कमल जी, आपने लिखा कि घोटाले व्यवस्था की सड़ांध की परिचायक है।इसे बदले बिना कोई कानून कारगर नहीं हो सकता।
मैंने पूछा कि वह कौन सी व्यवस्था है जिसमें घोटालों की गंुजाइश नहीं।
आपने ठीक ही कहा कि व्यवस्था सही वही मानी जाएगी जो अपने सही रूप में अंतिम पायदान तक पहुंचे।
बहुत अच्छी बात आपने कही।पर वैसी किसी व्यवस्था की रूपरेखा अब तक किसी ने तैयार नहीं की है।आपके पास हो तो बताइएगा।
आपकी यह बात ज्यादा सही है कि बागडोर कैसे हाथों में है।
आजादी के तत्काल बाद के पांच -दस साल तक लगता था कि कानून का शासन है।बाद में सत्ताधारी नेताओं की ढिलाई के कारण स्थिति बिगड़ी।
पर आज भी केरल में 77 प्रतिशत आरोपितों को अदालतों से सजा हो जाती है।बिहार और पश्चिम बंगाल में यह प्रतिशत क्रमशः 10 और 11 है।
1953 में पूरे देश में अपराधियों को सजा का औसत प्रतिशत 63.9 था।अब 45 प्रतिशत 1 है।
व्यवस्था तो वही है।पर उसे चलाने वाले बदल गए।
मैंने चीन और रूस की चर्चा इसलिए की क्योंकि पीडि़त मनुष्य के उद्धार के लिए अब तक की वह सबसे अच्छी व्यवस्था मानी गयी।उसने उद्धार किया भी।पर वह व्यवस्था भी जब गलत हाथों में चली गयी तो स्थिति बदल गयी।
चीन के एक शासक ने हाल ही में यह रोना रोया कि यदि हमारे देश में भ्रष्टाचार नहीं रुका तो यह देश सोवियत संघ की तरह ही बिखर जाएगा।
जबकि वहां भ्रष्टाचारियों के लिए फांसी तक की सजा का प्रावधान है।
हमारे यहां उसका प्रयोग करके पहले देखना चाहिए।
यानी फांसी की सजा का प्रावधान करके।यहां कड़े शासन
का लोग पालन करते हैं। 1975-77 का आपातकाल उसका उदाहरण है।
यदि आपातकाल का उद्देश्य जन कल्याण रहा होता तो उसे आम स्वीकृति भी मिल गयी होती।
इसी देश में जब पोटा था तो आज की अपेक्षा अधिक देशद्रोहियों को सजा हो पाती थी।
यानी कानून भी बेहतर व समायानुकूल हो और शासन चलाने वाले भी ठीक ठाक हांे तो स्थिति बदल सकती है।
पर दुर्भाग्य से हमारे यहां कानून तोड़कों को यह लगता है कि वे कुछ भी करके बच सकते हैं।
@मेरे फेस बुक वाल पर वरीय पत्रकार राजेंद्र कमल की टिप्पणी पर मेरा जवाब@
मैंने पूछा कि वह कौन सी व्यवस्था है जिसमें घोटालों की गंुजाइश नहीं।
आपने ठीक ही कहा कि व्यवस्था सही वही मानी जाएगी जो अपने सही रूप में अंतिम पायदान तक पहुंचे।
बहुत अच्छी बात आपने कही।पर वैसी किसी व्यवस्था की रूपरेखा अब तक किसी ने तैयार नहीं की है।आपके पास हो तो बताइएगा।
आपकी यह बात ज्यादा सही है कि बागडोर कैसे हाथों में है।
आजादी के तत्काल बाद के पांच -दस साल तक लगता था कि कानून का शासन है।बाद में सत्ताधारी नेताओं की ढिलाई के कारण स्थिति बिगड़ी।
पर आज भी केरल में 77 प्रतिशत आरोपितों को अदालतों से सजा हो जाती है।बिहार और पश्चिम बंगाल में यह प्रतिशत क्रमशः 10 और 11 है।
1953 में पूरे देश में अपराधियों को सजा का औसत प्रतिशत 63.9 था।अब 45 प्रतिशत 1 है।
व्यवस्था तो वही है।पर उसे चलाने वाले बदल गए।
मैंने चीन और रूस की चर्चा इसलिए की क्योंकि पीडि़त मनुष्य के उद्धार के लिए अब तक की वह सबसे अच्छी व्यवस्था मानी गयी।उसने उद्धार किया भी।पर वह व्यवस्था भी जब गलत हाथों में चली गयी तो स्थिति बदल गयी।
चीन के एक शासक ने हाल ही में यह रोना रोया कि यदि हमारे देश में भ्रष्टाचार नहीं रुका तो यह देश सोवियत संघ की तरह ही बिखर जाएगा।
जबकि वहां भ्रष्टाचारियों के लिए फांसी तक की सजा का प्रावधान है।
हमारे यहां उसका प्रयोग करके पहले देखना चाहिए।
यानी फांसी की सजा का प्रावधान करके।यहां कड़े शासन
का लोग पालन करते हैं। 1975-77 का आपातकाल उसका उदाहरण है।
यदि आपातकाल का उद्देश्य जन कल्याण रहा होता तो उसे आम स्वीकृति भी मिल गयी होती।
इसी देश में जब पोटा था तो आज की अपेक्षा अधिक देशद्रोहियों को सजा हो पाती थी।
यानी कानून भी बेहतर व समायानुकूल हो और शासन चलाने वाले भी ठीक ठाक हांे तो स्थिति बदल सकती है।
पर दुर्भाग्य से हमारे यहां कानून तोड़कों को यह लगता है कि वे कुछ भी करके बच सकते हैं।
@मेरे फेस बुक वाल पर वरीय पत्रकार राजेंद्र कमल की टिप्पणी पर मेरा जवाब@
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