दिशा में अभी बहुत कुछ करना बाकी है। स्वस्थ शरीर में जल्दी रोग नहीं पैठता। उसी तरह आर्थिक रूप से ताकतवर देश को जल्दी कोई आंखें नहीं दिखाता।
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सुरेंद्र किशोर-31 मई 2020
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