ऐसे पैदा होते हैं बाहुबली !
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कई दशक पहले की बात है।
इस देश के एक राज्य के एक जिले में भूमिपतियों द्वारा खेतिहर मजदूरों का भीषण शोषण हो रहा था।
राज्य सरकार का श्रम विभाग उन शोषित मजदूरों
की मदद नहीं कर सका।
वहां नक्सलियों के पैर जमाने के लिए अच्छा अवसर था।
भूमिपतियों और नक्सलियों के बीच संघर्ष शुरू हो गया।
हिंसा- प्रति हिंसा होने लगी।
पुलिस-प्रशासन न तो भूमिपतियों को नक्सलियों की हिंसा से बचा सका और न ही भूमिहीनों को भूमिपतियों के प्रहारों से।
मारकाट जारी रही।
इस बीच भूमिपतियों के रक्षक के रूप में एक मनबढ़ू नौजवान हथियारों के साथ मैदान में आया।
वह नक्सलियों की हिंसा से भूमिपतियों को बचाने लगा।
जो काम शासन को करना था,वह काम उस नौजवान ने करना शुरू किया।
यह एक ऐसे राज्य की बात है जहां के अधिकतर सरकारी सेवकों
के बारे में कहा जाता है,
‘‘वे आॅफिस आने के लिए वेतन लेते हैं और काम करने के घूस।’’
नतीजतन वह बाहुबली खास तरह के लोगों में लोकप्रिय हो गया।
विधान सभा चुनाव निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में जीत गया।
साथ ही, उन नौजवान की गुंडई भी बढ़ती गई।
वह जिले में समानांतर सरकार चलाने लगा।
किसी विरोधी को मार देना उसके बाएं हाथ का खेल रहा।
उसके खिलाफ कोई गवाह
तक उपलब्ध नहीं होता था।
उस राज्य के सत्ताधारी दल ने उस बाहुबली से ‘प्रभावित’ होकर उसे अगली बार लोक सभा चुनाव का टिकट दे दिया।
वह जीत भी गया।
फिर तो उसके पर लग गए।
उसने अपने जिले में अन्य दलों के आॅफिस तक बंद करवा दिए।
उसके एक पॅाकेट में डी.एम. और दूसरे पाॅकिट में एस.पी.रहने लगा।
अंततः उसका हश्र क्या हुआ,वह मत पूछिए।
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कहानी का मोरल यह है कि यदि शासन का सिस्टम अपना काम ईमानदारी व हिम्मत से करने लगे तो किसी बाहुबली को विकास पांडेय या फलां सिंह या फलां यादव या फलां खान बनने का मौका ही नहीं मिलेगा।
स्टेट पाॅवर बहुत बड़ी चीज होती है।
पर, उस पावर का सदुपयोग होने लगे तब तो !!
सदुपयोग करवाने में राजनीतिक दलों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
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--सुरेंद्र किशोर--11 जुलाई 20
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कई दशक पहले की बात है।
इस देश के एक राज्य के एक जिले में भूमिपतियों द्वारा खेतिहर मजदूरों का भीषण शोषण हो रहा था।
राज्य सरकार का श्रम विभाग उन शोषित मजदूरों
की मदद नहीं कर सका।
वहां नक्सलियों के पैर जमाने के लिए अच्छा अवसर था।
भूमिपतियों और नक्सलियों के बीच संघर्ष शुरू हो गया।
हिंसा- प्रति हिंसा होने लगी।
पुलिस-प्रशासन न तो भूमिपतियों को नक्सलियों की हिंसा से बचा सका और न ही भूमिहीनों को भूमिपतियों के प्रहारों से।
मारकाट जारी रही।
इस बीच भूमिपतियों के रक्षक के रूप में एक मनबढ़ू नौजवान हथियारों के साथ मैदान में आया।
वह नक्सलियों की हिंसा से भूमिपतियों को बचाने लगा।
जो काम शासन को करना था,वह काम उस नौजवान ने करना शुरू किया।
यह एक ऐसे राज्य की बात है जहां के अधिकतर सरकारी सेवकों
के बारे में कहा जाता है,
‘‘वे आॅफिस आने के लिए वेतन लेते हैं और काम करने के घूस।’’
नतीजतन वह बाहुबली खास तरह के लोगों में लोकप्रिय हो गया।
विधान सभा चुनाव निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में जीत गया।
साथ ही, उन नौजवान की गुंडई भी बढ़ती गई।
वह जिले में समानांतर सरकार चलाने लगा।
किसी विरोधी को मार देना उसके बाएं हाथ का खेल रहा।
उसके खिलाफ कोई गवाह
तक उपलब्ध नहीं होता था।
उस राज्य के सत्ताधारी दल ने उस बाहुबली से ‘प्रभावित’ होकर उसे अगली बार लोक सभा चुनाव का टिकट दे दिया।
वह जीत भी गया।
फिर तो उसके पर लग गए।
उसने अपने जिले में अन्य दलों के आॅफिस तक बंद करवा दिए।
उसके एक पॅाकेट में डी.एम. और दूसरे पाॅकिट में एस.पी.रहने लगा।
अंततः उसका हश्र क्या हुआ,वह मत पूछिए।
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कहानी का मोरल यह है कि यदि शासन का सिस्टम अपना काम ईमानदारी व हिम्मत से करने लगे तो किसी बाहुबली को विकास पांडेय या फलां सिंह या फलां यादव या फलां खान बनने का मौका ही नहीं मिलेगा।
स्टेट पाॅवर बहुत बड़ी चीज होती है।
पर, उस पावर का सदुपयोग होने लगे तब तो !!
सदुपयोग करवाने में राजनीतिक दलों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
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--सुरेंद्र किशोर--11 जुलाई 20
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