गुरुवार, 17 मई 2018

पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनाव में हुई हिंसा पर 
राजनीतिक दलों में एक खास तरह की होड़ मची है।
एक दल कह रहा है कि हमने कम मारे तो दूसरा दल कह 
रहा है कि हमने तुमसे कम मारे।
  यानी कम मरें या ज्यादा, लोग तो  मर ही रहे हैं।
पर शीर्ष नेताओं को ऐसी मौतों पर कोई चिंता भी है ?
इन्हें रोकने का कोई उपाय भी वे कर रहे हैं ?
कत्तई नहीं।ंं
क्योंकि मर तो  रही है पैदल सेना ! बड़े नेता मर रहे होते तो शायद उस पर रोक लगाने के लिए सर्वदलीय बैठकें होने लगतीं।
   हां, नेताओं से अलग बंगाल और देश की शांतिप्रिय जनता बंगाल के नेताओं से एक उम्मीद तो कर ही रही है।
अब तो बंद करो हिंसा-प्रतिहिंसा !
बहुत हो गया।वहां के अधिकतर दलों को अपनी हिंसा का जवाब, प्रति हिंसा से मिल चुका है।मिल रहा है।
इस पर मिल बैठकर तय करो कि हमारे दलों  में गुंडों, हत्यारों और आतंकवादियों के लिए कोई जगह नहीं रहेगी।
पहल कांग्रेसी करेंं।क्योंकि सत्तर के दशक में कांग्रेसी सरकार ने ही पश्चिम बंगाल में बड़े पैमाने पर हिंसा शुरू करवाई थी - हिंसक नक्सलियों के सफाये के लिए।
  जब 1977 में वाम मोर्चा सत्ता में आया तो कांग्रेस की उस हिंसक वाहिनी के अनेक सदस्यों ने वाम  में शरण ले ली।
याद है न कि  सत्ता में आने से पहले किस तरह तृणमूल कांग्रेस के लोग वाम बाहुबलियों की हिंसा के शिकार होते थे ?
ममता बनर्जी पर भी अनेक बार हमले हुए थे।
पर तृणमूल के सत्ता में आते ही वाम के साथ ‘काम’ कर रहे अनेक बाहुबली तृणमूल के सिपाही बन गए।
अब मार खाने की बारी ममता विरोधियों की है।
यदि अगली बार कोई अन्य दल सत्ता में आ गया तो जो बाहुबली आज तृणमूल की सेवा में हैं,वे नये सत्ताधारी दल में शामिल हो जाएंगे।
आखिर कब तक यह धारावाहिक  चलता रहेगा ? देश को कभी दिशा देने वाला बंगाल कब तक एक अराजक प्रदेश बना रहेगा ? क्या अब भी वहां के राजनीतिक दल खुद को बाहुबलियों से मुक्त नहीं करेंगे ?
मैं जानता हूं कि वे नहीं करेंगे।फिर भी हमारे जैसे अहिंसक लोगों का यह कत्र्तव्य है कि उनसे ऐसा आग्रह किया जाए।

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