‘‘चमड़ी जाए त जाए, लेकिन दमड़ी ना जाए।’’
अपने गांव में बचपन में मैंने एक कहावत सुनी थी
...................................................
इस देश के कुछ संगठनों पर यह कहावत
लागू होते देखा जा सकता है।
वंशवाद-परिवारवाद-भ्रष्टाचारवाद-तुष्टीकरणवाद के कारण भले कुछ पार्टियां धीरे -धीरे बर्बाद होती जाए,किंतु उत्तराधिकारी बनेगा तो सुप्रीमो का योग्य-अयोग्य-बकलोल वंशज या परिजन ही बनेगा।
घोषित-अघोषित नीतियां-रणनीतियां भी वहीं रहेंगी।
................................................................
आज कितने दल हैं जो वंशवादी-परिवारवादी होने के बावजूद तरक्की भी कर रहे हैं ?
कर रहे होंगे , किंतु अधिक नहीं।
अधिकतर तो धीरे- धीरे दुबले ही होते जा रहे हैं।
.................................
एक राजनीतिक चिंतक से मैंने पूछा कि घाटे का ऐसा सौदा दलीय
सुप्रीमो क्यों करते हैं ?
जवाब था --और क्या करें ?
अपनी गद्दी न तो कोई राजा अपने पड़ोसी को सौंप कर मरता था ।
औरद्व न ही आज भी कोई उद्योगपति अपना कारखाना अपने किसी मैनेजर को सौंप कर ऊपर जाता था।
नौकर कितने भी भरोसेमंद हों,किंतु दुकान के गल्ले पर सेठ,सेठानी या सेठजी का बच्चा ही तो बैठेगा।
.....................................
वाह रे भारतीय लोकतंत्र !!!
तेरे अंजाम पर रोना आया !
बात निकली तो हर बात पर रोना आया !!
जिन स्वतंत्रता सेनानियों ने ऊपर लिखी बुराइयों को अपने पास फटकने तक नहीं दिया, वे ऊपर से यह सब देख-समझ कर परलोक में चिंता में करवटें बदल रहे होंगे !
.............................................
--सुरेंद्र किशोर--19 दिसंबर 20
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें