रविवार, 12 जुलाई 2020

1.-त्रेता युग में इस धरा के ब्राह्मणों ने स्वजातीय किंतु मर्यादाहीन 
रावण की जगह मर्यादा पुरूषोत्तम राम का साथ दिया था।
यह भी रही है ब्राहमणों की दिव्य परंपरा ।
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2.- इस घोर कलियुग का भी एक उदाहरण पेश है।
 स्वजातीय पत्रकारों की जोरदार पैरवियों को ठुकरा कर प्रभाष जोशी
ने मुझे 1983 में ‘जनसत्ता’ में रखा।
 पटना के एक्सप्रेस आॅफिस को एकाधिक संदेश भेज कर उन्होंने पटना
से मुझे दिल्ली बुलवाया था।
मेरा पहले से उनसे कोई परिचय तक नहीं था।
सिर्फ वे मेरा काम जानते थे।
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3.-1977 में जब मैंने पटना में दैनिक ‘आज’ ज्वाइन किया तो ब्यूरो 
प्रमुख पारसनाथ सिंह ने मुझे एक मंत्र दिया।
उन्होंने कहा कि पत्रकारिता ब्राह्मणों के स्वभाव के अनुकूल पेशा हैं।
ब्राह्मण विनयी और विद्या व्यसनी होते हैं।
यदि आपको इस पेशे में बेहतर करना है तो ये दो गुण अपनाइए।
मैंने इसकी कोशिश की।
मुझे लाभ हुआ।
4.-कैरियर के बाद के वर्षों में इस देश के जिन आधा दर्जन प्रधान संपादकांे ने इस गैर ब्राह्मण को यानी मुझे संपादक बनाने की कोशिश की,उनमें चार ब्राह्मण ही थे।
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मैंने यह सब आज क्यों लिखा ?
थोड़ा लिखना, बहुत समझना !
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--- सुरेंद्र किशोर -- 12 जुलाई 20    

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