केंद्रीय लोकसेवा की सन् 2017 की परीक्षा के टॉपर को सिर्फ 55.6 प्रतिशत अंक मिले। यानी द्वितीय श्रेणी के अंक। इस तरह दूसरे दर्जे का दिमाग देश का प्रशासन चलाएगा।
यदि पूरे सवालों की संख्या 100 मान ली जाए तो इस टॉपर ने उनमें से लगभग 44 सवालोंं के गलत जवाब दिए। देश में शिक्षा के गिरते स्तर का इससे बेहतर उदाहरण कोई और हो सकता है क्या?
आचार्य विनोबा भावे कहा करते थे कि यदि आपका रसोइया सौ में से 65 रोटियां जला दे तो क्या आप फिर भी अगले दिन उसे काम पर बुलाइएगा? याद रहे कि वे 35 प्रतिशत में ही परीक्षाथियों के पास हो जाने की सुविधा का विरोध कर रहे थे।
जो लोग लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं को बहुत कठिन मानते हैं यानी हौआ बनाए रखते हैं, उनके लिए एक व्यक्तिगत अनुभव बता रहा हूं।
सन् 1983 में दैनिक ‘जनसत्ता’ में नौकरी के लिए मैंने भी टेस्ट परीक्षा दी थी।
उत्तर लिखने में कुछ घंटे लगे थे।
जनसत्ता में नौकरी के लिए आवेदन पत्र जरूर भेजा था,पर
उम्मीद नहीं थी कि लिखित परीक्षा भी देनी पड़ेगी।इसलिए कोई तैयारी नहीं की थी।
बहुत बाद में ‘जनसत्ता’ के प्रधान संपादक प्रभाष जोशी ने अपने कॉलम में उस परीक्षा की चर्चा की थी।उन्होंने लिखा कि हमने जनसत्ता की टेस्ट परीक्षा के लिए जो प्रश्न पत्र तैयार किया था, वह यू.पी.एस.सी. परीक्षा के प्रश्न पत्र की अपेक्षा अधिक कठिन था।
याद रहे कि जनसत्ता की मौखिक परीक्षा एल.सी.जैन, एम.वी.देसाई, बी.जी.वर्गीज और प्रभाष जोशी के बोर्ड ने ली थी।
इन परीक्षाओं के बाद मुझे वहां नौकरी मिल गयी थी।यानी मैं
उस परीक्षा में पास कर गया था।
कितना प्रतिशत अंक मुझे मिले थे यह तो नहीं मालूम ,पर कम से कम पास मार्क्स तो मिला ही होगा।
अब मेरी प्रतिभा व जानकारियों का हाल सुनिए।
मैं 1963 में मैट्रिक प्रथम श्रेणी में जरूर पास कर गया था,पर अच्छे अंक नहीं थे।यानी मेरिट स्कॉलरशिप लायक अंक नहीं थे।
इसलिए लोन स्कॉलरशिप लिया था।
कालेज में जाने के बाद कभी गंभीरता से पढ़ाई नहीं की।
किसी तरह स्नातक हुआ।
ऐसा इसलिए था क्योंकि मैं पहले अध्यात्म और बाद में सक्रिय राजनीति से जुड़ गया।
उन क्षेत्रों में पढ़ाई -लिखाई की कोई मजबूरी थी नहीं ।नौकरी करने का इरादा ही नहीं था,इसलिए प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी ही नहीं की कभी।
पत्रकारिता छोड़ कर किसी अन्य नौकरी के लिए जीवन में कभी आवेदन ही नहीं दिया।
यानी ज्ञान-विज्ञान-प्रतिभा के मामले में हमेशा औसत रहा।
इसके बावजूद बिना किसी तैयारी के जनसत्ता की टेस्ट परीक्षा में पास कर गया।
यदि किसी प्रतियोगिता परीक्षा के लिए तैयारी की होती तो अंदाज लगाइए कि उसके बाद मेरे जैसे मेडियोकर को भी कितने अंक आते ?
@हां, नियमित सेवा से रिटायर होने के बाद हाल के वर्षों में अपनी जानकारियां बढ़ाने का मुझे जरूर अवसर मिल रहा है।@
आज के उम्मीदवार तो रात दिन पढ़ने ,कोचिंग करने के बावजूद यू.पी.एस.सी.की परीक्षा में प्रथम श्रेणी के मार्क्स भी नहीं ला पा रहे हैं।ऐसा क्यों हो रहा है ?
कमी कहां है ? देश के लिए गंभीर चिंता और चिंतन का विषय है।पर सवाल है कि कौन चिंतन करेगा ?
मैं इस संबंध में जानकार लोगों से समझना चाहूंगा।
यदि पूरे सवालों की संख्या 100 मान ली जाए तो इस टॉपर ने उनमें से लगभग 44 सवालोंं के गलत जवाब दिए। देश में शिक्षा के गिरते स्तर का इससे बेहतर उदाहरण कोई और हो सकता है क्या?
आचार्य विनोबा भावे कहा करते थे कि यदि आपका रसोइया सौ में से 65 रोटियां जला दे तो क्या आप फिर भी अगले दिन उसे काम पर बुलाइएगा? याद रहे कि वे 35 प्रतिशत में ही परीक्षाथियों के पास हो जाने की सुविधा का विरोध कर रहे थे।
जो लोग लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं को बहुत कठिन मानते हैं यानी हौआ बनाए रखते हैं, उनके लिए एक व्यक्तिगत अनुभव बता रहा हूं।
सन् 1983 में दैनिक ‘जनसत्ता’ में नौकरी के लिए मैंने भी टेस्ट परीक्षा दी थी।
उत्तर लिखने में कुछ घंटे लगे थे।
जनसत्ता में नौकरी के लिए आवेदन पत्र जरूर भेजा था,पर
उम्मीद नहीं थी कि लिखित परीक्षा भी देनी पड़ेगी।इसलिए कोई तैयारी नहीं की थी।
बहुत बाद में ‘जनसत्ता’ के प्रधान संपादक प्रभाष जोशी ने अपने कॉलम में उस परीक्षा की चर्चा की थी।उन्होंने लिखा कि हमने जनसत्ता की टेस्ट परीक्षा के लिए जो प्रश्न पत्र तैयार किया था, वह यू.पी.एस.सी. परीक्षा के प्रश्न पत्र की अपेक्षा अधिक कठिन था।
याद रहे कि जनसत्ता की मौखिक परीक्षा एल.सी.जैन, एम.वी.देसाई, बी.जी.वर्गीज और प्रभाष जोशी के बोर्ड ने ली थी।
इन परीक्षाओं के बाद मुझे वहां नौकरी मिल गयी थी।यानी मैं
उस परीक्षा में पास कर गया था।
कितना प्रतिशत अंक मुझे मिले थे यह तो नहीं मालूम ,पर कम से कम पास मार्क्स तो मिला ही होगा।
अब मेरी प्रतिभा व जानकारियों का हाल सुनिए।
मैं 1963 में मैट्रिक प्रथम श्रेणी में जरूर पास कर गया था,पर अच्छे अंक नहीं थे।यानी मेरिट स्कॉलरशिप लायक अंक नहीं थे।
इसलिए लोन स्कॉलरशिप लिया था।
कालेज में जाने के बाद कभी गंभीरता से पढ़ाई नहीं की।
किसी तरह स्नातक हुआ।
ऐसा इसलिए था क्योंकि मैं पहले अध्यात्म और बाद में सक्रिय राजनीति से जुड़ गया।
उन क्षेत्रों में पढ़ाई -लिखाई की कोई मजबूरी थी नहीं ।नौकरी करने का इरादा ही नहीं था,इसलिए प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी ही नहीं की कभी।
पत्रकारिता छोड़ कर किसी अन्य नौकरी के लिए जीवन में कभी आवेदन ही नहीं दिया।
यानी ज्ञान-विज्ञान-प्रतिभा के मामले में हमेशा औसत रहा।
इसके बावजूद बिना किसी तैयारी के जनसत्ता की टेस्ट परीक्षा में पास कर गया।
यदि किसी प्रतियोगिता परीक्षा के लिए तैयारी की होती तो अंदाज लगाइए कि उसके बाद मेरे जैसे मेडियोकर को भी कितने अंक आते ?
@हां, नियमित सेवा से रिटायर होने के बाद हाल के वर्षों में अपनी जानकारियां बढ़ाने का मुझे जरूर अवसर मिल रहा है।@
आज के उम्मीदवार तो रात दिन पढ़ने ,कोचिंग करने के बावजूद यू.पी.एस.सी.की परीक्षा में प्रथम श्रेणी के मार्क्स भी नहीं ला पा रहे हैं।ऐसा क्यों हो रहा है ?
कमी कहां है ? देश के लिए गंभीर चिंता और चिंतन का विषय है।पर सवाल है कि कौन चिंतन करेगा ?
मैं इस संबंध में जानकार लोगों से समझना चाहूंगा।
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