देश में बढ़ते प्रदूषण और बिगड़ते पर्यावरण संतुलन की डरावनी खबरों के बीच सुप्रीम कोर्ट का एक निदेश बार -बार याद आता है।
वह निदेश 22 नवंबर, 1991 का है।
एम.सी.मेहता की जनहित याचिका पर देश की सबसे बड़ी अदालत ने निदेश दिया था कि प्राथमिक से लेकर विश्व विद्यालय स्तर पर पर्यावरण विज्ञान की पढ़ाई पृथक और अनिवार्य विषय के रूप में शुरू कराई जाए।पर इस निदेश का पालन आंशिक रूप से ही हो सका है।
इस निदेश की मंशा यह थी कि कम से कम इससे नयी पीढि़यां तो पर्यावरण को लेकर जागरूक होंगी।
मौजूदा और पिछली पीढि़यों ने तो पर्यावरण संतुलन को बिगाड़ने के लिए जो कुछ किए हैं,उसके कुपरिणाम तो हम भुगत ही रहे हैं।अभी और भुगतेंगे।
पर 1991 के बाद संभवतः इस देश की किसी भी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक निर्णय-निदेश को अक्षरशः लागू नहीं होने दिया।किसी ने आरोप लगाया था कि इसके पीछे ‘भूगोल लाॅबी’ सक्रिय रही है।
जहां- तहां लागूू हुआ भी तो वह रस्म अदायगी के लिए ही।
गत साल मार्च में भी केंद्र सरकार के वकील ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि देश के 306 विश्व विद्यालयों ने अब तक
सुप्रीम कोर्ट के निदेश का पालन नहीं किया है।
प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा तो राज्य सरकारों के हाथों में है।
याद रहे कि कुछ सरकारों व शिक्षण संस्थानों ने पर्यावरण विषय को किसी अन्य विषय के साथ मिलाकर अपने कत्र्तव्यों की इतिश्री कर ली है।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट का निदेश पृथक व अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाने के लिए है।
जहां भी पर्यावरण विज्ञान की अलग से पढ़ाई होती है ,वहां के छात्रों की इस मामले में जागरूकता देखते ही बनती है।
वैसे छात्र अपने घरों में भी भरसक वैसा माहौल बनाते हैं।
कल यह खबर आई कि विश्व के टाॅप 10 प्रदूषित शहरों में पटना सहित बिहार के तीन शहर शामिल हैं ।स्वाभाविक ही है कि उस पर राज्य के नगर विकास मंत्री सुरेश शर्मा ने कहा कि इस मामले में पब्लिक को भी सचेत होना चाहिए।
पर सचेत होने के पहले उसे समस्या को लेकर जागरूक भी तो होना होगा।यदि छात्र-छात्राओं को इस विषय को अनिवार्य व पृथक विषय के रूप में पढ़ाया जाए तो उन विद्यार्थियों के परिजनों को भी जागरूक करने में मदद मिलेगी।
आज की पीढ़ी तो कम ही जागरूक है।यदि शैक्षणिक संस्थाओं में पर्यावरण की पढ़ाई होगी तो अगली पीढि़यां भी सचेत होंगी और जागरूक भी ।
--लिंक रोड का चैड़ीकरण--
बिहार की एक ऐसी ग्रामीण सड़क को मैं जानता हूं जो सिर्फ चार किलोमीटर लंबी है,पर वह दो महत्वपूर्ण नेशनल हाईवे को जोड़ती हैं।
यदि इस ग्रामीण सड़क को राष्ट्रीय राज मार्ग का दर्जा मिल जाए पर आसपास के हजारों लोगों का आना -जाना आसान हो जाएगा।साथ ही इससे कई अन्य जगहों को जाम से मुक्ति मिल सकती है।
राज्य में ऐसी अन्य छोटी सड़कंे ंभी होंगी जिन पर कम ही खर्च करके उसका अधिक लाभ लिया जा सकता है।
कहीं ऐसी छोटी सड़कें दो स्टेट हाईवे को जोड़ रही हैं तो कहीं दो नेशनल हाईवे को।
---कर्नाटका चुनाव में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं--
कर्नाटका के पूर्व लोकायुक्त एन.संतोष हेगडे ने कहा है कि कर्नाटका के विधान सभा चुनाव में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है।
सन 2011 में अवैध खनन के खिलाफ तत्कालीन लोकायुक्त हेगडे ने एक महत्वपूर्ण रपट दी थी।तब कर्नाटका में भाजपा की सरकार थी।सन 2013 के कर्नाटका विधान सभा चुनाव में उसका असर पड़ा।भाजपा सरकार को हरा कर कांग्रेस सत्ता में आ गयी।कांग्रेस ने चुनाव में उस रपट को खूब भुनाया।
पर हेगडे के अनुसार कांग्रेस की कर्नाटका सरकार ने अवैध खनन करने वालों के खिलाफ गत पांच साल में कोई कार्रवाई नहीं की।
इस चुनाव में तो अवैध खनन से जुड़े सात लोगों को भाजपा ने अपने दल का उम्मीदवार बना दिया है।कांग्रेस ने भी ऐसे दो लोगों को टिकट दिए हैं।हेगडे कहते हैं कि राजनीतिक दल सत्ता में आने के लिए कोई भी आश्वासन दे देंगे और सत्ता में बने रहने के लिए कुछ भी करंेगे।
---स्मार्ट फोन ने घटाया परिजनों के बीच संवाद--
मानो ईमेल व मोबाइल फोन काफी नहीं थे,अब तो स्मार्ट फोन
परिवार के भीतर व परिवारों के बीच रहे -सहे संवाद पर भी डाका डाल रहे हैं।
फिल्म अभिनेता अनुपम खेर कहते हैं कि सूचना और संवाद के नये उपकरणों का प्रचलन बढ़ने के बाद समाज और परिवार में संवादहीनता लगातार बढ़ती जा रही है।यह स्थिति चिंताजनक है।
खेर क्या कहेंगे,अनेक लोग यह महसूस रहे हैं।कोई किसी से मिलने उसके जाता भी है तो अपने साथ स्मार्ट फोन की ‘लत’ भी लेते जाता है।हाल चाल सुख -दुःख पूछने की जगह अतिथि व कई मामलों में तो मेजबान की अंगुलियां भी स्मार्ट फोन पर व्यस्त हो जाती हैं।
कुछ संवेदनशील लोग इस ‘विषम’ होती स्थिति में एक पहल कर सकते हैं।किसी मित्र,परिचित,रिश्तेदार के यहां आप जाएं तो स्मार्ट फोन अपने घर में ही छोड़ जाएं।
या फिर मेजबान के घर के बाहर ही अपनी कार या स्कूटर में छोड़ दें।
फिर देखिए आप कैसा फर्क आप महसूस करते हैं !
---भूली-बिसरी याद--
आजादी के कुछ ही वर्षों के बाद पंजाब के खेतों में सिंचाई का
प्रबंध तब की कांग्रेसी सरकार ने कर दिया था। यानी किसानों की सबसे बड़ी समस्या का समाधान हो चुका था।
इस स्थिति में गैर कांग्रेसी दलों के नेताओं के सामने एक बड़ी कठिनाई थी।आखिर चुनावों में वे क्या कह कर कांग्रेस के खिलाफ किसानों को गोलबंद करें और वोट लें !
समस्या तो बड़ी थी। फिर भी एक -दो नेताओं ने रास्ता निकाल ही लिया।
साठ-सत्तर के दशकों में एक नेता अक्सर किसानों की सभाओं में एक खास बात कहते थे।
वे कहा करते थे कि यह कांग्रेस सरकार आपके खेतों में जो पानी भेजती है,उसकी तो सारी बिजली पहले ही निकाल लेती है।इसीलिए तो आपकी फसल कम होती है !
जो नेता यह बात कहते थे, वे लोक सभा का चुनाव भी जीत जाते थे।
हालांकि इस सवाल को लेकर अटकल लगायी जा सकती है कि वे इस भाषण के कारण जीतते थे या किन्हीं अन्य सकारात्मक कारणों से ?
पर पानी से बिजली निकाल लेने वाली उनकी बात तो गलत थी ही।जाहिर है कि यह मतदाताओं को गुमराह करने वाली बात थी।
क्या राजनीतिक लाभ के लिए जनता के बीच झूठ बोलने का वह पहला ठोस उदाहरण था ? पता नहीं।
पर आज के विभिन्न दलों के अनेक नेतागण अपने राजनीतिक फायदे के लिए रोज -रोज जनता के बीच और अपने मीडिया -बयानों के जरिए झूठ पर झूठ बोलते जाते हैं। ऐसे में यह पूछने का लोभ होता है कि इनके ‘आदि पुरूष’ वही सज्जन थे जिन्होंने सिंंचाई के पानी से बिजली निकाल लेने की थ्योरी दी थी ?हां,यह मानना पड़ेगा कि आज के सारे
नेता झूठ ही नहीं बोलते ।कुछ सत्य बोलते हैं।या चुप रहते हैं।हां,अर्ध सत्य बोलने वालों की संख्या अधिक है।
दरअसल राजनीति को कुछ लोगों ने ऐसा पेशा बना दिया है जिसके बारे में कहा जाने लगा है कि मोटी चमड़ी और झूठ इसके अनिवार्य अंग हैं।एक और अनिवार्य अंग है ।पर,उसके बारे में कुछ कहने का कानूनी अधिकार सामान्यतः कोर्ट को ही है।
---और अंत में---ं
सत्ता या लाभ के किसी छोटे-बड़े पद से हटाए जाने के सात साल बाद तक भी कोई नेता यदि अपनी मूल पार्टी को नहीं छोड़ता है तो उसे
सार्वजनिक रूप से सम्मानित किया जाना चाहिए।
ज्यादा कुछ नहीं तो एक ‘लाॅयल्टी प्रमाण पत्र’ तो दिया ही जा सकता है।यदि यह ठीक नहीं लगे तो हर दल को अपने पास एक ‘लाॅयल्टी रजिस्टर’ तो रखना ही चाहिए।
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