रविवार, 26 जुलाई 2020

क्या कतिपय पैरवी पुत्रों और खास गुट के लोगों को हिन्दी फिल्मों में जमाने के 
लिए सेंसर नियमों में भारी ढील देकर भीषण हिंसक और गैर जरूरी सेक्सयुक्त दृश्यों की अनुमति दे दी गई थी ?
    उसके बाद तो ‘बागवान’ और ‘नदिया के पार’ जैसी साफ-सुथरी फिल्मों को अपवाद मानें तो ऐसी -ऐसी फिल्में बनने लगीं जिन्हें आम भारतीय समाज के लिए परिवार के साथ देखना संभव ही नहीं रहा। 
   क्या नरेंद्र मोदी की सरकार फिल्मों की इस गलत दिशा को बदलने की ऐतिहासिक जिम्मेदारी उठाएगी ? 
    --- सुरेंद्र किशोर - 26 जुलाई 20

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