एक देश एक चुनाव की जरूरत--नरेंद्र मोदी
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इंदिरा गांधी की गलती को नरेंद्र मोदी
सुधारने की कोशिश कर रहे हैं।
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किंतु निहितस्वार्थी या अनजान लोग इस जरूरत के खिलाफ तर्क गढ़ रहे हैं।
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विरोध का सबसे बड़ा तर्क--
‘‘मतदाता लोग स्थानीय मुद्दों
की बजाय राष्ट्रीय मुद्दों पर वोट देंगे।
इससे एक दल को लाभ होगा।’’
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अरे अनजान लोगो !
1967 तक लोक सभा के साथ ही विधान सभाओं के भी चुनाव हुए थे।
1967 के मतदाताओं ने केंद्र में तो कांग्रेस को सत्तासीन किया किंतु सात राज्यों में गैरकांग्रेसी दलों को।
जबकि, चुनाव एक ही साथ हुए थे।
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2019 के लोक सभा चुनाव में बिहार में राजग को कुल 40 में से 39 सीटें मिलीं।
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किंतु हाल के बिहार विधान सभा चुनाव में कैसा रिजल्ट रहा ?
राजग को मुश्किल से बहुमत मिला।
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दरअसल अलग-अलग चुनावों के हिमायती लोगों का चिंतन देशहित में नहीं है।
उनके निहितस्वार्थ हंै।
या वे तथ्यों से नावाकिफ हैं।
यहां तक कि वे संविधान निर्माताआंे के विवेक पर भी सवाल उठा रहे हैं।
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संविधान निर्मातागण भी जानते थे कि यह देश विविधताओं का है।
फिर भी उनका भरोसा मतदाताओं के विवेक पर था।
संविधान निर्माताओं ने चुनाव एक साथ ही कराने का प्रावधान किया था।चार बार वैसा ही हुआ भी।
मतदाताओं ने 1967 में अपने विवेक का परिचय दे दिया।
क्या आज के मतदातागण 1967 के मतदाताओं की अपेक्षा देशहित-प्रदेश हित-जनहित में कम सोचते हैं ?
1971 में लोक सभा का मध्यावधि चुनाव कराकर दोनों चुनावों को तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने अलग -अलग कर दिया।
ऐसा उन्होंने अपने राजनीतिक फायदे के लिए किया।
क्योंकि इंदिरा गांधी लोक सभा में अपने दल के अल्पमत को जल्द से जल्द बहुमत में बदलना चाहती थीं।
वह कम्युनिस्टों पर से अपनी निर्भरता समाप्त करना चाहती थीं।
नरेंद्र मोदी को चाहिए कि वह 1971 की गलती को जल्द से जल्द सुधार दें।
मोदी है तो मुमकिन है।
एक साथ चुनाव के फायदे ही फायदे हैं।
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--सुरेंद्र किशोर-29 नवंबर 20
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