आज कैंसर दिवस है।ताजा उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार
इस देश में कुल 39 लाख लोग कैंसर से पीडि़त हैं।
बिहार में 3 लाख 59 हजार मरीज हैं।गंगा के किनारे इसका प्रकोप खास तौर पर देखा जा रहा है।
कैंसर की शत्र्तिया दवा अभी उपलब्ध नहीं है।
शोध हो रहे हैं।ईश्वर करें जल्द किसी ऐसी दवा का ईजाद हो जाए।
फिर भी कुछ कैंसर मरीज एलोपैथिक तथा अन्य दवाओं से ठीक भी हो रहे हैं।
पर उनकी संख्या कम है।
इस बीच स्वमूत्र चिकित्सा की याद आती है।जानकार लोग बताते हैं कि यदि कैंसर लीवर में नहीं हो तो स्वमूत्र चिकित्सा सबसे अच्छा रिजल्ट देती है।
मैंने खुद कैंसर के गंभीर मरीज को स्वमूत्र चिकित्सा से स्वस्थ होते देखा है।उनमें पटना के एक पत्रकार और आरा के एक प्रोफेसर थे।आरा के प्रोफेसर साहब तो बाद में खुद चिकित्सक भी बन गए थे।उन्होंने मुझे बताया था कि उससे पहले मुंबई के टाटा कैंसर संस्थान ने उम्मीद छोड़ दी थी।
पर, इस चिकित्सा में सबसे बड़ी समस्या मूत्र के प्रति आम लोगों में घृणा की जबर्दस्त भावना है।
यह पोस्ट उनके लिए नहीं है।इस मामले में जिनका दिमाग खुला है,उन्हें इस चिकित्सा को सकारात्मक ढंग से देखना चाहिए।
इस संबंध में नब्बे के दशक में पूर्व प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई की उपस्थिति मंे मुम्बई में उनके पुत्र कांति देसाई ने इंडियन एक्सप्रेस की संवाददाता विद्योत्तमा वत्स को जो कुछ बताया,वह इस प्रकार है--‘
‘पिछले दिनों जापान की हाशीबारा लेबोरेटरीज के अध्यक्ष के. हाशीबारा का पत्र मिला है।पढ़ना चाहोगी ?’
संवाददाता ने कहा -जी बिलकुल।
कांति के अनुसार ‘पत्र में हाशीबारा ने लिखा है कि स्वमूत्र चिकित्सा पर मोरारजी देसाई के विचार पढ़कर मैंने उस पर शोध करवाया।इसमें पाया गया कि मनुष्य के मूत्र में पाए जाने वाले ल्यूकोसाइट से कैंसर और संक्रामक रोगों का इलाज किया जा सकता है।
उसमें पाया जाने वाला एन्जाइम यूरोकिनेश एड्स और हेपटाइटिस का इलाज कर सकता है।थ्रोंबोसिस का तो इससे पूरी तरह उपचार किया जा सकता है।’
22 नवंबर 1991 को लिखे अपने पत्र में .हाशीबारा ने लिखा कि मैंने आॅटो यूरीन थेरेपी
पर बाकायदा एक शोध संस्थान खोला है।क्योंकि हम मानते हैं कि कई असाध्य रोगों का इससे इलाज किया जा सकता है।उन्होंने पूर्व प्रधान मंत्री से इस थेरेपी के लिए भारत में मौजूद आश्रमों और संस्थानों की जानकारी मांगते हुए अपने पत्र में बताया कि आज जापान में लगभग 20 लाख लोग इस चिकित्सा को अपना रहे हैं।
कांति देसाई ने संवाददाता से कहा कि ‘अगर पत्रकारों ने इस चिकित्सा का मजाक उड़ाने के बजाय इस विषय पर सही तरीके से प्रकाश डाला होता तो कम से कम गरीबों का तो फायदा हुआ होता।’
बिहार के कुछ ऐसे अमीरों को मैं जानता हूं जिन्हें कैंसर हुआ था और अंतिम घड़ी में उन्होंने मूत्र चिकित्सा शुरू की थी।पर वे बच नहीं सके।
यदि रोग का पता चलने के तत्काल बाद यह चिकित्सा उन्होंने शुरू की होती तो शायद उन्हें लाभ मिल सकता था।
इस देश में कुल 39 लाख लोग कैंसर से पीडि़त हैं।
बिहार में 3 लाख 59 हजार मरीज हैं।गंगा के किनारे इसका प्रकोप खास तौर पर देखा जा रहा है।
कैंसर की शत्र्तिया दवा अभी उपलब्ध नहीं है।
शोध हो रहे हैं।ईश्वर करें जल्द किसी ऐसी दवा का ईजाद हो जाए।
फिर भी कुछ कैंसर मरीज एलोपैथिक तथा अन्य दवाओं से ठीक भी हो रहे हैं।
पर उनकी संख्या कम है।
इस बीच स्वमूत्र चिकित्सा की याद आती है।जानकार लोग बताते हैं कि यदि कैंसर लीवर में नहीं हो तो स्वमूत्र चिकित्सा सबसे अच्छा रिजल्ट देती है।
मैंने खुद कैंसर के गंभीर मरीज को स्वमूत्र चिकित्सा से स्वस्थ होते देखा है।उनमें पटना के एक पत्रकार और आरा के एक प्रोफेसर थे।आरा के प्रोफेसर साहब तो बाद में खुद चिकित्सक भी बन गए थे।उन्होंने मुझे बताया था कि उससे पहले मुंबई के टाटा कैंसर संस्थान ने उम्मीद छोड़ दी थी।
पर, इस चिकित्सा में सबसे बड़ी समस्या मूत्र के प्रति आम लोगों में घृणा की जबर्दस्त भावना है।
यह पोस्ट उनके लिए नहीं है।इस मामले में जिनका दिमाग खुला है,उन्हें इस चिकित्सा को सकारात्मक ढंग से देखना चाहिए।
इस संबंध में नब्बे के दशक में पूर्व प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई की उपस्थिति मंे मुम्बई में उनके पुत्र कांति देसाई ने इंडियन एक्सप्रेस की संवाददाता विद्योत्तमा वत्स को जो कुछ बताया,वह इस प्रकार है--‘
‘पिछले दिनों जापान की हाशीबारा लेबोरेटरीज के अध्यक्ष के. हाशीबारा का पत्र मिला है।पढ़ना चाहोगी ?’
संवाददाता ने कहा -जी बिलकुल।
कांति के अनुसार ‘पत्र में हाशीबारा ने लिखा है कि स्वमूत्र चिकित्सा पर मोरारजी देसाई के विचार पढ़कर मैंने उस पर शोध करवाया।इसमें पाया गया कि मनुष्य के मूत्र में पाए जाने वाले ल्यूकोसाइट से कैंसर और संक्रामक रोगों का इलाज किया जा सकता है।
उसमें पाया जाने वाला एन्जाइम यूरोकिनेश एड्स और हेपटाइटिस का इलाज कर सकता है।थ्रोंबोसिस का तो इससे पूरी तरह उपचार किया जा सकता है।’
22 नवंबर 1991 को लिखे अपने पत्र में .हाशीबारा ने लिखा कि मैंने आॅटो यूरीन थेरेपी
पर बाकायदा एक शोध संस्थान खोला है।क्योंकि हम मानते हैं कि कई असाध्य रोगों का इससे इलाज किया जा सकता है।उन्होंने पूर्व प्रधान मंत्री से इस थेरेपी के लिए भारत में मौजूद आश्रमों और संस्थानों की जानकारी मांगते हुए अपने पत्र में बताया कि आज जापान में लगभग 20 लाख लोग इस चिकित्सा को अपना रहे हैं।
कांति देसाई ने संवाददाता से कहा कि ‘अगर पत्रकारों ने इस चिकित्सा का मजाक उड़ाने के बजाय इस विषय पर सही तरीके से प्रकाश डाला होता तो कम से कम गरीबों का तो फायदा हुआ होता।’
बिहार के कुछ ऐसे अमीरों को मैं जानता हूं जिन्हें कैंसर हुआ था और अंतिम घड़ी में उन्होंने मूत्र चिकित्सा शुरू की थी।पर वे बच नहीं सके।
यदि रोग का पता चलने के तत्काल बाद यह चिकित्सा उन्होंने शुरू की होती तो शायद उन्हें लाभ मिल सकता था।
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