मंगलवार, 29 मई 2018

पृथ्वीराज कपूर-पुण्य तिथि -29 मई --के अवसर पर
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1927 में फिल्म में काम करने जब बंबई पहुंचे तो पृथ्वीराज कपूर के 
पास  थे सिर्फ 70 रुपए
      --- सुरेंद्र किशोर---- 
नौजवान पृथ्वीराज कपूर 1927 में जब लायल पुर से बंबई पहुंचे तो उन्होंने तांगेवाले से कहा कि ‘मुझे समुद्र के किनारे ले चलो।’
  समुद्र के किनारे खड़े होकर उन्होंने मन ही मन कहा कि ‘हे ईश्वर यदि आप मुझे यहां काम नहीं दिलवाएंगे तो  मैं सात समंदर पार कर जाऊंगा और हाॅलीवुड  जाकर बड़ा स्टार बनूंगा।’
 पर वह नौबत नहीं आई।वे बंबई में ही बड़ा स्टार बन गए।इतना ही नहीं,उनका परिवार बाॅलीवुड का सबसे बड़ा व तेजस्वी फिल्मी परिवार बना।
 पहली बार वे जब बंबई की  इंपीरियल फिल्म कंपनी के गेट पर पहुंचे तो वहां उन्हें जानने वाला कोई नहीं था।
उन्होंने गेट पर एक पठान को देखा। उन्होंने उससे पश्तो में बातचीत शुरू कर दी।
दरवान बड़ा खुश हुआ कि उसके इलाके का कोई व्यक्ति उसके पास आया है।
एक पश्तो भाषा भाषी को दूसरे पश्तो भाषी दरवान ने आसानी से भीतर प्रवेश दिला दिया।
 बिना एप्वांटमेंट के वहां प्रवेश काफी कठिन था।
जब एक बार प्रवेश पा गए तो प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी पृथ्वीराज को जल्द ही कलाकार बन जाने का अवसर भी मिल गया।
  पृथ्वी राज कपूर का जन्म 3 नवंबर 1906 को लायल पुर जिले @अब पाकिस्तान@के समुद्री नामक शहर में हुआ था।तीन साल की उम्र में ही उनकी मां का निधन हो गया था।
  बालक ‘प्रिथी’ को अपने दादा दीवान केशवमल कपूर से अधिक स्नेह मिला।
उन्होंने प्रारंम्भिक शिक्षा पूरी करके जब लायल पुर के खालसा हाई स्कूल में दाखिला लिया  तो वहां मास्टर तारा सिंह ने उन्हें अंग्रेजी के साथ- साथ वाॅली बाॅल के भी दांवपेंच सिखाये थे।
  पृथ्वीराज ने हाई स्कूल और इंटर की परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में पास की।वे पेशावर के एडवर्ड कालेज में दाखिल हुए जहां के प्राध्यापक जय दयाल ने उन्हें कालेज के नाटकों में भाग लेने और अपनी अभिनय प्रतिभा को निखारने का मौका दिया और प्रोत्सहित भी किया।पृथ्वीराज  कालेज के एमेच्युअर ड्रामेटिक क्लब के सचिव भी बने।बी.ए.पास करने के बाद पृथ्वीराज ने लाहौर के लाॅ कालेज में दाखिला लिया,पर लाॅ की पढ़ाई में उनका मन नहीं लगा।प्रथम वर्ष की परीक्षा में ही वे फेल कर गये।इससे वे विचलित हो गये।
उन्होंने इसके बाद अपने लिए अभिनय का क्षेत्र चुन लिया।
   अपने किसी रिश्तेदार से दो सौ रुपये उधार लेकर वे 1927 में मुम्बई रवाना हो गए।पर बंबई  पहुंचने  तक उनके पास मात्र 70 रुपये ही बच गये थे।
  बहुत कम ही लोग यह जानते होंगे कि पृथ्वीराज कपूर को मशहूर अकाली नेता मास्टर तारा सिंह ने अंग्रेजी पढ़ाई थी।तब वह लायल पुर के खालसा हाई स्कूल में प्रिंसिपल थे और पृथ्वीराज कपूर उनके छात्र।मास्टर तारा सिंह के साथ मास्टर शब्द उनके शिक्षक होने के कारण जुड़ा था।
मास्टर तारा सिंह बाद में  धार्मिक और राजनीतिक अभियानों में शामिल हुए और उसका नेतृत्व किया। कहते हैं कि पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह के बाद मास्टर तारा सिंह का ही सर्वाधिक सम्मान रहा।तारा सिंह का 1967 में निधन हो गया।
    किसी विधा के शीर्षस्थ व्यक्ति के लिए अंग्रेजी में ‘फादर फिगर’ शब्द का इस्तेमाल होता है।पृथ्वीराज कपूर अपने जमाने के फिल्मी संसार के लिए फादर फिगर ही थे।फिल्म जगत के सारे लोग उन्हें ‘पापा जी’ ही कहते थे।
  बंबई में पृथ्वीराज ने मुफ्त में एक्स्ट्रा के रूप में काम करने का प्रस्ताव रखा जिसे इरानी ने स्वीकार कर लिया।बाद में पृथ्वीराज की ओर  निदेशक वी.पी.मिश्र का ध्यान गया और उन्होंने ‘सिनेमा गर्ल’ में नायक की भूमिका दे दी।यह 1930 की बात है।इसके बाद सात मूक फिल्मों में पृथ्वीराज ने काम किया।प्रथम ऐतिहासिक  सवाक् फिल्म ‘आलम आरा’ में अभिनय करने का अवसर पृथ्वीराज कपूर को भी प्राप्त हुआ ।
   1944 में उन्होंने पृथ्वी थियेटर की स्थापना की।उन्होंने 60 कलाकारों का एक समूह तैयार किया।सबसे पहले उन्होंने ‘शकुंतला’ नाटक को मंच पर प्रस्तुत किया।हालांकि वह असफल रहा।उन्हें एक लाख रुपये का घाटा हुआ।पर वे मायूस नही ंहुए।
इसके बावजूद उन्होंने कलाकारों दो माह का बोनस दे दिया।
प्राचीन नाटकों के बदले उन्होंने नये नाटक लिखवाये।वे सफल रहे।थियेटर का घाटा उन्होंने फिल्मों में काम करके पूरा किया।पृथ्वी थियेटर ने फिल्मी दुनिया को कई बेहतरीन कलाकार दिये। उनके पुत्र राज कपूर ,शम्मी कपूर और शशि कपूर  ने भी नाटकों से ही  अभिनय शुरू किये थे।
1944 से 1960 तक पृथ्वी थियेटर ने 8 नाटकों को देश के विभिन्न हिस्सों में 26 सौ बार मंचित किये।पृथ्वीराज ने इन सब में अभिनय किया।वे कलाकारों के साथ ट्रेन के तीसरे दर्जे में सफर करते थे।
      पृथ्वीराज कपूर ने फिल्मों में सिकंदर,विक्रमादित्य और अकबर जैसे चरित्रों को परदे पर साकार किया।उनका व्र्यिक्तत्व इतना प्रभावशाली था कि वे अपनी उपस्थिति से पर्दे पर जान डाल देते थे।लोगों से मिलने ,उनसे बातें करने और उनकी समस्याएं जानने का उनमें उत्साह रहता था।जरूरतमंदों को मदद किया करते थे।
   वह चार साल तक कें्रद्रीय रेलवे मजदूर यूनियन के अध्यक्ष भी रहे।1966 में उन्हें चेकोस्लोवोक राष्ट्रीय कला अकादमी का पुरस्कार दिया गया था।यह पुरस्कार उन्हें ‘आसमान महल’ में मुख्य भूमिका के लिए   मिला था।वे आठ साल तक राज्य सभा के सदस्य रहे और सन् 1969 में उन्हें पद्मभूषण से अलंकृत किया गया था।उन्हें 1972 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।
  29 मई 1972 को मुम्बई के टाटा मेमोरियल अस्पताल में उनका निधन हो गया।उस समय उनकी उम्र 66 साल थी।मृत्यु के समय वे अपने  परिवार के सदस्यों से घिरे हुए थे। अस्पताल से उनका शव जुहू स्थित उनके आवास पर लाया गया।अंतिम दर्शन के लिए जन समूह उमड़ पड़ा।बड़ी फिल्मी हस्तियों में चंदू लाल शाह,के.एन.सिंह,डेविड अब्राहम,और सोहराब मोदी शामिल थे।नई और पुरानी पीढ़ी के सभी प्रमुख निदेशकों और अभिनेताओं ने उन्हें श्रद्धांजलि दी।जुहू से शांताक्रूज श्मशान घाट के बीच के शवयात्रा के मार्ग पर भी इतनी भीड़ जमा हो जाती थी कि उन्हें नियंत्रित करना मुश्किल हो रहा था।ऐसे थे फिल्मी जगत के ‘पापाजी’।     
 @---दराइटरडाॅटइन@
    
  

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