याद रहेंगे शिक्षक नेता विनोद बाबू !
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बिहार विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के अध्यक्ष व महा
सचिव रहे डा.विनोद कुमार सिंह का कल निधन हो गया।
वह 82 साल के थे।
शब्द के सही अर्थों में समाजवादी, दिवंगत विनोद बाबू
को मैं दशकों से जानता था।
वैसे व्यक्ति इक्के -दुक्के ही मिलते हैं।
वे कई काॅलेजों के प्राचार्य रह चुके थे।
अच्छे शिक्षक और उतने ही अच्छे वक्ता भी थे।
प्राचार्य के रूप में भी कठोर प्रशासक थे।
सीतामढ़ी के उस गोयनका काॅलेज के भी प्राचार्य रहे जहां दिवंगत केंद्रीय मंत्री डा.रघुवंश प्रसाद सिंह शिक्षक थे।
विनोद बाबू जब भी पटना आते थे,मैं सब काम छोड़कर उनसे मिलने जाता था।
वे मुुजफ्फर पुर जिले के गायघाट के पूर्व विधायक (1977)विनोदानंद प्रसाद सिंह के कौटिल्य नगर स्थित आवास में ठहरते थे।
दोनों में अटूट दोस्ती थी।
परस्पर सम्मान और स्नेह का भाव देखते बनता था।
विनोदानंद जी के निधन के बाद वह मिलन स्थल नहीं रहा।
विनोद बाबू भी अस्वस्थ रहने लगे।
छपरा के अपने स्कूली सहपाठी सिद्धेश्वर तथा कुछ अन्य लोगों से विनोद बाबू का हालचाल मैं बीच -बीच में पूछता रहता था।
पहले तो मैं उन्हें ही कभी -कभी फोन भी कर लिया करता था।
पर जब पता चला कि उन्हें बोलने में दिक्कत होती है तो फोन करना छोड़ दिया।
उनके बारे में इतना ही कह सकता हूं कि यदि हम एक नगर में होते तो मैं सिर्फ उनकी बातें सुनने व कुछ सलाह मशविरा करने के लिए सप्ताह में दो-तीन दिन तो उनके पास जरूर जाता।
वे अभिभावक की तरह थे।
वे एक साथ बहुत कुछ थे।
समाजवादी,साहित्यकार,प्रभावशाली वक्ता ,शिक्षक नेता और दोस्तों के दोस्त।
एक बार डा.नामवर सिंह ने भी उनकी सार्वजनिक रूप से प्रशंसा की थी।
स्वतंत्रता सेनानी दिवंगत त्रिगुणानंद सिंह के पुत्र विनोद बाबू सारण जिले के बनिया पुर प्रखंड के पिपरा रत्नाकर गांव के मूल निवासी थे।
बाद में छपरा के अपने आवास में रहते थे।
कई पुस्तकों के लेखक विनोद बाबू का समाजवादी आंदोलन में बड़ा योगदान था।
जहां तक मेरी जानकारी है,यदि उन्होंने स्वाभिमान से थोड़ा समझौता किया होता तो वे राजनीति में भी किसी महत्वपूर्ण पद पर रहे होते।
किंतु उन चीजों का उनके लिए कोई खास मतलब नहीं था।
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विनोद बाबू ने एक बार किस तरह अपने मित्र के सम्मान की रक्षा के लिए पूरी किताब लिख डाली,उसका मैं गवाह हूं।
काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान ने ऐतिहासिक शोध ग्रंथ माला के तहत दिल्ली विश्व विद्यालय के शिक्षक रहे विनोदानंद प्रसाद सिंह को शहीद सूरज नारायण सिंह पर किताब लिखने का भार सौंपा था।
कुछ अग्रिम भी मिला था।
विनोदानंद सिंह ने किताब पर कुछ सामग्री जुटा भी ली थी।
पर,इस बीच वे सख्त बीमार हो गए।
अब उनके सामने धर्म संकट यह था कि किताब पूरी कैसे हो !
या फिर अग्रिम राशि लौटा दी जाए !
विनोदानंद जी ने अपनी पीड़ा एक दिन विनोद बाबू को बताई।
विनोद बाबू ने तुरंत उन्हें कह दिया कि मैं आपको इस धर्म -संकट से अभी मुक्त करता हूं।
आपका यह अधूरा काम मैं पूरा कर दूंगा।
उन्होंने ‘मृत्यंुजय सूरज नारायण सिंह’ नाम से किताब लिख डाली।
सूरज बाबू पर संभवतः यह सबसे अच्छी किताब है।
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विनोद बाबू उन विरल हस्तियों में शामिल हैं जो चले तो जाते हैं क्योंकि एक दिन सबको जाना है, किंतु उनकी यादें नहीं जातीं।
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--सुरे ंद्र किशोर-29 दिसंबर 20
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