28 फरवरी 1963 को राजेन बाबू को जहानाबाद से एक तार मिला। उसे पढ़ते ही उनकी तबियत बिगड़ने लगी। तार के जरिए यह सूचना आई थी कि उनके मित्र सुलतान अहमद नहीं रहे। नर्स से ऑक्सीजन लाने के लिए कहा। ऑक्सीजन सिंलेडर आने में थोड़ी देर हुई। वैसे ऑक्सीजन दरवाजे पर आया ही था कि राजेन बाबू नहीं रहे। एक आम आदमी की तरह जिए और मरे।
1962 में राष्ट्रपति पद से अवकाश मिलने के बाद डॉ. राजेंद्र प्रसाद पटना आए । सदाकत आश्रम परिसर में रहने लगे। यह वही मकान था जहां से वे आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। अत्यंत सामान्य किस्म का वह घर था। बाद में रहने लायक भी नहीं रह गया था।
जयप्रकाश नारायण ने चंदा करके उसे रहने लायक बनाया। हालांकि जेपी उनके लिए एक मकान बनवाना चाहते थे। पर उसके लिए आम के पेड़ काटने पड़ते।
राजेंद्र बाबू ने इस पर कहा था कि ‘इस पके आम के लिए आम के पेड़ों को मत काटो।’
देश के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी, संविधान सभा के अध्यक्ष और 12 साल तक राष्ट्रपति रहे डॉ. राजेंद्र प्रसाद के बुढ़ापे में देखभाल करने में सरकार का शायद कोई खास योगदान नहीं था। समकालीन पत्रकार रवि रंजन सिन्हा के अनुसार पटना में राजेंद्र बाबू के आसपास कहीं सरकारी तंत्र नजर नहीं आता था।
पटना के गंगा किनारे आम के बगीचे के बीच की उनकी ‘कुटिया’ में ए.सी. का भी प्रबंध नहीं था। ऐसा उनके दमा के मरीज होने के कारण था या साधन के अभाव में, इस पर कई बार चर्चा चलती रहती है।
जवाहर लाल नेहरू के साथ मनमुटाव
तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के साथ उनके ठंडे संबंधों के कारण ऐसी चर्चाओं को बल मिलता रहा।
दोनों के बीच मनमुटाव और बढ़ गया था जब चीनी आक्रमण के बाद डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने पटना के गांधी मैदान में ‘हिमालय बचाओ’ बैनर तले हुई सभा को संबोधित किया। डॉ. राम मनोहर लोहिया द्वारा आयोजित उस सभा में जनरल करियप्पा भी शामिल हुए थे। उस सभा में सरकार के खिलाफ भी कुछ बातें कहीं गयीं।
पुराने समाजवादी उमेश जी ने बताया कि राजेंद्र बाबू के निधन के समय डॉ. लोहिया भी पटना में थे। लोहिया के साथ पत्रकार जितेंद्र सिंह भी उस दिन राजेन बाबू से मिलने गए थे। राजेन बाबू के अंतिम संस्कार में शामिल होने जब जवाहरलाल नेहरू पटना नहीं आए तो उसका यह भी एक कारण बताया गया। बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री विनोदानंद झा ने प्रधानमंत्री को फोन करके पटना आने के बारे में उनसे पूछा था। प्रधानमंत्री ने कहा था कि उन्हें जयपुर जाना है। वैसे अंत्येष्टि कार्यक्रम में राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन, लाल बहादुर शास्त्री तथा अन्य कई बड़े नेता शामिल हुए थे।
डॉ. प्रसाद बढ़ती उम्र और खराब स्वास्थ्य के बावजूद सार्वजनिक कार्यक्रमों का निमंत्रण जल्दी अस्वीकार नहीं करते थे। 28 फरवरी 1963 को उन्हें पटना विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह को संबंोधित करना था। उसके लिए वे तैयार भी थे, पर इसी बीच मित्र के निधन की खबर मिल गयी।
जब वे राष्ट्रपति थे तो उनके स्टाफ में थे राजेंद्र कपूर । वे नौकरी छोड़ कर राजेंद्र बाबू के साथ रहने पटना आ गए थे। याद रहे कि राजेंद्र बाबू के छात्र जीवन में उनके एक परीक्षक ने उनकी उत्तर पुस्तिका में लिखा था कि ‘परीक्षार्थी, इस परीक्षक से बेहतर है।’
राजेंद्र बाबू ने किसी परीक्षा में कभी सेकेंड नहीं किया। आजादी की लड़ाई में उनका योगदान अप्रतिम था। संविधान सभा के अध्यक्ष और 12 साल तक राष्ट्रपति रहे राजेंद्र बाबू के लिए उस जगह कोई ढंग का अब तक स्मारक नहीं बन सका जहां उन्होंने अंतिम सांस ली और जहां से आजादी की लड़ाई लड़ी।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद का जन्म तीन दिसंबर, 1884 को बिहार के अविभाजित सारण जिले के जीरादेई गांव में हुआ था। छपरा के जिला स्कूल में उनकी प्रारंभिक शिक्षा हुई। पटना के टी.के. घोष अकादमी में शिक्षक रहे राम नरेश झा को इस बात पर गर्व है कि छपरा जिला स्कूल के पहले राजेंद्र बाबू दो साल तक टी.के. घोष अकादमी के छात्र रहे। उच्च शिक्षा के लिए वे प्रेसिडेंसी कॉलेज कलकत्ता गए।
कुशाग्र बुद्धि के राजेंद्र बाबू ने एट्रेंस से बी.ए. तक की परीक्षाओं में विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया। एम.ए.की परीक्षा में भी प्रथम श्रेणी में विश्वविद्यालय में प्रथम आए। वकालत पढ़ी। सन 1911 में वकालत प्रारंभ की। पहले कलकत्ता और फिर पटना में। वर्ष 1917 में वे चम्पारण सत्याग्रह में गांधी जी के सहयोगी बने।
1920 में वकालत छोड़ दी। असहयोग आंदोलन में शमिल हो गए। तीन बार कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। अंतरिम सरकार में देश के खाद्य मंत्री थे।उन्हें 1962 में भारत रत्न से अलंकृत किए गए। वे बिहारी छात्र सम्मेलन के संस्थापक भी थे।
(पुण्यतिथि पर उनकी याद में)
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