यदि दो व्यक्तियों के बीच जमीन का झगड़ा है तो वह सिर्फ दो व्यक्तियांे के बीच का ही मामला है।
पर यदि किसी एक व्यक्ति ने दूसरे की हत्या कर दी तो वह स्टेट का मामला भी बन जाता है।
पर यदि किसी ने किसी के खिलाफ झूठा व अपमानजनक बयान देकर या लेख लिखकर चरित्र हत्या कर दी तो वह दो व्यक्तियों के बीच का ही मामला क्यों है ?
वह भी सामान्य हत्या की तरह स्टेट का मामला बनना चाहिए।
एक दूसरे को बदनाम करने के लिए कोई नेता या अन्य झूठे और बेबुनियाद आरोप लगा दे और वह फिर माफी मांग ले।
मामला खत्म हो जाता है।यह उचित नहीं।
क्योंकि इस बीच उसे प्रचार मिल जाता है।समाज में तनाव बढ़ता है।ऐसा ही आरोप लगाने का दूसरे को भी प्रोत्साहन मिलता है।राजनीति व सामान्य जन जीवन का स्तर थोड़ा और नीचे गिरता है।यहां यह बात स्पष्ट कर दूं कि यदि आरोप सही हो तो वह लगाया ही जाना चाहिए।
पर झूठा लगे तो लगाने वाले को सजा जरूर हो।उसे आपसी समझौते के जरिए बरी नहीं होना चाहिए।
हत्या और चरित्र हत्या में कानून की दृष्टि से फर्क क्यों ?
केस हो जाने पर वह व्यक्तिगत मामला भी नहीं रह जाता।क्योंकि दोनों पक्ष कोर्ट का समय बर्बाद करते हैं।तारीख पर तारीख पड़ती जाती है।नौ साल तक केस चलता है।दसवें साल एक खास सौदेबाजी के तहत दोनों पक्ष समझौता कर लेते हैं।
यदि कोर्ट का वह बहुमूल्य समय बचता तो उस अवधि में अदालत कोई अन्य जरूरी केस देख पाती।
पर यदि किसी एक व्यक्ति ने दूसरे की हत्या कर दी तो वह स्टेट का मामला भी बन जाता है।
पर यदि किसी ने किसी के खिलाफ झूठा व अपमानजनक बयान देकर या लेख लिखकर चरित्र हत्या कर दी तो वह दो व्यक्तियों के बीच का ही मामला क्यों है ?
वह भी सामान्य हत्या की तरह स्टेट का मामला बनना चाहिए।
एक दूसरे को बदनाम करने के लिए कोई नेता या अन्य झूठे और बेबुनियाद आरोप लगा दे और वह फिर माफी मांग ले।
मामला खत्म हो जाता है।यह उचित नहीं।
क्योंकि इस बीच उसे प्रचार मिल जाता है।समाज में तनाव बढ़ता है।ऐसा ही आरोप लगाने का दूसरे को भी प्रोत्साहन मिलता है।राजनीति व सामान्य जन जीवन का स्तर थोड़ा और नीचे गिरता है।यहां यह बात स्पष्ट कर दूं कि यदि आरोप सही हो तो वह लगाया ही जाना चाहिए।
पर झूठा लगे तो लगाने वाले को सजा जरूर हो।उसे आपसी समझौते के जरिए बरी नहीं होना चाहिए।
हत्या और चरित्र हत्या में कानून की दृष्टि से फर्क क्यों ?
केस हो जाने पर वह व्यक्तिगत मामला भी नहीं रह जाता।क्योंकि दोनों पक्ष कोर्ट का समय बर्बाद करते हैं।तारीख पर तारीख पड़ती जाती है।नौ साल तक केस चलता है।दसवें साल एक खास सौदेबाजी के तहत दोनों पक्ष समझौता कर लेते हैं।
यदि कोर्ट का वह बहुमूल्य समय बचता तो उस अवधि में अदालत कोई अन्य जरूरी केस देख पाती।
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