शुक्रवार, 18 मई 2018

दाना पुर-दिघवारा प्रस्तावित पुल सारण को बनाएगा मिनी ‘नोयडा’



पटना के पास गंगा नदी पर एक और पुल के निर्माण की योजना है।उस पर शुरूआती प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है।
इस पुल के बन कर तैयार हो जाने के बाद आर्थिक रूप से पिछड़े जिले सारण के विकास की प्रक्रिया तेज हो जाने की संभावना है।
  वैसे भी जेपी सेतु के चालू हो जाने के बाद सारण के एक बड़े इलाके में बिल्डर्स और डेवलपर्स सक्रिय हो चुके हैं।
दाना पुर -दिघवारा प्रस्तावित पुल के बन जाने के बाद उन इलाकों में कृषि उद्योग की संभावनाएं भी बढ़ सकती हैं।सारण मुख्यत एक कृषि प्रधान जिला है।
पर वहां आबादी अधिक व खेती का रकबा कम है।
नतीजतन बड़ी संख्या में लोग राज्य के बाहर जाकर नौकरी करते हैं या छोटा-मोटा रोजगार ।

1972 से पहले अविभाजित सारण जिले को मनीआर्डर इकोनाॅमी का जिला कहा जाता था।कमोवेश अब भी यही स्थिति है।
 पटना से करीब होने के बावजूद सारण का समुचित विकास नहीं हो सका है।पर अब स्थिति धीरे -धीरे बदल रही है।हाल के वर्षों में सड़क-बिजली ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
 पटना और हाजी पुर के बीच के गांधी सेतु के 1982 में चालू हो जाने के बाद वैशाली जिले का विकास तो हुआ,पर सारण के विकास की प्रक्रिया जेपी सेतु ही तेज कर सका।
  अब नये प्रस्तावित पुल से दाना पुर दियारे का भी विकास तेज हो सकता है यदि वह पुल दियारे से होकर गुजरे और दियारे के लोगों को भी पुल तक पहुंचने का आसान मौका मिले।
  जानकार सूत्रों के अनुसार प्रस्तावित पुल को लेकर अभी दो   वैकल्पिक संरेखनों यानी एलाइनमेंट पर विचार किया जा रहा है।
 पुल को सगुना मोड़ से शुरू करके उसे गंगा के उस पार सोन पुर -छपरा एन.एच. से मिला दिया जाए।
या फिर दाना पुर से ही शुरू करके दियारा होते हुए उस पार दिघवारा से मिला दिया जाए।
 दूसरे विकल्प से सारण के अपेक्षाकृत अधिक इलाकों को लाभ पहुंच सकेगा।
अधिक लाभ यानी अपेक्षाकृत सारण के अधिक भूभाग का विकास।सोन पुर से दिघवारा तक गंगा के किनारे दिल्ली के यमुना पार वाली स्थिति बन सकती है।
जाहिर है कि ऐसे विकास में गैर सरकारी एजेंसियां भी  भूमिका निभाती हैं।
सारण के विकास होने पर पटना पर से आबादी का बोझ घटेगा।
 इससे प्रादेशिक राजधानी पर प्रदूषण व भू जल संकट की मार भी कम होगी।
साथ ही पटना और  उत्तर बिहार के बीच आना -जाना और सुगम हो जाएगा।
 अब देखना है कि इस प्रस्तावित पुल का निर्माण कार्य कब शुरू होता है।   
   कितनी महंगी हो गयी राजनीति !--
कर्नाटका एक यह खबर आई कि प्रत्येक विधायक को खरीदने के लिए इस बार 100 करोड़ रुपए का आॅफर दिया गया।
पता नहीं, यह आरोप सही है या गलत  ! पर एक बात तो  पक्की है कि आज की राजनीति बहुत  महंगी हो चुकी है।
 अपवादों को छोड़ दें तो आम लोग तो चुनाव लड़ ही नहीं सकते।
 2013 में एक सांसद ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि उन्हें  2009 के अपने चुनाव क्षेत्र में 8 करोड़ रुपए खर्च करने पड़े थे।
नब्बे के दशक में यह खबर आई थी कि कुछ सांसदों को 50 -50 लाख रुपए देकर ‘प्रभावित’ किया गया था।इतने रुपए उनके बैंक खातों में पाए भी गए थे।
ऐसा एक दिन में नहीं हुआ है। राजनीति व शासन में बढ़ते भष्टाचार के साथ साथ धीरे -धीरे चुनावी खर्च भी बढत़ा चला 
गया।जिस तबके ने यह खर्च बढ़ाया है,जिम्मेदारी उसी की है कि वह उसे कम करे। 
 एक बार पूर्व केंद्रीय मंत्री एल.पी.शाही ने बताया था कि 1952 के विधान सभा चुनाव  में उनका  सिर्फ 11 हजार रुपए खर्च हुआ था।
1972 में 30 हजार रुपए और 1980 में 35 हजार ।पर 1991 में मुजफ्फर पुर लोक सभा चुनाव क्षेत्र में उनके 11 लाख रुपए खर्च हुए।
 कर्ज दबाने वालों के लिए बुरी खबर---
50 करोड़ रुपए से अधिक के सारे कर्जों का बैंकों ने फारेंसिक आॅडिट कराना शुरू कर दिया है।
यदि इस तरह के आॅडिट में  इस बात की आशंका दिखी कि कर्ज की वापसी की संभावना कम है तो वैसे मामलों को जांच एजेंसियों को सांैप दिया जाएगा।
 साथ ही 250 करोड़ रुपए से अधिक के कर्जों पर अलग से नजर रखी जा रहा है।
देखा जा रहा है कि कहीं कर्ज देने की नियम को तोड़ा तो नहीं गया है।
 यानी आने वाले दिनों में ऐसे कर्जखारों की नींद हराम हो सकती है जिनका इरादा कर्ज वापस करने का कभी नहीं रहा। 
साथ ही ऐसे मामलों में वैसे वी.वी.आई.पी.भी बेनकाब हो सकते हैं जिन लोगों ने अपने प्रभाव का दुरुपयोग करके ऐसे लोगों को भारी कर्ज दिलवाए जिनकी कर्ज वापसी की क्षमता काफी कम है।

एक भूूली बिसरी याद----
जून 2011 में पूर्व कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने भ्रष्टाचार रोकने के लिए मन मोहन सिंह सरकार को कुछ ठोस सुझाव दिए थे।
इस सुझाव पर पी.एम.के सलाहकार सैम पित्रोदा और योजना आयोग के सलाहकार अरूण मायरा के साथ मोइली की बातचीत भी हुई थी।पर सवाल है कि इन सुझावों पर कितना कुछ हुआ ?
उन  सुझावों  का विवरण इस प्रकार है।
1-किसी भी सेवा निवृत नौकरशाह को नियामक@रेगुलेटर@ न बनाया जाए।ऐसे पदों पर सिर्फ सेवारत अफसर ही तैनात हों।
रिटायरमेंट के बाद मिलने वाले पद के लालच में सेवारत अफसर भ्रष्टाचार में मदद करते हैं।
2-जो अधिकारी  सरकार में अभी कार्यरत हैं,सिर्फ उन्हें ही 
रेगुलेटरी दायित्व दिए जाने चहिए।इसके लिए प्रशासनिक तंत्र को जिला,राज्य व केंद्र स्तर पर अपने अधिकारियों को प्रशिक्षित करना चाहिए।सेवारत अधिकारियों व जजों को रेगुलेटर बनाने से उन्हें सफलता-असफलता या सही गलत काम के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकेगा।
3-ऐसा कानून बने जिससे सरकार के खिलाफ झूठे आरोप लगाने वाले किसी व्यक्ति या स्वयंसेवी संगठनों को भी दंडित किया जा सके।
4-पूरे देश में जहां भी माइनिंग हो रही है या खानें लीज पर हैं,उन सारे मामलों की विस्तार से जांच हो और उनकी लीज को पूरी तरह पारदर्शी बनाया जाए।
ऐसा देखा जा रहा है कि माइनिंग कराने वाले स्थानीय स्तर पर अनेक किस्म के भ्रष्टाचार को जन्म और प्रश्रय दे रहे हैं।
5.-सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को उनके प्रदर्शन के आधार पर कोई सेवा विस्तार दिया जाए ताकि वे ज्यादा जिम्मेदारी से कार्य कर सकें और इसके लिए नौकरी से संबंधित कानूनों में आवश्यक संशोधन किए जाएं।
6.-लोकपाल और लोकायुक्त जैसी संस्थाओं  को सक्रिय किया जाये।
7-जिन लोगों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गयी हो, उन्हें सरकारी पदों पर नियुक्त न किया जाए और यही नियम चुनाव के समय राजनैॅतिक उम्मीदवारों के मामले में भी लागू किया जाए।
 मतदान का प्रतिशत बढ़ने का  लाभ--- 
कर्नाटका मेें इस बार 72 दशमलव 36  प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया है। वहां 2013 के विधान सभा चुनाव में 71 दशमलव 45 प्रतिशत लोगों ने मतदान किया था।
  2015 में हुए बिहार विधान सभा  चुनाव में 56 दशमलव 8 प्रतिशत मतदाताओं ने मतदान किया था।उससे पहले 2010 में 52 दशमलव 7 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट डाले थे।
  जानकार लोग बताते हैं कि यदि देश में हर राज्य में कम से कम 80 -85 प्रतिशत मतदातागण मतदान केंद्रों पर पहुंचने लगें तो जातीय और सांप्रदायिक वोट बैंक का महत्व व दबाव घट जाएगा।
      और अंत में--
  उत्तर प्रदेश के पिछड़ा कल्याण मंत्री ओम प्रकाश भर के अनुसार ‘भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने मुझे आश्वासन दिया है कि 2019 के लोक सभा चुनाव से ठीक छह माह पहले 27 प्रतिशत पिछड़ा आरक्षण को तीन हिस्सों में बांट दिया जाएगा।’ 
@--18 मई 2018 को प्रभात खबर -बिहार-में प्रकाशित मेरा काॅलम ‘कानोंकान’@






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