मंगलवार, 13 फ़रवरी 2018

2007 में यह खबर आई थी कि ब्रिटेन के प्रिंस हैरी 
इराक युद्ध में जाने को लालायित थे, पर सेना प्रमुख ने उन्हें रोक दिया।क्योंकि उन्हें अधिक खतरा लगा।याद रहे कि उससे पहले प्रिंस इराक जा चुके थे।
याद रहे कि उन्होंने दस साल की मिलिट्री ट्रेनिंग ली ।वे कप्तान  बने ।सवाल है कि क्या ऐसी ट्रेनिंग उनके लिए जरूरी  थी ? पता नहीं।हां,देश के लिए उनके मन में प्रेम के कारण वे रणक्षेत्र में जाना चाहते थे।
  हमारे देश के कुछ ‘लोकतंात्रिक राजाओं’ और उनके आधुनिक प्रिंस लोगों के लिए क्या यह कोई सबक बन सकता है ?
पता नहीं।
ऐसी घटनाओं से पता चलता है कि कोई देश कैसे गुलाम और आजाद बनता है और बना रहता है।अपने देश के गुलाम बनने के कुछ कारण बताए जाते रहे हैं।
पर, अब तो अपने देश में ऐसा कोई बंधन नहीं है कि कुछ खास जातियों को ही हथियार  उठाने दिया जाता है।जिस काल में ऐसे प्रतिबंध की बात कही जाती है,उस बात में भी कितनी सच्चाई है,यह मैं नहीं जानता। 
  दुनिया के कुुछ अन्य देशों में वहां के नागरिकों के लिए आवश्यक मिलिट्री ट्रेनिंग का प्रावधान है।छह माह से ढाई साल तक के लिए।
चीन और इजरायल में ऐसा प्रावधान है तो बात समझ आती है।पर कुछ ऐसे देशों में भी ऐसे प्रावधान हैं जिन देशांे को शायद ही कभी युद्ध झेलना पड़ा हो।
 अपने देश में यदि कोई यह बात उठा दे कि यहां एक खास आयु के आम नागरिकों के लिए अनिवार्य मिलिट्री ट्रेनिंग का प्रावधान होना चाहिए तो यहां  राजनीतिक तूफान  उठ जाएगा।कुछ लोग उठाने वाले को  कच्चा चबा जाना चाहेंगे।
जबकि हमारे देश पर एक  पड़ोसी ने अघोषित युद्ध छेड़ रखा है।उस युद्ध में हमारे भीतर के अनेक जयचंद-मिरजाफर भी सक्रिय है।अपने -अपने तरीके  से वे अपनी भूमिकाएं निभाते रहते हैं।कुछ प्रत्यक्ष तो कुछ परोक्ष ढंग से।
दूसरा पड़ोसी हमेशा षड्गहस्त है।पता नहीं, कब क्या हो जाएगा ?
 चीन ने पचास के दशक में जब तिब्बत में सक्रियता दिखाई तो हमारे देश के अच्छी मंशा वाले कुछ नेताओं ने भारत सरकार को चेताया।पर हमारी तब की सरकार तो पंचशील के नशे में थी।नतीजतन 1962 में हमें चीन के हाथों शर्मसार होना पड़ा।
चीन युद्ध के  समय जब हमारे मित्र सोवियत संघ ने भी हमारा साथ नहीं दिया तो प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने  अमेरिकी सरकार को लगातार कई त्राहिमाम संदेश भेजे।
एक दिन तो कुछ ही घंटे के भीतर जब दो संदेश अमेरिका स्थित भारतीय राजदूत को मिले तो हमारी बेचारगी पर वह राजदूत  भी शर्मिंदा हो गए थे।
 खैर, कल्पना कीजिए कि हमारे दो पड़ोसी मुल्क एक साथ हम पर युद्ध थोप दंे तो वैसी स्थिति में क्या यह जरूरी नहीं हो जाएगा कि आम नागरिकों में से जो स्वस्थ हैं ,वे भी देश को बचाने के काम में लग जाएं ?
यदि उन्हें कोई ट्रेनिंग नहीं रहेगी तो वे क्या करेंगे ?
जहां तक मुझे याद है मैंने सुना था कि एक युद्ध के समय तो हमारे देश में एन.सी.सी. के कैडेट दिल्ली में ट्राफिक का काम देख रहे थे।
  अब जरा उन देशों की सूची देख लीजिए जहां के नागरिकों के लिए कुछ अपवादों को छोड़कर अनिवार्य मिलिट्री ट्रेनिंग का प्रावधान है।
आस्ट्रिया-@ 8 माह@,ग्रीस-@18 माह@,इजरायल और चीन--स्त्री-पुरूष दोनों के लिए-जरूरी।
फीनलैंड-6 माह,जर्मनी- 9 माह।
मलेशिया-3 माह।लेबनान-एक साल।
सिंगा पुर -ढाई साल।साउथ कोरिया - 26 माह।इनके अलावा स्वीडेन, स्विट्जर लैंड, ताइवान आदि में जरूरी सैनिक प्रशिक्षण का प्रावधान है।
हम कहां हैं ?
  
   

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