गुरुवार, 15 फ़रवरी 2018

वोट बैंक बनाने की मजबूरी


           
भाजपा नेतृत्व  आंध्र प्रदेश के मुख्य मंत्री और  टी.डी.पी.के रूठे नेता चंद्र बाबू नायडु को मनाने में लगा है।माना जा रहा है कि दोनों के बीच सुलह हो जाएगी।
कुछ राजनीतिक सहयोगियों के मामले में यही काम सन् 2004 के लोक सभा चुनाव से पहले भाजपा नहीं कर सकी थी।नतीजतन सत्ता उसके हाथ से निकल गयी।
इस बार लगता है कि भाजपा छाछ फंूक -फंूक कर पी रही है। 
यदि भाजपा ने तब राम विलास पासवान को समय पर मना लिया होता और वह डी.एम.के. से दूर नहीं चली गयी होती तो 2004 के लोक सभा चुनाव के बाद भी सत्ता एन.डी.ए.के पास  ही रहती।
 1999 और 2004 लोक सभा  चुनाव के  आंकड़े इस बात की स्पष्ट गवाही देते  हैं। 
दरअसल कोई बड़ा चुनाव जीतने के लिए न सिर्फ अच्छे कामों की जरूरत पड़ती है बल्कि मजबूत सहयोगी और एक स्थायी वोट बैंक भी चाहिए।
वैसे वोट बैंक का इस्तेमाल इस देश में विभिन्न तरह के नेता व दल अलग- अलग उद्देश्यों की पूर्ति के लिए करते रहते हंै।
 कोई अपने जातीय-सांप्रदायिक वोट बैंक के बल पर अपने वंशवाद,व्यापक भ्रष्टाचार ,अपराध , और व्यक्तिगत धन संग्रह अभियान के काम को आगे बढ़ाने के लिए करता  है तो कोई इसका इस्तेमाल व्यापक जनहित में करता है।
 यदि अच्छे काम करने वाले सत्ताधारी दल के पास भी एक स्थायी वोट बैंक की ताकत नहीं होगी तो उसका तम्बू भी छोटी-मोटी विपरीत राजनीतिक -गैर राजनीतिक हवा -बयार में ही उखड़ जाएगा। जिस तरह हाल में राजस्थान के उप चुनावों में हुआ। 
जाने -अनजाने वोट बैंक इस देश की राजनीति पर 
1952 से ही हावी है।
  आजादी के तत्काल बाद की  सरकार ने अनुसूचित जातियों और जन जातियों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान किया।
 आरक्षण दस साल के लिए ही हुआ था।
यानी दस साल के बाद आरक्षण नियम के नवीनीकरण के लिए इस समुदाय को सरकार यानी कांग्रे्रेस पर निर्भर रहना ही था।
फिर वे किस दूसरे दल को  वोट देते ? क्यों अनिश्चितता को आमंत्रित करते ?
वैसे भी आजादी दिलाने का जिस दल को सबसे अधिक श्रेय मिला था,उसके प्रति आम लोग वैसे भी प्रारंभिक वर्षों में आकर्षित थे।
पर वे वोट बैंक बाद के वर्षों में कांग्रेस के राजनीतिक दुर्दिन में भी काम आते रहे।याद रहे कि हर दस साल पर आरक्षण का नवीनीकरण होता रहा।  
 1947 में भारी सांप्रदायिक हिंसा व तनाव  के बीच देश का बंटवारा हुआ था। जो मुसलमान  भारत में ही रह गए,उनकी सुरक्षा की समस्या थी।कांग्रेस सरकार ने उन्हें सुरक्षा का वादा किया।एक हद तक सुरक्षा दी भी।
वह भी एक वोट बंैक बन गया।
जिस जाति का प्रधान मंत्री या मुख्य मंत्री होता है,उस जाति का
बिन मांगे समर्थन उस नेता व पार्टी को मिल जाता है।
1987-89 में तो जब लगा कि वी.पी.सिंह प्रधान मंत्रंी बनने ही वाले हैं  तो उनकी जाति के अधिकतर लोगों का बिना मांगे समर्थन उन्हें मिल गया था।यह लाभ देश के प्रथम प्रधान मंत्री को भी मिलना स्वाभाविक ही था।
  इंदिरा गांधी के प्रधान मंत्रित्व काल में तो महिला का भी आकर्षण कांग्रेस के प्रति बढ़ा।हालांकि इंदिरा गांधी को सबसे अधिक लाभ गरीबी हटाओं के उनके नारे से मिला।गरीबों का एक  वोट बैंक भी उनके पक्ष में तैयार हो गया था।
यानी ऐसे वोट बैंक के सहारे कांग्रेस बहुत दिनों तक राज करती रही।कुछ अच्छे किंतु  अधिकतर विवादास्पद कार्यो के बावजूद कांग्रेस की सत्ता लंबे समय तक चलती रही।पर समय बीतने के साथ जैसे -जैसे मतदाताओं ने देखा कि कांग्रेस सरकारें वोट बैंक का सदुपयोग नंहीं कर रही है तो उसे बारी -बारी से केंद्र और अधिकतर राज्यों की सत्ता से हटा  दिया।
    इसके मुकाबले राजग,भाजपा और खास कर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का भी अपना वोट बैंक तैयार हो रहा  है।कुछ अन्य वोट बैंक तैयार करने की राजग सरकार कोशिश कर रही है।
हालांकि उसमें देर हो रही है जो उसके लिए घातक साबित हो सकती है।
 राजग सरकार के पक्ष में ऐसे लोगों का वोट बैंक तैयार हो चुका है जो चाहता है कि राजनीतिक कार्यपालिका भ्रष्टाचार से मुक्त  हो।
इस मामले में नरेंद्र मोदी सरकार सफल रही है।मोदी मंत्रिमंडल के किसी सदस्य पर भ्रष्टाचार का कोई गंभीर  आरोप नहीं लगा है।
सरकार में भ्रष्टाचार है ,पर मंत्रियों ने आम तौर पर दामन बचा रखा है।यदि कहीं कुछ है भी वह सामने नहीं आ रहा है।
खुद प्रधान मंत्री का तो कहना ही क्या !
एक -दो अपवादों को छोड़कर अब तक के अधिकतर केंद्रीय मंत्रिमंडलों का कोई न कोई मंत्री गंभीर आरापों के घेरे में था।
 राजग के पक्ष में दूसरा वोट बैंक ऐसे लोगों का है जो चाहते  
हैं कि केंद्र सरकार देश को तोड़ने और हथियारों के बल पर सत्ता पर कब्जा करने की कोशिश में लगे आतंकवादियों-अतिवादियों  के प्रति नरमी न दिखाए।मोदी इस काम में सफल होती दिख रही है।
हां,भ्रष्टाचार के मामले में मोदी सरकार की सफलता अधूरी है,पर अनेक लोग उसकी मंशा पर शक नहीं कर रहे हैं।
संकेत है कि राजग नेतृत्व  दो अन्य प्रमुख  मुद्दों पर मंथन
कर रहा है ।
एक मुद्दा है पिछड़ों के लिए जारी 27 प्रतिशत आरक्षण को तीन हिस्सों में बांटने का।
दूसरा मुददा है महिला आरक्षण विधेयक पास कराने का।
अगले लोक सभा चुनाव के लिए मजबूत वोट बैंक तैयार करने की दिशा में ये मुददे काफी मददगार साबित हो सकते हैं।
  पर सवाल है कि  इन मुद्दों को आगे बढ़ाने के लिए जैसी राजनीतिक इच्छा शक्ति की जरूरत होनी चाहिए,राजग नेतृत्व में मौजूद  है ?
 मंडल आरक्षण के वर्गीकरण को लेकर जिस तरह की इच्छाशक्ति केंद्र सरकार ने दिखाई है,उससे तो सकारात्मक संकेत आ रहे हैं।
राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने 2011 में ही मन मोहन  सरकार से यह सिफारिश की थी कि 27 प्रतिशत के मंडल आरक्षण कोटे को तीन हिस्सों में बांट दिया जाना चाहिए।उस सरकार ने इस सिफारिश को राजनीतिक रूप से नुकसानदेह माना।
मोदी सरकार ने गत साल गांधी जयंती पर  इस संबंध में बड़ा निर्णय किया।
न्यायाधीश रोहिनी के नेतृत्व में एक समीक्षा समिति बना दी गयी।
समिति आयोग की सिफारिश की समीक्षा करेगी।
उसे तीन महीने में रपट देनी है।उस रपट के आ जाने के बाद संभवतः केंद्र सरकार उस पर अपना अंतिम निर्णय कर सकती है।
अब तक यह पाया जाता रहा है कि  27 प्रतिशत के कोटे के बावजूद औसतन 11 प्रतिशत पिछड़ों को ही कोटे की नौकरियों में  जगह मिल पा रही है।
यदि वर्गीकरण से कुछ लोगों को अपने हक में यह प्रतिशत बढ़ने की संभावना नजर आएगी तो पिछड़ों के उन  हिस्सों का समर्थन भी राजग को मिल सकता है ।
 महिला आरक्षण विधेयक  2010 में राज्य सभा से पास हो गया था।इस विधेयक के जरिए विधायिकाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें रिजर्व करने का प्रावधान है।
पर वह विधेयक लोक सभा से पास नहीं हो सका।
आम सहमति के अभाव में यह संविधान संशोधन विधेयक लटक गया।
2014 के अगस्त में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने महिला आरक्षण विधेयक पास करने की जरूरत बताई  थी।
 यानी यदि केंद्र सरकार अब महिला विधेयक संसद में पेश करती है तो कांग्रेस उसका विरोध नहीं करेगी।
 मोदी सरकार के लिए यह एक  अनुकूल राजनीतिक अवसर है।
यदि पास हो गया तो भी उसका राजग को राजनीतिक लाभ मिलेगा।यदि कांग्रेस ने सदन में उसका विरोध कर दिया तौभी राजग अगले चुनाव में कांग्रेस पर  महिला विरोधी होने का आरोप लगा  सकता है।
  कुल मिलाकर पहल करने का अवसर केंद्र की राजग सरकार को मिला हुआ है।
ऐसा अवसर  1969 में तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को मिला था। उन्होंने ‘गरीबी हटाओ’ का लोक लुभावन नारा दे दिया।उन्होंने  14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। और, प्रिवी पर्स व राजाओं के विशेषाधिकार समाप्त करके ऐसा माहौल बना दिया कि वे अपने ही बल पर आसानी से 1971 का लोक सभा चुनाव जीत गयीं।     
  @ मेरे इस लेख का संपादित अंश 15 फरवरी, 2018 के दैनिक जागरण में  प्रकाशित@
      

1 टिप्पणी:

Lalmani Tiwari ने कहा…

बहुत ही महत्वपूर्ण लेख.