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सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को हिदायत दी है कि ‘‘ध्यान रहे,विकास दुबे जैसी मुठभेड़ फिर न हो।’’
यह एक सही दिशा में ठोस हिदायत है।
किंतु चीजों को ठीक करने के लिए सिर्फ यह हिदायत ही कारगर साबित नहीं होगी।
मौखिक हिदायत कौन कहे,गुजरात के सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले में तो आई.पी.एस.अफसर डी.जी.बंजारा को तो करीब 9 साल जेल में रहना पड़ा था।
यदि विकास दुबे मुठभेड़ फर्जी है तो यह मानना पड़ेगा कि यू.पी.पुलिस ने बंजारा से भी कोई सबक नहीं लिया।
क्यों नहीं लिया ?
वैसे तो यू.पी.पुलिस ने कहा है कि
विकास दुबे के साथ हुई मुठभेड़ फर्जी नहीं है,पर सुप्रीम कोर्ट की ताजा टिप्पणी की शब्दावली बता रही है कि कोर्ट को फर्जी होने का शक है।
संभव है कि तीन सदस्यीय जांच समिति अंततः विकास दुबे -पुलिस मुठभेड़ को फर्जी करार
दे दे ।
यानी, सोहराबुद्दीन कांड की कहानी दुहरा दी जाए।
पर, उससे भी क्या होगा ?
वही होगा जो बंजारा के वर्षों जेल में रहने के बाद
भी विकास दुबे कांड हो गया।
विकास दुबे कांड के बाद देश में कोई और कांड नहीं होगा,इसकी भी कोई गारंटी नहीं।
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गवाहों की सुरक्षा की समस्या
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कई साल पहले एकाधिक बार सुप्रीम कोर्ट ने निदेश दिया था कि सरकार गवाहों को सुरक्षा प्रदान करे।
इस अदालती आदेश
के बाद देश में उसका कितना पालन हुआ ?
जिस थाने में विकास दुबे ने एक प्रमुख राजनीतिक कर्मी की सरेआम हत्या कर दी थी,उसके खिलाफ उस थाने के किसी पुलिसमर्की ने डर से गवाही तक नहीं दी।क्योंकि उसको जान का डर था।
वैसे बात सिर्फ यही नहीं है।
पूरे देश की आपराधिक न्याय व्यवस्था की कमियों को दूर करने की सख्त जरूरत है।
इसके लिए सुप्रीम कोर्ट को ही पहल करनी पड़ेगी।
चुनाव लड़ने वाली पार्टियां शायद यह काम नहीं कर सके।
पता लगाना होगा कि केरल में अदालती सजा की दर
करीब 84 प्रतिशत है और पश्चिम बंगाल में 11 ही क्यों ?
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उम्मीदवारों पर मुकदमों का विवरण
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आज हम यह जान पाते हैं कि चुनाव के उम्मीदवारों के खिलाफ कितने आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं।उनके पास कितनी सपत्ति है।
उनकी शैक्षणिक योग्यता क्या है।
यह सब सुप्रीम कोर्ट के करीब 20 साल पहले के एक आदेश के कारण ही संभव हो पा रहा हैं।
तब की केंद्र सरकार ऐसी सामान्य सूचनाएं भी जाहिर नहीं होने देना नहीं चाहती थी।
प्रतिपक्ष भी उस समय इस मामले में सत्ता पक्ष के साथ था।
विकास दुबे एनकाउंटर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जिसके खिलाफ इतने अधिक मुकदमे हों,वह यदि जमानत पा जाता है तो यह संस्थागत विफलता है।
कानून का शासन बहाल करने की जिम्मेदारी मुख्यतः राज्य सरकारों की होती है।
जिम्मेदारी तो है ही।
पर जहां संस्थागत विफलता की बात सामने आ रही है,वैसे में उसे ठीक करने के लिए खुद सुप्रीम कोर्ट को ही कोई कारगर कदम उठाना पड़ेगा।
संस्थागत विफलता के कारणों का पता लगाने व उसे समाप्त करने का उपाय खोजने के लिए एक अलग से न्यायिक आयोग के गठन की जरूरत पड़ेगी।
इसकी पहल सुप्रीम कोर्ट ही कर सकता है।
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गाय के गोबर की खरीद
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इस महीने छत्तीस गढ़ सरकार ने एक अनोखा निर्णय किया है।
राज्य सरकार ने पशुपालकों से गोबर 2 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से खरीदने का निर्णय किया है।
उनकी आय बढ़ाने का यह एक अच्छा जरिया साबित होने वाला है।
बिहार सहित अन्य राज्य भी इसका अनुसरण कर सकते हैं।
पर इस योजना में एक संशोधन करना चाहिए।
देसी गाय के गोबर की कीमत अन्य गायों से थोड़ी अधिक रख जानी चाहिए।
इससे देसी गाय की नस्ल कायम रहेगी।
अभी उसके विलुप्त होने का खतरा है।
याद रहे कि देसी गाय का दूध अन्य गायों की अपेक्षा बहुत अधिक गुणकारी है।उसमें कई अन्य गुण भी हैं।
आजादी के बाद हमने जिस तरह रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं का प्रयोग शुरू करके खेती को बर्बाद किया,उसी तरह देसी गाय की उपेक्षा करके जन स्वास्थ्य को भी नुकसान पहुंचाया।इस स्थिति में बदलाव जरूरी है।
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और अंत में
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सन 1970 में बंबई में एक संसदीय समिति की बैठक हुई थी।
उस बैठक में सूचना व प्रसारण मंत्री सत्यनारायण सिन्हा ने फिल्मों में गैर जरूरी सेक्स और हिंसा के प्रदर्शन पर गंभीर चिंता व्यक्त की।
सिन्हा ने कहा कि संेसर से कहा गया है कि वह ऐसे दृश्यों को निर्ममता से काट दिया करे।
मंत्री ने यह भी कहा था कि यदि जरूरत पड़े तो पूरी फिल्म को भी रिजेक्ट कर दिया जाए।
अब सवाल है कि 1970 से पहले भारतीय फिल्मों में कितनी गैर जरूरी हिंसा दिखाई जाती थी ?
हिंसा और सेक्स के प्रदर्शन के मामले में आज क्या स्थिति है ?
कोई भी जानकार व्यक्ति कहेगा कि आज तो परिवार के साथ फिल्में देखना असंभव हो गया है।अपवादों की बात और है।
यदि सेंसर बोर्ड सो रहा है तो सरकार भी क्यों सो
रही है ?
क्या उसे भी भारतीय संस्कृति की रक्षा की चिंता नहीं है ?
या फिर कोई और बात है ?
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कानोंकान,
प्रभात खबर,
पटना,
24 जुलाई 20
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