इस भीषण गर्मी में जब वृक्ष शीतल छांव देने लगें तो उनके प्रति कृतज्ञता से भर उठना स्वाभाविक ही है। इसीलिए मैं वृक्षों के प्रति एक सुखद एहसान के साथ इस पोस्ट में उनकी अनुभूति -याद को सहेज रहा हूं।
करीब तीन साल पहले मैंने पटना एम्स के पास के गांव के अपने नवनिर्मित मकान में रहना शुरू किया था। पैसे के अभाव में नगर में घर नहीं बसा सका। उसका सबसे बड़ा अफसोस यह रहा कि दोस्तों से मिलना -जुलना कम हो गया।कुछ अन्य तरह की कमियां भी महसूस हुईं।
पर, उसके साथ ही ‘विपत्ति में वरदान’ वाली कहावत भी चरितार्थ हुई्र। मैं अपने परिवार, अपनी लाइब्रेरी तथा प्रकृति के अधिक करीब हो गया।
मकान बनाने के लिए मैंने कोई वृक्ष नहीं कटवाया था। दरअसल उसकी नौबत ही नहीं आई। पर अपने मकान के अहाते व पास की सड़क व चहारदीवारी के बीच की जगह में मैंने कई पौधे रोपे जो अब वृक्ष बन रहे हैं।
आम, नीम, चंदन, अमरूद, आंवला, तेजपत्ता, नीबू, गुल मोहर, केला, दालचीनी सहित अन्य कई औषधीय पौधे लगाए गए हैं। कुछ पौधे जेपी आंदोलन के नेता मिथिलेश कुमार सिंह के दिए हुए हैं। उनके संगठन ने इसका अभियान ही चला रखा था।
अफसोस है कि पीपल के लिए कोई जगह नहीं बना सका हूं। फूल और तुलसी तो हमारे यहां है ही। अभी गुंजाइश और पेड़-पौधों की है। फिलहाल पेड़ - पौधों को बढ़ते हुए देखने में जो आनंद है, वह अवर्णनीय है।
एक किसान पुत्र होने के कारण बचपन में प्रकृति के निकट रहा। बीच के जीवन के अनेक दशक सीमेंट के जंगलों में बीते। पर अब एक बार फिर प्रकृति के करीब आ गया हूं।
इसे कहते हैं विपत्ति में वरदान ! पेड़-पौधों-परिवार -पुस्तकों के साथ जीना वरदान ही तो है !़
करीब तीन साल पहले मैंने पटना एम्स के पास के गांव के अपने नवनिर्मित मकान में रहना शुरू किया था। पैसे के अभाव में नगर में घर नहीं बसा सका। उसका सबसे बड़ा अफसोस यह रहा कि दोस्तों से मिलना -जुलना कम हो गया।कुछ अन्य तरह की कमियां भी महसूस हुईं।
पर, उसके साथ ही ‘विपत्ति में वरदान’ वाली कहावत भी चरितार्थ हुई्र। मैं अपने परिवार, अपनी लाइब्रेरी तथा प्रकृति के अधिक करीब हो गया।
मकान बनाने के लिए मैंने कोई वृक्ष नहीं कटवाया था। दरअसल उसकी नौबत ही नहीं आई। पर अपने मकान के अहाते व पास की सड़क व चहारदीवारी के बीच की जगह में मैंने कई पौधे रोपे जो अब वृक्ष बन रहे हैं।
आम, नीम, चंदन, अमरूद, आंवला, तेजपत्ता, नीबू, गुल मोहर, केला, दालचीनी सहित अन्य कई औषधीय पौधे लगाए गए हैं। कुछ पौधे जेपी आंदोलन के नेता मिथिलेश कुमार सिंह के दिए हुए हैं। उनके संगठन ने इसका अभियान ही चला रखा था।
अफसोस है कि पीपल के लिए कोई जगह नहीं बना सका हूं। फूल और तुलसी तो हमारे यहां है ही। अभी गुंजाइश और पेड़-पौधों की है। फिलहाल पेड़ - पौधों को बढ़ते हुए देखने में जो आनंद है, वह अवर्णनीय है।
एक किसान पुत्र होने के कारण बचपन में प्रकृति के निकट रहा। बीच के जीवन के अनेक दशक सीमेंट के जंगलों में बीते। पर अब एक बार फिर प्रकृति के करीब आ गया हूं।
इसे कहते हैं विपत्ति में वरदान ! पेड़-पौधों-परिवार -पुस्तकों के साथ जीना वरदान ही तो है !़
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