रविवार, 20 दिसंबर 2020

   

‘‘चमड़ी जाए त जाए, लेकिन दमड़ी ना जाए।’’

अपने गांव में बचपन में मैंने एक कहावत सुनी थी

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इस देश के कुछ संगठनों पर यह कहावत 

लागू होते देखा जा सकता है।

   वंशवाद-परिवारवाद-भ्रष्टाचारवाद-तुष्टीकरणवाद के कारण भले कुछ पार्टियां धीरे -धीरे  बर्बाद होती जाए,किंतु उत्तराधिकारी बनेगा तो सुप्रीमो का योग्य-अयोग्य-बकलोल वंशज या परिजन ही बनेगा।

घोषित-अघोषित नीतियां-रणनीतियां भी वहीं रहेंगी।

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   आज कितने दल हैं जो वंशवादी-परिवारवादी होने के बावजूद तरक्की भी कर रहे हैं ?

कर रहे होंगे , किंतु अधिक नहीं।

अधिकतर तो धीरे- धीरे दुबले ही होते जा रहे हैं।

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  एक राजनीतिक चिंतक से मैंने पूछा कि  घाटे का ऐसा सौदा दलीय 

सुप्रीमो क्यों करते हैं ?

जवाब था --और क्या करें ?

अपनी गद्दी न तो कोई राजा अपने पड़ोसी को सौंप कर मरता था ।

औरद्व न ही आज भी कोई उद्योगपति अपना कारखाना अपने किसी मैनेजर को सौंप कर ऊपर जाता था।

नौकर कितने भी भरोसेमंद हों,किंतु दुकान के गल्ले पर  सेठ,सेठानी या सेठजी का बच्चा ही तो बैठेगा।

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वाह रे भारतीय लोकतंत्र !!!

तेरे अंजाम पर रोना आया !

बात निकली तो हर बात पर रोना आया !!

जिन  स्वतंत्रता सेनानियों ने ऊपर लिखी बुराइयों को अपने पास फटकने तक नहीं दिया, वे ऊपर से यह सब देख-समझ कर परलोक में चिंता में करवटें बदल रहे होंगे !

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--सुरेंद्र किशोर--19 दिसंबर 20 


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