रविवार, 31 मई 2020

3 जून को जार्ज फर्नांडिस जयंती


बिहार कैबिनेट ने कल निर्णय किया कि हर साल 3 जून को जार्ज फर्नांडिस का जन्मदिन राजकीय समारोह के रूप मनाया जाएगा। यह निर्णय बहुत पहले हो जाना चाहिए था। खैर, देर आए दुरुस्त आए। यह निर्णय सराहनीय है। जार्ज से संबंधित मेरे पास अनेक संस्मरण हैं। यदि अपने संस्मरणों की प्रस्तावित पुस्तक लिख पाया तो उसमें वह सब भी समाहित रहेगा।

थोड़े में यह कहा जा सकता है कि जार्ज एक अत्यंत ईमानदार नेता थे। उन्होंने अपने लिए कोई संपत्ति नहीं बनाई। वे शब्द के सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष थे। वह पहले दर्जे के निडर राजनीतिक योद्धा थे। वे एक देशभक्त नेता थे। आपातकाल में जब कई नेता चूहों की तरह बिल में छिप गए थे, जार्ज बंगलोर के पास की उस पहाड़ी पर अपने चुने हुए साथियों को डायनामाइट की ट्रेंनिंग दे रहे थे जहां शोले फिल्म की शूटिंग हुई थी। मैं भी तब बंगलोर में था।

बाद में जार्ज से मेरा एक सैद्धांतिक मामले में मतभेद हो गया था और मैंने उनसे मिलना बंद कर दिया था। पर, किसी एक बात के कारण देश-समाज के प्रति उनके कुल योगदान में कोई कमी नहीं आती है। मैंने वैसे नेताओं से संबंधित संस्मरण भी सकारात्मक ढंग से लिखे हैं जिन्हें मैंने पसंद नहीं किया। या, उन्होंने मुझे नापसंद किया।

किसी के योगदान का मेरी पसंदगी-नापसंदगी से कोई संबंध नहीं होता। इतिहास जैसा घटित हुआ है, वह भरसक उसी रूप में लोगों के सामने जाना चाहिए। अन्यथा, आप डंडीमार इतिहासकार हैं। डंडीमार इतिहासकारों ने इस देश का बड़ा नुकसान किया है।

---सुरेंद्र किशोर --29 मई 2020

यदि सरकारी धन को लूट में जाने से रोक दिया जाए गांव-जिला-राज्य को आत्मनिर्भर बनाने में देर नहीं लगेगी

कोरोना महामारी की पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गांव, जिला और राज्य को आत्मनिर्भर बनाने की जरूरत बताई है। बात बहुत अच्छी है। पर आजादी के बाद ऐसा करने के लिए दिल्ली से पहले भी पैसे भेजे जाते रहे। उन पैसों का कितना सदुपयोग हुआ ? आज भी कितना कुछ हो रहा है ? अब जो भेजे जाएंगे,उनका कितना होगा ? पहले इन बातों पर विचार करने की जरूरत है।  कहीं कमी है तो पहले उसे दूर करना होगा।

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मेरे गांव में 2009 में ही पहली बार बिजली जा सकी। अस्सी के दशक में पहली बार मेरे गांव तक पहुंचने वाली कच्ची सड़क को अलकतरा के दर्शन हुए। वह भी ऐसी सड़क बनी जो हर बरसात में टूट जाती थी। तीन साल पहले जरूर एस.एच. बन गई है। वह भी विशेष प्रयास से।
सन 2009 से पहले गांवों के लिए जितनी योजनाएं बनाई गईं, उनका कार्यान्वयन कितना हुआ ? मेरे गांव में उसका लाभ कितना पहुंचा ? मैंने अपने गांव की चर्चा इसलिए की क्योंकि उसका मैं खद ही गवाह हूं।

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मैंने सुना है कि केंद्र और राज्य सरकारों की विकास, कल्याण और निर्माण की सैकड़ों योजनाएं चलती रहती हैं। उनके लिए पैसे आवंटित होते रहते हैं। उनमें से कितनी योजनाएं धरती पर उतर पाती हैं ? क्या उन सैकड़ों योजनाओं के नाम भी गांव के लोगों को मालूम हैं ?

मुझे तो नहीं मालूम। 

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भ्रष्टाचारियों के लिए यह सुविधाजनक स्थिति है।

यदि केंद्र और राज्य सरकारें अपनी योजनाओं की सूची अखबारों में विज्ञापन देकर प्रचारित करे तो लोग जान सकेंगे कि सरकार उनके लिए कितना खर्च कर रही है। और, उनमें से कितने पैसे बीच में हड़प लिए जाते हैं। कितनी योजनाएं कागज पर है ? और कितनों के तहत पैसे खर्च हो पाते हैं ? उन पैसों में से भी कितना वास्तव में खर्च होता है ? और कितना कमीशन में चला जाता है ? मोदीजी, पहले पैसों के सदुपयोग की गारंटी करिए। फिर गांवों- जिलों-राज्यों को आत्म निर्भर बनाने का सपना देखिए। क्या यह उम्मीद की जाए कि ‘‘मोदी है तो यह भी मुमकिन है ?’’ चूंकि खुद आपको अपनी निजी संपत्ति बढ़ाने में कोई रुचि नहीं रही है, इसलिए आपसे उम्मीद की जा सकती है।

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चीन में एक कहावत है।

वह यह कि भारत सरकार अपने बजट का पैसा एक ऐसे लोटे में रखती है जिसकी पेंदी में सैकड़ों छेद होते हैं। चीन ने भ्रष्टाचारियों के लिए फांसी की सजा का प्रबंध करके अपने छेदों का भरसक बंद कर दिया। तभी वह एक ताकतवर देश बना है। और हमें भी आंखें दिखाता रहता है।
हमने अपनी ताकत पहले की अपेक्षा अब जरूर बढ़ा ली है। पर इस दिशा में अभी बहुत कुछ करना बाकी है। स्वस्थ शरीर में जल्दी रोग नहीं पैठता। उसी तरह आर्थिक रूप से ताकतवर देश को जल्दी कोई आंखें नहीं दिखाता।

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सुरेंद्र किशोर-31 मई 2020

गुरुवार, 28 मई 2020

1962 का युद्ध चल रहा था और नेहरू के रिश्तेदार बीच में मैदान छोड़कर दिल्ली आ गए

तैयारियों के मामले में सन् 62 से हम आगे निकल चुके हैं।पर, अभी और आगे जाना है, देश के बाहरी-भीतरी दुश्मनों से मुकाबले के लिए

अपनी सैनिक गतिविधियों के जरिए पहले चीन ने सीमा पर तनाव बढ़ाया। पर, जब भारत ने यह जता दिया कि जरूरत पड़ने पर चीन से डटकर मुकाबला होगा, तो चीन ने नरम रुख अपना लिया। बहुत अच्छी बात है। युद्ध किसी के हक में नहीं है। यदि किसी को कम नुकसान होगा तो किसी को ज्यादा। पर नुकसान तो दोनों पक्षों का होता है। अब भारत 1962 वाला नहीं है

चीन भी समझ रहा है कि भारत अब 1962 वाला नहीं है। सन 62 में तो तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने कह दिया था कि हमें अफसोस है कि हम असम को नहीं बचा पा रहे हैं।

वैसी नौबत क्यों तब आ गई थी? क्योंकि हमारी सरकार अदूरदर्शी थी। आजादी के तत्काल बाद के वर्षों में हम हिंदी-चीनी भाई -भाई के नारे लगा रहे थे। दरअसल हम मुगालते में थे।

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1962 के युद्ध से ठीक पहले भारतीय सेना ने अपनी सरकार से एक करोड़ रुपए मांगे थे। सेना की कुछ बुनियादी जरूरतेें पूरी करने के लिए। पर ‘पंचशील’ के नशे में डूबी हमारी सरकार ने पैसे नहीं दिए। नतीजा क्या हुआ, वह देश के प्रमुख पत्रकार मनमोहन शर्मा के, जो अब भी हमारे बीच मौजूद हैं, शब्दों में पढ़िए--

‘एक युद्ध संवाददाता के रूप में मैंने चीन के हमले को कवर किया था। मुझे याद है कि हम युद्ध के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे। हमारी सेना के पास अस्त्र, शस्त्र की बात छोड़िये, कपड़े तक नहीं थे। नेहरू जी ने कभी सोचा ही नहीं था कि चीन हम पर हमला करेगा।

एक दुखद घटना का उल्लेख करूंगा।

अंबाला से 200 सैनिकों को एयर लिफ्ट किया गया था। उन्होंने सूती कमीजें और निकरें पहन रखी थीं। उन्हें बोमडीला में एयर ड्राप कर दिया गया जहां का तापमान माइनस 40 डिग्री था। वहां पर उन्हें गिराए जाते ही ठंड से सभी बेमौत मर गए।

‘युद्ध चल रहा था, मगर हमारा जनरल कौल मैदान छोड़कर दिल्ली आ गया था। ये नेहरू जी के रिश्तेदार थे। इसलिए उन्हें बख्श दिया गया। हेन्डरसन जांच रपट आज तक संसद में पेश करने की किसी सरकार में हिम्मत नहीं हुई।’

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बाद के वर्षों में भी हमारी युद्ध तैयारी वैसी नहीं रही, जैसी होनी चाहिए थी। ‘कारणों’ का पता समय -समय पर चलता रहता था। हाल के वर्षों में कुछ तेजी जरूर आई है। पर वह भी अभी संतोषजनक नहीं है। जब तक सार्वजनिक धन भ्रष्टाचार में जाना जारी रहेगा, तक तक हम उतने सैनिक व असैनिक साजो- सामान से खुद को लैस नहीं कर पाएंगे, जितने की जरूरत देसी-विदेशी दुश्मनों से लड़ने के लिए है। हां, मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्रिमंडल स्तर से भ्रष्टाचार हटा है, पर अफसर स्तरों पर अभी काम बाकी है।

----सुरेंद्र किशोर-28 मई 2020 

लिफाफा देख कर ही चल जाता है मजमून का पता !

इन दिनों अखबारों में प्रकाशित लेखों को पढ़ने में कम ही समय लगता है। पहले अपेक्षाकृत अधिक लगता था। अब तो अधिकतर लेखकों के नाम देख कर ही यह पूर्वानुमान हो जाता है कि उन्होंने क्या लिखा होगा।

किसी के पक्ष या विपक्ष में लिखना गलत नहीं है। हां, तथ्य और तार्किकता की कमी से अवश्य ऊब हो जाती है। अब एकालाप अधिक रहता है।

किसी मुद्दे या व्यक्तित्व पर लिखते समय विचारों की ताजगी व नई जानकारियां मिले, तो अच्छा लगता है। संतुलन मिल जाए, तब तो और भी अच्छा। पर वह तो विरल है। और, लगता है कि आगे भी विरल ही रहेगा।

कुछ दशक पहले तक इस देश की विधायिकाओं में कुछ गार्जियननुमा बुजुर्ग सदस्य हुआ करते थे। वे कई बार दलगत भावना से ऊपर उठ कर बोलते थे। जब वे बोलते थे तो सदस्य उन्हें सुनते भी थे। पत्रकारिता में भी ऐसी हस्ती की कमी खलती है।


---सुरेंद्र किशोर--23 मई 2020 

बुधवार, 27 मई 2020

सरनेम छोड़ रही नयी पीढ़ी

मैट्रिक परीक्षा के 41 स्टेट टाॅपर की सूची प्रस्तुत है। बोर्ड की इस सूची में एक बात ध्यान देने वाली है। बिहार के संदर्भ में खास तौर पर। 41 में से सिर्फ चार विद्यार्थियों के नामों के साथ उनका सरनेम यानी कुल नाम जुड़ा हुआ है। मेरी समझ से यह सकारात्मक विकास है।

हालांकि जिन विद्यार्थियों ने जोड़ रखे हैं या समाज के जो अन्य लोग जोड़ते हैं, उनके लिए मेरे मन में कोई नकारात्मक धारणा नहीं बनती। पर, समाज जो कुछ नया हो रहा है, उसकी ओर मैंने ध्यान आकृष्ट किया।

---- सुरेंद्र किशोर -- 27 मई 2020

जरूरी नहीं तो नगरों में भीड़ बढ़ाने के बदले गांवों में बसें

जो काम आप इस देश की किसी छोटी जगह में रहकर भी कर सकते हैं, उसके लिए महानगरों में भीड़ न बढ़ाएं। कोरोना महामारी ने भी हमें यही सीख दी है, प्रवासी मजदूरों से लेकर अन्य लोगों को भी।

कोरोना विपत्ति तो समय के साथ गुजर जाएगी, पर, आने वाले दिनों में नगरों-महानगरों पर अन्य तरह के संकट भी आ सकते हैं। वे संकट कैसे होंगे, क्या होंगे, उनका स्वरूप क्या होगा, उसका थोड़ा-बहुत अंदाज मुझे है। पर, उस पर अभी कुछ कहना सही नहीं है।

मैं एक सामान्य आदमी हूं। एक छोटी जगह में रहकर वह सब कर लिया और कर रहा हूं जो मैं करना चाहता था। वैसे प्रारंभ से ही मेरी आकांक्षाएं सीमित ही रही हैं। सन 1977 और उसके बाद दिल्ली में बसने के लिए मुझे बारी -बारी से कम से कम पांच आफर -अवसर मिले थे। हर बार मैंने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया।

सन 1998 में तो अपनी बदली कैंसिल करवाकर दिल्ली से एक ही माह में पटना लौट आया था।
अब मैं मुख्य पटना नगर में भी नहीं, बल्कि पटना के पास के एक गांव में घर बना कर रहता हूं। नगर यहां तक भी धीरे -धीरे हमारा पीछा कर रहा है। पर, इसे भी नगर हो जाने में अभी समय लगेगा। 

यहीं से मैं वह सब काम कर सकता हूं, करता हूं जो करना चाहता रहा हूं। तकनीकी ने ऐसी सुविधा प्रदान कर दी है कि अब तो अपने पुश्तैनी गांव से भी सब काम कर सकता हूं। मैंने ‘टकू -टकू ट्राक -ट्राक’ के जमाने से पत्रकारिता शुरू की थी। टेलीग्राम यानी तार आज लगाने पर जरूरी नहीं कि दिल्ली आज ही मिल जाए। कई बार एक दिन बाद मिलता था।

वह भी एक जमाना था। पर आज बहुत फर्क आ गया है। मेरा पुश्तैनी गांव अभी तो सड़क मार्ग से मुख्य पटना से 45 किलोमीटर पर है। पर यदि प्रस्तावित पटना रिंग रोड बन गया तो वह दूरी करीब 30 किलोमीटर रह जाएगी। अभी जहां रहता हूं ,वहां प्रकृति के बहुत करीब हूं। मेरे घर के आसपास अनेक वृक्ष हैं। कुछ मैंने भी अपने परिसर में लगाए हैं।

पौधों को बढ़ते हुए देखने में भी एक अजीब सुख है। उनमें फल-फूल लगे हों तब तो बात ही कुछ और है। यहां दूर-दूर तक फैले खेत और इक्के -दुक्के मकान हैं। स्वच्छ हवा। दूध-सब्जी अपेक्षाकृत शुद्ध। हां, जब तक नौकरी में था, पटना में रहने की मजबूरी थी। पर 20 साल पहले ही योजना बना ली थी कि नगर के पास के किसी गांव में घर बनाऊंगा। मेरी योजना ‘विपत्ति में वरदान’ की तरह ही थी।

नगर में ऐसा आवास खड़ा करना जो खुला-खुला भी हो, मेरे जैसे सीमित आय वाले के लिए असंभव था। हां, मेरी शिक्षिका पत्नी के ‘सेवांत लाभ’ ने गांव में ठीक से बसने लायक साधन मुहैया करा दिया। हमारे आसपास के जो कुछ सज्जन नगर से आकर बसे हैं, उनमें भी एक दूसरे की मदद करने की भावना बनी हुई है। ऐसा महानगरों में कौन कहे, नगरों में भी विरल है।

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26 मई 2020

असंभव है सबको खुश करना

एक पिता अपने पुत्र के साथ बाजार जा रहा था। उसके साथ उसका गधा भी था। वे थोड़ी दूर गये तो किसी राहगीर ने कहा कि ‘‘अरे भई,गधा सवारी के लिए है। और, तुम बाप-बेटा पैदल ही जा रहे हो। कैसे बेवकूफ आदमी हो ?’’ यह सुनकर पिता ने पुत्र को गधे की पीठ पर बैठा दिया।

आगे बढ़ा तो कुछ अन्य लोग मिले। उनमें से एक ने कहा, ‘‘देखो यह लड़का कितना आलसी है! बेटा गधे की पीठ पर बैठ गया। और, इसका बाप पैदल ही जा रहा है! इस पर पिता ने अपने पुत्र को उतार दिया। खुद गधे की पीठ पर बैठ गया।

अब भी इस कहानी का अंत नहीं हुआ। आगे दो महिलाएं मिलीं। एक ने तंज कसा, ‘‘शर्म करो,आलसी गंवार! बेटा पैदल जा रहा है और खुद बाप गधे की पीठ पर बैठा है।’’ पिता अब क्या करे ! उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। फिर भी उसने एक तरकीब लगाई। अपने साथ बेटे को भी गधे की पीठ पर बैठा लिया।

अब तो हद हो गई।

आगे के एक राहगीर ने तो पशु क्रूरता का आरोप लगा दिया। कहा कि बेचारे अनबोलता पशु पर इतना अधिक बोझ क्यों डाल दिया है ?

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यह प्राचीन कथा आगे भी बढ़ती है। पर, मैं यहीं विराम दे रहा हूं।

इस कहानी का ‘मोरल’ क्या है ?

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यही कि सबको खुश करना असंभव है। उसकी कोशिश भी मत करो। सबको खुश करने के चक्कर में किसी को भी खुश नहीं कर पाओगे। सिर्फ अच्छा काम करते जाओ। बेसिरपैर की आलोचनाओं की परवाह मत करो।

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पुनश्चः-इस नीति कथा को दुहराने के पीछे मेरी मंशा आज के किसी नेता को दुःख पहुंचाना तो कत्तई नहीं है। 

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सुरेंद्र किशोर-27 मई 2020

शनिवार, 23 मई 2020

राज्यसभा की सदस्यता ठुकरा दी थी आचार्य जी ने

सर्वोदय नेता आचार्य राममूर्ति की पुण्यतिथि पर



बात पुरानी है। पर मुझे पूरी तरह याद है। पटना के श्रीकृष्ण स्मारक भवन में सभा हो रही थी।
मंच पर वी.पी.सिंह, मुख्यमंत्री लालू प्रसाद और सर्वोदय नेता आचार्य राममूर्ति मौजूद थे। अपने भाषण में लालू प्रसाद ने कहा कि हमने और राजा जी यानी वी.पी. सिंह ने आचार्य जी से कहा था कि आप राज्यसभा की सदस्यता स्वीकार कर लीजिए। पर आचार्य जी ने साफ मना कर दिया।
ऐसे निष्पृह समाजसेवी व्यक्ति थे आचार्य जी। 

स्वतंत्रता सेनानी, गांधीवादी व सर्वोदय नेता आचार्य राममूर्ति का जन्म उत्तर प्रदेश के जौनपुर के एक संपन्न परिवार में 1913 में हुआ था। 20 मई 2010 को पटना में उनका निधन हुआ। वे वाराणसी के क्वीन्स कालेज में पढ़ाते थे। पर उन्होंने नौकरी छोड़कर समाज सेवा की राह पकड़ ली। बिहार को उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र बनाया।

जेपी के नेतृत्व में 1974 में जब बिहार आंदोलन शुरू हुआ तो आचार्य जी का जेपी के बाद आंदोलन के नेतृ वर्ग में दूसरा स्थान था। आंदोलन के दौरान जब जेपी इलाज के वेलौर गए थे तो उन्होंने कुछ समय के लिए आंदोलन की बागडोर आचार्य जी को ही सौंपी थी। स्वतंत्रता सेनानी और गांधीवादी आचार्य जी का पूरा जीवन लोगों के कल्याण के लिए समर्पित रहा। ऐसे नेता अब कम ही देखे जाते हैं।

त्रुटिहीन प्रश्न पत्रों की तैयारी व काॅपियों की सही जांच की समस्या

बिहार बोर्ड ने हाल में माध्यमिक शिक्षक पात्रता परीक्षा रद कर दी। परीक्षा में भारी गड़बड़ी पाई गई थी। प्रश्नपत्र भी गलत सेट किए गए थे। देश -प्रदेश की अन्य अनेक परीक्षाओं के मामलों में भी अक्सर ऐसी शिकायतें मिलती रहती हैं। कहीं प्रश्न -सेटर में अयोग्यता पाई जाती है तो कहीं उत्तर पुस्तिकाओं की जांच करने वालों की अक्षमता। कहीं कुछ अन्य तरह की गड़बड़ियां।

पिछले साल ही यह खबर आई थी कि बिहार के सरकारी स्कूलों की कक्षा पांच के करीब 53 प्रतिशत बच्चे घटाव नहीं कर सकते। इस तरह के अन्य अनेक उदाहरण हैं। अपवादों को छोड़कर देश-प्रदेश के अधिकतर सरकारी स्कूलों की हालत भी कमोवेश यही है।

कुछ ही साल पहले बिहार के तत्कालीन गवर्नर ने कहा था कि ‘बिहार की उच्च शिक्षा ध्वस्त होने के कगार पर है।’ यानी, अपवादों को छोड़कर प्राथमिक से लेकर विश्व विद्यालय स्तर तक की शिक्षा-परीक्षा का हाल संतोषजनक नहीं है।

अधिकतर दाखिले और नौकरियों के लिए आयोजित प्रतियोगी परीक्षाओं का हाल भी असंतोषजनक पाए जाते हैं। ऐसे में हम कैसी पीढ़ियां तैयार कर रहे हैं ! 



इस पृष्ठभूमि में बिहार सरकार को चाहिए कि विशेष कदाचारमुक्त 


परीक्षाएं आयोजित करके पहले वह योग्य शिक्षकों की एक मजबूत टीम तैयार करे। उस टीम में शामिल शिक्षकगण हर स्तर के लिए त्रुटिरहित प्रश्नपत्र तैयार करें। मौजूदा शिक्षकों में से ही अत्यंत योग्य शिक्षकों के चयन के लिए छोटी-छोटी जांच परीक्षाएं समय -समय पर ली जा सकती हैं।

पटना में ही पांच हजार व्यक्तियों के बैठने की जगह वाला हाॅल उपलब्ध है। ईमानदार अफसरों की देखरेख में कड़ी निगरानी कराई जाए तो उस हाॅल में कदाचारमुक्त परीक्षाएं संभव भी है। 

साथ ही, उन चयनित योग्य शिक्षकों के जरिए उत्तर पुस्तिकाओं की सही जांच कराई जा सकती है। उत्तर पुस्तिकाओं के जांच कर्ताओं की टीम की निगरानी योग्यत्तम शिक्षकों की टीम से करवाई जा सकती है। प्रश्न पत्रों को सेट करने में जो गड़बड़ियां होती हैं, उन्हें भी दूर किया जा सकता है। 

शिक्षा और परीक्षा के काम को कैसे सुधारा जाए,उसके लिए तो एक उच्चाधिकारप्राप्त आयोग बनाने की जरूरत है ताकि कुछ कारगर सुझाव आ सके।


हरियाणा सरकार की सदाशयता

बिहारी मजदूरों के साथ हरियाणा सरकार का व्यवहार सराहनीय रहा। यदि अन्य राज्यों ने भी प्रवासी मजदूरों के साथ वैसा ही अपनापन दिखाया होता तो इस अभूतपूर्व आकस्मिक समस्या को हल करने में सुविधा होती।

याद रहे कि बिहार सरकार ने श्रमिकों पर हुए खर्च के पैसों को हरियाणा सरकार को देने की पेशकश की थी। मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने उसे ठुकराते हुए कहा कि प्रवासी मजदूरों की देखभाल की जिम्मेवारी हमारी है।  

दरअसल कोरोना से उत्पन्न समस्याओं के मुकाबला करने में जब संपन्न देश विफल रहे तो हमारा देश तो अब भी विकासशील है।

यहां तक कि बेहतर प्रशासन वाले केरल राज्य से भी यह खबर आई कि वहां बिहार व यू.पी. के मजदूर पैदल ही निकल पड़े थे। केरल पुलिस ने उन्हें रोका और शिविरों में फिर पहुंचाया। मजदूरों की शिकयत थी कि उन्हें वहां पर्याप्त मात्रा में भोजन नहीं मिल रहा था। याद रहे कि केरल सरकार ने अन्य कई राज्यों की अपेक्षा इस महामारी का बेहतर ढंग से मुकाबला किया है।


भूली-बिसरी याद


राष्ट्रकवि  मैथिलीशरण गुप्त की भारी भरकम लौह तिजोरी गामा पहलवान ने उठाई थी। सन् 1901-02 में भयंकर प्लेग की महामारी आई हुई थी। तब मैथिलीशरण गुप्त का परिवार उत्तर प्रदेश के झांसी जिले के चिरगांव से पलायन कर दतिया चला गया था जो मध्य प्रदेश में है। उनके  संग लोहे की एक भारी तिजोरी थी। मैथिलीशरण जी ससुराल दतिया में थी। उनकी ससुराल के परिवार में विश्व प्रसिद्ध पहलवान गामा का आना-जाना था।

तिजोरी को दसियों लोगों ने मिलकर किसी तरह बैलगाड़ी पर चिरगांव में चढ़ाया था। पर, उसे जब दतिया में उतारना हुआ तो गामा ने अपने भाई के साथ मिलकर आसानी से उतार लिया।
गामा का जन्म अमृतसर में 1880 में हुआ था। उनका निधन 22 मई 1963 को लाहौर में हुआ।
पहलवान गामा रूस्तम ए हिंद ही नहीं बल्कि रूस्तम ए बर्तानिया भी बने थे।

रीवां के महाराज बेंकटेश सिंह गामा के प्रतिपालक थे। रूस्तम ए हिंद का मुकाबला 1911 में प्रयाग में हुआ था। रीवां महाराज भी मौजूद थे। गामा का मुकाबला करीम पहलवान से थे।

कलियुगी भीम राममूर्ति करीम के पृष्ठपोषक थे। पर गामा विजयी हुए। उन्हें इनाम स्वरूप जो गदा मिली, उसे उन्होंने रीवां महाराज के चरणों में ले जाकर रख दिया। विभाजन के बाद गामा पाकिस्तान चले गए थे।

आज यानी 22 मई गामा की पुण्यतिथि है। गामा अपने जीवनकाल में ही संज्ञा से विशेषण बन चुके थे। हमारे  बचपन में भी गांव में लोगबाग किसी की ताकत पर जब सवाल उठाते थे तो कह देते थे,‘‘तुम गामा पहलवान हो क्या ?’’


और अंत में

कोरोना महामारी ने हमारे देश के शासनतंत्र को और अधिक कार्यकुशल बनाने की जरुरत एक बार फिर रेखांकित कर दी है। जब विकसित देश का तंत्र इस समस्या से सफलतापूर्वक निपटने में नाकामयाब रहा है तो हमारा देश तो अब भी विकासशील ही है।

पर हमारे यहां के शासनतंत्र को और अधिक भ्रष्टाचारमुक्त और कार्यकुशल बनाने की गुंजाइश लगातार बनी हुई है। यदि शासनतंत्र बेहतर रहेगा तो अगली किसी विपत्ति का हम बेहतर ढंग से मुकाबला कर पाएंगे।   

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22 मई, 20 के ‘प्रभात खबर’,पटना में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से।

गुरुवार, 21 मई 2020

सोशल मीडिया की भाषा-शैली


जिन लोगों को यह समझ में नहीं आता कि सोशल मीडिया में क्या और किस तरह लिखने से वे कानूनी लफड़े में नहीं फंसेंगे, तो वे मुख्यतः दो बातों का ध्यान रखें। पहली बात- किसी जिम्मेवार व शालीन अखबार में क्या किस तरह छपता है।

दूसरी बात--संसद की कार्यवाहियों को ध्यान से सुनें। कई बार किसी की बात को कार्यवाही से निकाल देने की मांग उठ जाती है। असंसदीय कह कर कई बार कुछ बातें निकाल भी दी जाती हैं।

जिस तरह की बातें विधायिका में बोलना वर्जित हैं, उस तरह की बातें सोशल मीडिया में लिखने से बचिए। अखबार में संपादक होते हैं। संसद के संपादक पीठासीन अधिकारी होते हैं। आप खुद के संपादक हैं। इसलिए सावधानी आप ही को बरतनी है।

अन्यथा ........!!!

समझ जाइए! थोड़ा कहना, अधिक समझना। आने वाले दिन कठिनाई के होंगे! शालीन भाषा-शैली में भी कोई भी महत्वपूर्ण बात कही जा सकती है। सूचना में शक्ति होती है। सूचनाओं से तर्क शक्ति बढ़ती है। जिनके पास तर्क नहीं होते, वे ही गाली-गलौज व शब्दिक या दैहिक हिंसा पर उतारू हो जाते हैं।

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   ---सुरेंद्र किशोर--21 मई 2020

राजीव गांधी के 3 अच्छे कदम

उनके विवादास्पद कामों की चर्चा आज नहीं क्योंकि आज उनकी पुण्यतिथि है


1981 के प्रारंभ में राजीव गांधी लोकसभा के सदस्य बने। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सदन में उनकी सीट हरि जी की सीट के बगल में दिलवा दी। इंदिरा जी चाहती थीं कि बिहार विधानसभा के पूर्व स्पीकर हरिनाथ मिश्र राजीव को संसदीय कार्यवाही का ज्ञान करा दें।

स्वतंत्रता सेनानी, अत्यंत ईमानदार व राष्ट्रहित चिंतक नेता हरि जी कांग्रेस की ‘नगदनारायण राजनीति’ से उन दिनों काफी क्षुब्ध थे। जानकार लोग बताते हैं कि उन्होंने दोनों ज्ञान राजीव को दे दिए। संसदीय ज्ञान के साथ -साथ उन्होंने कतिपय कांग्रेसी नेताओं के भ्रष्टाचार को खत्म करने की जरुरत भी राजीव को बता दी।

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उसके निम्न लिखित नतीजे निकले

1.-देश के तीन कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को, जिनपर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लग रहे थे, कांग्रेस महासचिव राजीव गांधी ने उनके पदों से हटवा दिया।

2.-प्रधानमंत्री बनकर राजीव गांधी ने ‘सत्ता के दलालों’ के खिलाफ सार्वजनिक रूप से आवाज उठाई।

3.-साथ ही, 85 पैसे बनाम 15 पैसे का रहस्योद्घाटन भी कर दिया।

प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ओड़िशा के कालहांडी की सभा में कहा कि केंद्र सरकार 100 पैसे दिल्ली से भेजती है, पर लोगों के पास उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही पहुंचते हैं।

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नतीजतन राजीव गांधी ‘मिस्टर क्लीन’ कहलाए।

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रामनाथ गोयनका भी राजीव से प्रभावित हो गए। उन्होंने राजीव के बाल सखा सुमन दुबे को इंडियन एक्सप्रेस का संपादक बना दिया।

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पर, वह हनीमून अवधि छोटी ही साबित हुई। बाद में क्या -क्या हुआ,वह सब कहने का अवसर आज नहीं है। किसी और दिन !

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21 मई 2020

   


   

राजीव गांधी की पुण्यतिथि


आज राजीव गांधी की पुण्यतिथि है। मेरे यहां जितने भी अखबार आते हैं, यानी दस, उनमें से किसी में भी विज्ञापन के जरिए कांग्रेस ने राजीव गांधी को याद नहीं किया है। पूर्व प्रधानमंत्री पर किसी का कोई लेख भी नहीं देखा।

फिर मैंने ‘नेशनल हेराल्ड’ से राजीव पर एक आइटम अपने फेसबुक वाॅल पर शेयर किया। ऐसी बेरुखी क्यों ? बात कुछ समझ में नहीं आई !

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--सुरेंद्र किशोर-21 मई 2020

बुधवार, 20 मई 2020

संबित पात्रा का होम वर्क कमजोर !


‘याद है ना दोस्तो, चारा घोटाला जिसमें ट्रक की जगह स्कूटर का रजिस्ट्रेशन नंबर दिया गया था।
आज ठीक उसी प्रकार बस के नाम पे दुपहिया वाहन और आटो का नंबर प्रियंका जी ने दिया है। प्रियंका वाड्रा लालू यादव जी से प्रेरित हैं।

----संबित पात्रा,

राष्ट्रीय प्रवक्ता,भाजपा

राष्ट्रीय सहारा, 20 मई 2020

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संबित पात्रा का होम वर्क आम तौर पर सही होता है। बातें रखने का उनका अंदाज भी मुझे पसंद है। पर पात्रा जी, इस मामले में आप गलत हैं। चारा घोटाले के जिस प्रकरण की आपने चर्चा की है, वह कांग्रेस शासनकाल में ही घटित हो चुका था।

यानी, लालू के सत्ता में आने से पहले ही बिहार की कांग्रेसी सरकार ‘स्कूटर पर सांड’ ढुलवा चुकी थी। यह बात अस्सी के दशक की है। सी.ए.जी.रपट में इसका खुलासा हुआ था।

‘द हिन्दू’ के बिहार संवाददाता रमेश उपाध्याय की तत्संबंधी रपट फोटोकाॅपी के साथ छपी थी। 
चारा घोटाले को लेकर लालू प्रसाद के शासनकाल की घटनाएं ऐसी साधारण नहीं ,बल्कि ‘असाधारण’ थीं।

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  -- सुरेंद्र किशोर - 20 मई 2020

वैकल्पिक राजनीति

जनपक्षधर कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के एनजीओकरण ने कुछ प्रदेशों में बेहतर और वैकल्पिक राजनीति की संभावना का कबाड़ा कर दिया! संघ-भाजपा को इससे बड़ा बल मिला! एनजीओ यहां सिर्फ शाब्दिक अर्थ में नहीं! अनेक एनजीओ अच्छा काम करते हैं और कर रहे हैं।

                   --वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश, 19 मई 2020 

मंगलवार, 19 मई 2020

सरकार सबको बेहतरीन चाहिए

हम ऐसे देश में रहते हैं जहां सोसायटी वाले रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन को काम करने नहीं देते। विभाजित ग्रामीण समाज ग्राम पंचायत ठप कर देता है। बेतरतीब शहरी बस्तियां स्थानीय निकायों के लिए दुःस्वप्न बन जाती हैं। तमाम शहरी लोग मतदान को बोझ मानते हैं। फिर भी सरकार सबको बेहतरीन चाहिए।

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--कंचन गुप्त, दैनिक जागरण। 19 मई 2020 

सोमवार, 18 मई 2020

डेढ़ दशक पहले ही राज्यपाल बूटा सिंह ने कह दिया था कि आजादी मिलने के समय से ही बिहार पिछड़ा राज्य बना हुआ है।


करीब डेढ़ दशक पहले बिहार के तत्कालीन राज्यपाल सरदार बूटा सिंह ने पटना में कहा था कि ‘‘आजादी के समय से ही बिहार देश का निर्धनत्तम घोषित राज्य है। आजादी के 50 वर्षों से अधिक समय बाद भी इसकी स्थिति तस की तस बनी हुई है।’’

याद रहे कि पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री सरदार बूटा सिंह 5 नवंबर, 2004 से 29 जनवरी, 2006 तक बिहार के राज्यपाल थे। मनमोहन सिंह सरकार ने उन्हें राज्यपाल बनाया था। यानी, कांग्रेस से लंबे समय तक मजबूती जुड़े रहे एक राज्यपाल बिहार को लेकर कड़ी टिप्पणी कर गए।

वे केंद्र और राज्य की कांग्रेसी सरकारों पर परोक्ष रूप से गंभीर आरोप लगा रहे थे। वे इस तथ्य को जगजाहिर कर रहे थे कि देश के निर्धनत्तम राज्य बिहार के विकास के लिए कांग्रेसी सरकारों ने भी कुछ नहीं किया। नतीजतन बिहार की दयनीय स्थिति आजादी के बाद से ही जस की तस 
बनी हुई है।

अपने तब के भाषण में बूटा सिंह ने बिहार के साथ-साथ उत्तर प्रदेश की भी चर्चा की थी।
उन्होंने कहा था कि ‘‘आजादी के बाद भारत सरकार ने विकास का जो प्रारूप अपनाया, वह बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे पिछड़े राज्यों में कारगर नहीं हो सका। जबकि देश के लक्ष्य राज्यों में इसका परिणाम बेहतर निकला।’’

यानी बूटा सिंह ने यह भी कह दिया कि केंद्र सरकार ने जिन राज्यों को विकसित बनाना चाहा, वे विकसित हो गए। याद रहे कि देश में प्रवासी मजदूरों की संख्या सबसे अधिक बिहार और उत्तर प्रदेश से ही है।

लालू प्रसाद के प्रत्यक्ष-परोक्ष शासनकाल में विकास की क्या गति और नीति थी? जग जाहिर है।
खुद लालू प्रसाद सार्वजनिक रूप से यह कहा करते थे कि विकास से वोट नहीं मिलते बल्कि सामाजिक समीकरण से वोट मिलते हैं।

अब रह गई नीतीश सरकार।

जो लोग प्रवासी मजदूरों की आज की दुर्दशा के लिए नीतीश सरकार को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, वे यह उम्मीद कर रहे हैं कि जो काम 58 साल में नहीं हुए, वह काम 15 साल में ही हो जाना चाहिए था। याद रहे कि यदि बिहार और उत्तर प्रदेश का विकास हो गया होता तो इतनी बड़ी संख्या में रोजी-रोटी के लिए मजदूर दूसरे प्रदेशों में जाने को बाध्य नहीं होते।

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सुरेंद्र किशोर--18 मई 2020

रविवार, 17 मई 2020

ऐसे करें किसानों का भला !


देश की जीवन रेखा कृषि को इस कठिन दौर में बड़े राहत पैकेज की दरकार है। कर्ज पे कर्जा देने से समाधान नहीं निकलने वाला। किसानों को प्रत्यक्ष आय समर्थन देना होगा।

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 ---कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा,
    दैनिक जागरण,17 मई 2020

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मैं बिहार के सारण जिले के एक परिवार को जानता हूं जिसे 1976 से पहले सामान्य खर्चे चलाने के लिए भी अक्सर जमीन बेचनी पड़ती थी। सन 1976 में उस परिवार में एक व्यक्ति को मासिक 125 रुपए पर सरकारी नौकरी मिल गयी। उसके बाद जमीन बिकनी बंद हो गई। याद रहे कि 1976 के एक सौ रुपए आज के 2463 रुपए के बराबर है।

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यदि सरकार किसान परिवार को इतनी नकदी देने में असमर्थ है तो वह फिलहाल एक बीच का रास्ता निकाल सकती है। केंद्र व राज्य सरकारें ऐसे किसान परिवारों के लिए सरकारी नौकरियों में कुछ सीटें आरक्षित कर दे जिस परिवार से कोई भी व्यक्ति सरकारी या निजी नौकरी में नहीं है।
यदि ऐसा हुआ तो उस परिवार की क्रय शक्ति बढ़ जाएगी। फिर वह कुछ करखनिया उत्पाद भी खरीदने की स्थिति में हो जाएगा। उससे अतिरिक्त कारखाने भी खुलेंगे। उनमें भी नौकरियां मिलेंगी।  


----सुरेंद्र किशोर--17 मई 2020

शनिवार, 16 मई 2020

राष्ट्रीय प्रवासी मजदूर नीति निर्धारित करने की सख्त जरूरत

सुरेंद्र किशोर


राष्ट्रीय स्तर पर प्रवासी मजदूर कल्याण नीति निर्धारित करने की जरुरत महसूस की जाती रही है। कोरोना महामारी ने इसकी जरूरत बढ़ा दी है। केंद्र सरकार को इस दिशा में जल्द ठोस कदम उठाना चाहिए। इस बार प्रवासी मजदूरों को अपार कष्ट का सामना करना पड़ रहा है।

लाॅकडाउन के बाद से ही उनकी परेशानियां शुरू हो गईं। जब उन्होंने घर लौटने की कोशिश की तो रास्ते में उन्हें अपार कष्ट हुआ और हो रहा है। संकट में न तो उनके नियोक्ता काम आए और न ही वे राज्य सरकारें जहां वे काम करने गए थे। परदेश में मजदूरों को उनकी तकदीर के हवाले कर दिया गया। अपवादों की बात और है।

मजदूरों ने अपने घरों से सैकड़ों किलोमीटर दूर जाकर आपके काम-धंधे चमकाने में मदद की। उनसे नियोजकों ने मुनाफा कमाया और राज्य सरकारों ने राजस्व। उनके बिना आपका आगे भी काम चलने वाला नहीं। फिर भी संकट में उनपर किसी ने जरूरत के अनुसार खर्च नहीं किया। किसी संकट की स्थिति में नियोक्ता व सरकारें प्रवासी मजदूरों को मदद करने को बाध्य हों, ऐसा नियम-कानून बनाया जाना चाहिए।

यदि इस संबंध में आज कोई कारगर नीति, नियम और कानून होते तो नियोजकगण ऐसी विपत्ति में मजदूरों की देखभाल करने को मजबूर होते। लौटने वाले लाखों मजदूरों में से बड़ी संख्या में ऐसे मजदूर भी हैं जिनकी मानसिकता कष्ट के बाद बदली हुई लग रही है। वे कह रहे हैं कि दुबारा दूसरे प्रांतों में हम नहीं जाएंगे। पर संभव है कि बाद में उनमें से कुछ लोग अपने विचार बदल लें। दुबारा जाएं।

यदि इस बीच कोई नीति निर्धारित नहीं होगी तो आशंका है कि दुबारा कोरोना जैसी विपत्ति आई तो उनका फिर वही हाल होगा। वैसे फिलहाल बिहार लौटे प्रवासी मजदूरों की बिहार सरकार भरसक देखभाल कर रही है।
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अब याद आ रहीं बुजुर्गों की बातें

कुछ ही दशक पहले सामूहिक परिवारों में हमारे बुजुर्ग हमें स्वास्थ्य संबंधी कई बातों के लिए हमें सावधान किया करते थे। एकल परिवार के दौर में हमें ऐसी बातें भला अब कौन बताए! कोरोना महामारी की पृष्ठभूमि में वहीं बातें हमें फिर सुनने को मिल रही हैं। हम अब उसका भरसक पालन भी करने को बाध्य हैं।

परंपरागत विवेक के आधार पर हमारे बुजुर्ग बताते थे कि ‘एक बार पहना हुआ कपड़ा धोए बिना फिर मत पहनो।’ यह परंपरागत विवेक उन्हें हमारे प्राचीन ग्रंथों से मिला था। 

कभी हमें यह बताया जाता था कि 
  • ‘बाल कटाने और श्मशान से लौटने के बाद स्नान जरुर करो।’ 
  • ‘पूजा के समय का कपड़ा अलग हो।’ 
  • ‘घर से बाहर जाने पर अलग कपड़ा पहनो।’
  • ‘सोने के समय का कपड़ा अलग होना चाहिए।’
  • ‘भोजन करने से पहले हाथ,पैर और मुंह धो लो।’
  • ‘गीला कपड़ा मत पहनो।’


कई बातों को लेकर चर्चित रही पुस्तक ‘मनुस्मृति’ में लिखा गया है कि ‘अकारण कान, आंख या नाक मत छुओ।’ बुजुर्ग यह भी बताते थे कि स्नान के बाद ऐसे कपड़े से देह मत पोछो जिसका इस्तेमाल किसी अन्य ने किया है। दूसरे का पहना कपड़ा मत पहनो। आदि आदि......।

अच्छा है कि कोरोना महामारी के दौर में हमें वही सब बातें आधुनिक चिकित्सक भी बता रहे हैं।

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सुदृढ सुरक्षा बल जरूरी


देश की भीतरी-बाहरी सुरक्षा के लिए सेना-पुलिस की सुदृढता अत्यंत जरूरी है। यह अच्छी बात है कि भारत सरकार इस जरुरत के प्रति जागरूक है। गृह मंत्री अमितशाह ने गत अक्तूबर में कहा था कि सरकार पुलिसकर्मियों के लिए अच्छा माहौल सुनिश्चित करेगी। पुलिसकर्मियों की स्वास्थ्य और परिवार कल्याण संबंधी चिंताओं को दूर किया जाएगा।

उन्होंने कहा था कि एक लाख नागरिकों पर न्यूनत्तम 222 पुलिसकर्मी होने चाहिए। पर अभी इस देश में सिर्फ 144 हैं। इसलिए उनके काम के घंटे अधिक हैं। उम्मीद है कि गृह मंत्री ने अक्तूबर के बाद इस स्थिति में सुधार की दिशा में जरूर कदम उठाया होगा।

इस बीच जिस तरह देश भर के पुलिसकर्मी कोराना महामारी के बीच कठिन परिस्थितियों में अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं, उसे भी ध्यान में रखना चाहिए। इस बीच आम नागरिकों को तीन साल के लिए सेना में शामिल करने के प्रस्ताव पर केंद्र सरकार विचार कर रही है। थल सेना में सुधार के लिए ऐसा किया जा रहा है। बाहर-भीतर के देश विरोधी तत्वों से मुकाबले के लिए यह सब जरूरी है।  

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और अंत में 


लाॅकडाउन के शुरुआती दौर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि जो जहां हैं, वे वहीं रहें। पर तरह-तरह के राजनीतिक-गैर राजनीतिक दबावों के बाद वह निर्णय उन्हें बदलना पड़ा। प्रवासियों की वापसी के बाद कोरोना के मामले बढ़े। यानी पिछला फैसला बदलना सही साबित नहीं हुआ।

राष्ट्रीय स्तर पर प्रवासी मजदूर कल्याण नीति या कानून की गैरमौजूदगी के कारण प्रवासी मजदूरों को अपने कार्यस्थलों पर रोके रखना संभव नहीं हुआ। इस संबंध में कोई नियम-कानून होता तो संबंधित राज्य सरकार और नियोक्तागण मिलकर प्रवासी मजदूरों का वहीं ठीक से देखभाल करते।यदि आप लाखों की संख्या में मजदूर अपने यहां बुलाते हैं तो किसी विपत्ति की स्थिति में उनकी देखभाल का भी इंतजाम कीजिए। 

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कानोंकान, प्रभात खबर, पटना, 15 मई, 2020

गुरुवार, 14 मई 2020

विजय माल्या बनाम आक्टोवियो क्वात्रोचि

नरेंद्र मोदी सरकार ने कड़ा रुख अपनाया तो विजय माल्या अब बाप- बाप कर रहा है। जेल जाने के डर से माल्या कह रहा है कि मैंने जितना कर्ज लिया है, मुझसे वापस ले लो। पर केस बंद करा दो। किंतु अब उसकी कोई नहीं सुन रहा है।

मोदी सरकार चाहती है कि वह पैसे भी दे और जेल भी काटे। माल्या ने राजनीतिक आकाओं की मदद से भारतीय बैंकों से करीब 9000 करोड़ रुपए लिए हैं। पहले मंशा न लौटाने की थी।

मनमोहन सरकार का कारनामा जानिए। दलाली का पैसा बोफोर्स दलाल क्वात्रोचि के स्विस बैंक की लंदन शाखा में जमा था। उससे पहले की गैर कांग्रेसी सरकार की सी.बी.आई. ने उस खाते को जब्त भी करवा दिया था। बोफोर्स दलाली केस चल रहा था।

पर, मन मोहन सरकार ने एक अफसर लंदन भेजकर उस खाते को चालू करवा दिया। क्वात्रोचि ने तुरंत सारे पैसे निकाल लिए। उससे पहले कांग्रेसी सरकार के शासनकाल में ही क्वात्रोचि भारत से भाग गया था। बोफर्स तोप दलाली का मामला अब भी सुप्रीम कोर्ट में है।

यदि सुप्रीम कोर्ट ने उस केस को फिर से खोलने की अनुमति दे दी तो अनेक बड़ी हस्तियां बेनकाब हो जाएंगी। याद रहे कि बोफर्स केस को उसकी तार्किक परिणति तक पहुंचने ही नहीं दिया गया था।

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---सुरेंद्र किशोर--14 मई 2020

पैसे पेड़ पर नहीं उगते : मनमोहन सिंह

14 अप्रैल, 2020 को कांग्रेस ने करीब 10 लाख करोड़ रुपए का पैकेज मांगा था। मोदी सरकार ने 20 लाख करोड़ रुपए के पैकेज की घोषणा कर दी। इसके बावजूद कांग्रेस अब कह रही है कि यह नाकाफी है। लगता है कि कांग्रेस एक बात भूल गई। सितंबर, 2012 में तत्कालीन प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि ‘पैसे पेड़ पर नहीं उगते।’

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--सुरेंद्र किशोर--14 मई, 2020

बुधवार, 13 मई 2020

जन भावना की उपेक्षा नुकसानदेह

1.-जिन राजनीतिक दलों और नेताओं ने तब्लीगी जमात और पाॅपुलर फ्रंट आफ इंडिया के कारनामों की आलोचना नहीं की, या, परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से उनका बचाव किया, उनका राजनीतिक सह चुनावी भविष्य फिलहाल अनिश्चित हो गया लगता है। भविष्य में राजनीति कौन सा मोड़ लेगी,यह नहीं कहा जा सकता। पर मैं तो आज की स्थिति बता रहा हूं। आज आम लोगों के बोल-वचन से तो यही संकेत मिल रहा है। अब भी समय है, गलती सुधारने के लिए।

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2.-कई साल पहले तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोग व राजनीतिक -गैर राजनीतिक संगठन, एक खास बहाना बनाकर केंद्र और कुछ राज्यों की विवादास्पद सरकारों का समर्थन व बचाव कर रहे थे।
ऐसी सरकारों व नेताओं का, जिन पर भ्रष्टाचार, वंशवाद और तुष्टिकरण के आरोप लग रहे थे।
तथाकथित ‘धर्मनिरपेक्ष’ लोगों का तर्क था कि हम क्या करें ? हमारी मजबूरी है।

-हालांकि उनकी धर्मनिरपेक्षता एकांगी ही रही है ।-

वे कह रहे थे कि हम सांप्रदायिक ताकतों को यानी भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए ऐसा कर रहे हैं। उनसे तब यह कहा जा रहा है कि ऐसे में तो आप न भाजपा को रोक सकेंगे और न ही खुद के अस्तित्व को बचा सकेंगे। क्योंकि अधिकतर जनता की भावना आपके खिलाफ है। फिर भी वे नहीं माने। नतीजा सामने है।

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3. सन 1990 के मंडल आरक्षण के समय आरक्षण विरोधियों ने जब मंडल आरक्षण का विरोध शुरू किया तो उन्हें सवर्णों के बीच के कुछ विवेकशील लोग समझा रहे थे --‘गज नहीं फाड़िएगा तो थान हारना पड़ेगा।’ पर, वे नहीं माने। उनका विरोध जारी रहा। भीषण प्रतिक्रिया हुई। नतीजा सबने देखा। अनेक लोगों ने भोगा भी !

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‘कहानी’ का ‘मोरल’ यह है कि जनभावना की उपेक्षा लोकतंत्र में अक्सर  नुकसानदेह ही साबित होती है। संभव है कि कुछ लोगों को मेरी ये बातें अच्छी नहीं लगें। पर ऐतिहासिक अवसरों पर ऐसी बातें कह दी जानी चाहिए। मंडल आरक्षण के समय बिहार विधानसभा के प्रेस रूम की बैठकी में मैं अक्सर यह कहा करता था कि आरक्षण का विरोध मत कीजिए। गज नहीं फाड़िएगा तो थान हारना पड़ेगा। पूर्व कांग्रेसी विधायक हरखू झा इस बात के गवाह हैं। 

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--सुरेंद्र किशोर -- 13 मई 2020

बिहार विधान परिषद की राह सुरक्षित


जो नेता यह समझते हैं कि उनके लिए आगे भी बिहार विधान मंडल के किसी न किसी सदन का 
सदस्य बने रहना जरूरी है, वे अगले द्विवार्षिक चुनाव में विधान परिषद के सदस्य बन जाएं।
क्योंकि कुछ लोगों के लिए बाहर की राजनीतिक हवा अभी अनिश्चित दिखाई पड़ रही है।

किसके लिए अनिश्चित है, इस पर कुछ कहना अभी ठीक नहीं है। याद रहे कि मैं न तो किसी दल का नाम ले रहा हूं और न ही किसी नेता का। इसलिए इस पोस्ट पर किसी को नाराज हो जाने का कोई आधार नहीं बनता है।

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सुरेंद्र किशोर--10 मई 2020

मंगलवार, 12 मई 2020

मजदूर आपूर्ति करने को मजबूर राज्य

सुरेंद्र किशोर

लोगों को यदि सिर्फ रोजी-रोटी के लिए अपना राज्य छोड़कर कहीं और जाना पड़े तो यह चिंताजनक है।


बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों की वापसी और इस दौरान उनकी तकलीफें वास्तव में आजादी के बाद देश का समरूप विकास न हो पाने का नतीजा है। आजादी के बाद 1952 में एक अविवेकपूर्ण समझ के तहत केंद्र सरकार ने रेल भाड़ा समानीकरण नीति बनाई। इसके कारण बिहार, ओड़िशा, पश्चिम बंगाल के एक बड़े हिस्से को उनके खनिज पदार्थों के भारी भंडारों का पूरा लाभ नहीं उठाने दिया गया। जिन राज्यों ने लाभ उठाया, उन्होंने पिछड़े राज्यों से सस्ते मजदूर बुलाकर उन पर दोहरी चोट कर दी। क्योंकि मजदूरों की कमी के कारण उन राज्यों की कृषि भी विकसित नहीं हुई। लिहाजा वहां से मजदूरों का पलायन होता रहा।

इसी समस्या के चलते 1960-70 में देश के भीतर आंतरिक उपनिवेश बनाने का आरोप लगा। इसके बाद भी केंद्र सरकार की नींद नहीं टूटी। लगातार मांग के बाद अंततः 1992 में रेल भाड़ा समानीकरण नीति को समाप्त किया गया। लेकिन तब तक बिहार जैसे गरीब राज्य को एक अनुमान के अनुसार दस लाख करोड़ रुपए का नुकसान हो चुका था। 1952 से लेकर 1992 तक इतनी राशि का बिहार में निवेश हुआ होता तो वहां के करीब 30 लाख मजदूरों को रोजी-रोटी के लिए पलायन नहीं करना पड़ता।

आजादी के तत्काल बाद के वर्षों में कृषि और इससे संबंधित क्षेत्र में केंद्र ने बिहार में प्रति व्यक्ति 172 रुपए खर्च किए, जबकि उसी अवधि में पंजाब में 594 रुपए खर्च किए। भाखड़ा नांगल परियोजना पर तो भारी खर्च किया गया, लेकिन जब बिहार ने कोसी योजना के लिए पैसे की मांग की तो केंद्र ने कहा कि श्रमदान से बांध बनवाइए। बाद में बिहार की दो बड़ी कोसी और गंडक सिंचाई परियोजनाएं भ्रष्टाचार के कारण तबाह हो गईं।

कृषि क्षेत्र में इच्छित उपलब्धि नहीं मिल सकी। उसकी क्षतिपूर्ति के लिए बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग हुई तो उसे पूरा करने में केंद्र ने संवैधानिक कठिनाई बताई। देश के जिन राज्यों से प्रवासी मजदूर दूसरे राज्यों में जाने को बाध्य हैं, उनमें बिहार अग्रणी है। नतीजतन बिहार के किसानों को भी मजदूरों की कमी महसूस होती है।

इन मजदूरों को दूसरे राज्यों में अपने यहां की अपेक्षा कुछ अधिक मजदूरी मिल जाती है तो उसकी वजह उन राज्यों का संपन्न होना है। उनकी संपन्नता में अन्य बातों के अलावा रेल भाड़ा समानीकरण नीति का बड़ा हाथ है। इस नीति के तहत खनिज पदार्थों को एक से दूसरी जगह ले जाने का रेल भाड़ा समान कर दिया गया था। यानी सौ टन खनिज पदार्थ धनबाद से रांची ले जाने का जितना भाड़ा लगता था, उतना ही भाड़ा धनबाद से बंबई ले जाने के लिए लगता था। ऐसे में दूसरे प्रदेशों का कोई उद्योगपति बिहार या ओड़िशा में उद्योग क्यों लगाता ?

अंग्रेजों के जमाने में ऐसी नीति नहीं थी। इसीलिए गुजरात के जमशेदजी टाटा ने अविभाजित बिहार के खनिज बहुल इलाके में बड़ा उद्योग लगाया। आज वह जमशेपुर के नाम से जाना जाता है। वहां टाटा उद्योग में बिहार और आसपास के राज्यों के हजारों लोगों को नौकरियां मिलीं। पर भाड़ा नीति के आ जाने के बाद अन्य राज्यों के किसी उद्यमी के समक्ष उद्योग लगाने के लिए खनिज बहुल राज्यों में आने की मजबूरी नहीं रह गई। नतीजा यह हुआ कि बिहार, ओड़िशा जैसे राज्यों का विकास थम गया।

यदि कृषि पर आधरित उद्योगों का जाल बिछाया गया होता तो आम किसानों की क्रय शक्ति बढ़ती। उससे उद्योगों का भी विकास होता। इसके साथ ही मजदूरों को अपने ही घर में काम मिल जाता। विकास नहीं होने के कारण राज्य सरकारों के पास आंतरिक संसाधन जुटाने के स्रोत नहीं बढ़ सके।

चूंकि केंद्रीय सहायता राज्य के आंतरिक राजस्व के अनुपात में मिलती है इसलिए पिछड़े राज्यों को वह भी कम मिली। जरूरत के अनुपात में कृषि और उद्योग का विकास नहीं होने के कारण पिछड़े राज्यों को आंतरिक संसाधन जुटाने में भी दिक्कतें आती रहीं। परिणामस्वरूप ऐसे राज्य मजदूर आपूर्तिकत्र्ता राज्य बन कर रह गए।

1970 में बिहार का विकास के मामले में देश में नीचे से दूसरा स्थान था। उससे निचले पायदान पर ओड़िशा था। वह भी खनिज पदार्थों की उपलब्धता के मामले में संपन्न है। बिहार में कुछ दशकों तक ऐसी सरकारें रहीं जिनकी विकास में कम ही रुचि थी।

2005 के बाद विकास की एक नई शुरुआत हुई। फिर 2015 में मोदी सरकार ने बिहार के लिए सवा लाख करोड़ रुपए के एक बड़े आर्थिक पैकेज की घोषणा की। उसके तहत काम भी शुरू हो चुका है। उससे राज्य को कुछ राहत मिली है। लेकिन वह पैकेज भी राज्य की कायापलट के लिए नाकाफी साबित हो रहा है। इसीलिए समय- समय पर बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग उठती रही है।

कोई व्यक्ति बेहतर भविष्य और अच्छी आय के लिए किसी अन्य राज्य में जाए तो बात समझ में आती है। पर सिर्फ रोजी-रोटी के लिए अपना राज्य छोड़कर कहीं और जाए तो यह चिंताजनक तो है ही, असमान विकास का सूचक भी है। कोरोना के इस दौर में यूपी, बिहार, ओड़िशा आदि के प्रवासी मजदूरों को अन्य राज्यों में जो कटु अनुभव हुए हैं, उससे यही लगता है कि वे पहले जैसे उत्साह से बाहर नहीं जाएंगे। इसलिए जहां वे हैं, वहीं विकास का काम करना पड़ेगा।

इन दिनों उत्तर प्रदेश, बिहार, ओड़िशा छत्तीसगढ़ आदि राज्यों के हजारों मजदूर अपने घर लौट रहे हैं। कुछ घर जाने की जिद में उग्र हो रहे हैं। यदि मौजूदा केंद्र सरकार देश के सम्यक विकास पर जोर देकर आजादी के बाद के अधूरे काम को पूरा करे तो मजदूरों के सामने कोरोना महामारी जैसी स्थिति में अपने घरों को लौटने के लिए ऐसी जिद्दोजहद करने की नौबत फिर नहीं आएगी। यह काम राज्य और केंद्र मिलकर ही कर सकते हैं।

  --लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं।

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12 मई 2020 के दैनिक जागरण में प्रकाशित। 

पत्रकारिता के लिए नया संकट काल

पत्रकारों और पत्रकारिता के लिए नया संकट काल चल रहा है। संपादकों, पत्रकारों पर देश के अलग- अलग हिस्सों में मुकदमे किए जा रहे हैं। इनके पीछे सरकारें, पार्टियां हैं। इसके शिकार पहले वामपंथी माने जाने वाले संपादक हो रहे थे। अब कथित दक्षिणपंथियों की बारी है। यह बेहद खतरनाक है।

---राहुल देव, जनसत्ता के पूर्व संपादक।

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केरल पुलिस ने जी.न्यूज के सुधीर चौधरी के खिलाफ गैर जमानती धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज किया है। ठीक है। किसी को भी किसी से शिकायत है तो उसे मुकदमा करने का पूरा अधिकार है। पर, एक हिन्दी न्यूज चैनल के खिलाफ गैर हिन्दी राज्य में मुकदमा ?!!! क्योंकि वहां सी.पी.एम. की सरकार है ? यह बात कुछ हजम नहीं हुई !!!

किसी हिन्दी राज्य की पुलिस-अदालत पर भरोसा नहीं रहा? सारे हिन्दी राज्यों में भाजपा का शासन तो है नहीं।

---सुरेंद्र किशोर

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11 मई 2020

सोमवार, 11 मई 2020

 डी.जी.पी.का मौन संदेश-
 छोटा नहीं है कोई काम !
  --सुरेंद्र किशोर--
गाय दुहते बिहार के डी.जी.पी गुप्तेश्वर पांडेय की 
तस्वीर छाप कर दैनिक भास्कर,पटना ने बढ़िया 
काम किया है।
इससे समाज में अच्छा संदेश जाता है।
संदेश यह कि कोई भी काम छोटा नहीं है।
ऐसी तस्वीरों से आज के युवजन को खास तौर पर संदेश
 मिल सकता है यदि लेना चाहें।
काफी पहले मैंने जब सुना कि आई.ए.एस.अधिकारी 
रामउपदेश सिंह ‘विदेह’ को गाय दुहते देखा गया है तो 
मुझे आश्चर्य हुआ था।
कहां कमिश्नर स्तर के अफसर और कहां गाय 
दुहने जैसा काम !
खैर, अब आश्चर्य नहीं होता।अब खुशी होती है।
  हाल में रिटायर आई.पी.एस.अधिकारी एस.के. भारद्वाज को 
खेती करते देखा गया है।
  पूर्व केंद्रीय मंत्री डा.राम सुभग सिंह सक्रिय राजनीति से जब अलग हो गए थे तो वे आरा स्थित अपने आवास में गोपालन 
करते थे।
गोपालन यानी सचमुच गोपालन।
दूर खड़े होकर गोपालन नहीं।
  सी.बी.आई.के पूर्व निदेशक राजदेव सिंह हमारे इलाके 
के थे।
या यूं कहिए कि मैं उनके इलाके का मूल निवासी हूं।
मेरे बाबू जी उनसे मिलने कभी-कभी पटना आते थे।
एक बार की बात है।
तब पटना में उनका मकान बन रहा था।
राजदेव बाबू, जिनकी ईमानदारी की लोग कसमें खाते हैं,
भवन निर्माण के काम में मजदूरों के साथ-साथ 
खुद भी ईंट ढोते थे।
बाबू जी ने उन्हें ऐसा करते देखा था।
तब अक्सर बाबू जी हमलोगों से कहा करते थे कि 
‘तोहरा लोग के राजदेव सिंह से शिक्षा लेवे के चाहीं।’’
कुछ ऐसे अन्य उदाहरण भी मिल सकते हैं जिनकी मीडिया
 में चर्चा होनी चाहिए।  
आज के संदर्भ में यह और भी महत्वपूर्ण है।
बिहार के अनेक युवकों को अपने गांव में कोई छोटा-मोटा
काम करने में शर्म महसूस होती है।
पर, वे ही अन्य राज्यों में जाकर उससे भी छोटा काम 
अधिक मेहनत व तन्मयता के साथ करते हैं।
 जब कोरोना जैसी विपत्ति आती है तो 
वहां भागकर अपनी मातृभूमि में एक बार फिर शरण लेने 
के लिए जान लेने-देने को उतारू हो जाते हैं।
अरे, भई अपने डी.जी.पी.जैसे बड़े लोगों से शिक्षा लीजिए।
अपने ही घर में रहकर छोटे से शुरू कीजिए।
एक दिन यहीं बड़ा काम करने का भी अवसर मिल सकता है।
मैंने अपने इलाके के एक व्यक्ति को बचपन से देखा है।
करीब पांच दशक पहले उन्होंने टायर गाड़ी चलाकर माल 
ढोना शुरू किया था।
उन्हें तब रोज के 25 रुपए मिलते थे।
धीरे -धीरे वे आर्थिक रूप से आगे बढ़ते चले गए।
आज स्थिति यह है कि जिसे भी अपनी जमीन बेचनी 
होती है तो सबसे पहले उसी व्यक्ति के यहां जाता है।   
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--11 मई 2020

रविवार, 10 मई 2020

मेरी लघु साइकिल यात्रा !

मुझे भी अपनी एक लघु साइकिल यात्रा की याद आ गई। प्रवासी मजदूरों की लंबी-लंबी तकलीफदेह साइकिल यात्राओं के चित्र अखबारों में देखने के बाद ऐसा हुआ। पर, मेरी यात्रा तो मात्र 57 किलोमीटर की थी। पर, उसी से ऐसी यात्रा की तकलीफ का अनुभव हुआ।

वह यात्रा थी--आरा से पटना के बीच। 1963 की बात है। तब मैं आरा में पढ़ता था। एक दिन मेरे मित्र और सहपाठी रामकुमार गुप्ता ने कहा कि ‘चलो पटना सिनेमा देखने।’ दरअसल उन दिनों आरा में सिर्फ दो ही सिनेमा हाॅल थे--रूपम और मोहन। पता नहीं, आज कितने है !

वहां कितना देख पाते सिनेमा !! वह उम्र ही थी सिनमा देखने की। अब तो दशकों हो गए सिनेमा हाॅल गए। खैर, हम दोनों एक ही साइकिल पर पटना के लिए चल दिए। कभी मैं साइकिल चलाता और वह सहयात्री होता तो कभी वह चलाता और मैं सहयात्री। आरा से पटना तक की यात्रा तो हमने पूरी कर ली। ‘पर्ल’ में सिनेमा देखा। फिर साइकिल से ही आरा लौटने लगा। पर हमलोग थककर चूर हो चुके थे। दानापुर पहुंचकर ट्रेन पर साइकिल लादी और आरा वापस।

अब अंदाज लगाइए,उन मजदूरों की तकलीफों की। सैकड़ों किलोमीटर की साइकिल यात्राओं के बाद वे घर लौट रहे हैं। यह जरुर है कि वे हम लोगों की तरह सुकुमार नहीं हैं। रामकुमार गुप्त तो आरा के एक बहुत बड़े व्यापारी परिवार का है। पिछले कई वर्षों से रामकुमार से मेरा कोई संपर्क नहीं है। पर, उसकी याद आती है।

जीवन के जिस मोड़ पर जब जहां जो मिला, मित्र बना या परिचित, उनमें से अधिकतर बारी -बारी से यदाकदा मुझे याद आते रहते हैं। उम्मीद है कि और लोगों को भी अपने मित्र याद आते होंगे। वह भी निःस्वार्थ भाव से !

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--सुरेंद्र किशोर - 10 मई 2020

शनिवार, 9 मई 2020

     
भारत सरकार ने एक हजार अमेरिकी कंपनियों को 
चीन से निकाल कर यहां आने के लिए आमंत्रित किया है।
  कोरोना विपत्ति की पृष्ठभूमि में चीन-अमेरिका संबंध को देखते हुए यह संभव है कि वे कंपनियां भारत आने पर गंभीरतापूर्वक विचार करंे।
  पर, मेरी समझ से इसमें एक ही बड़ी बाधा है।
वह बाधा इस देश में सरकारी भ्रष्टाचार के स्तर को लेकर है। 
भारत में विभिन्न सरकारी स्तरों पर भारी भ्रष्टाचार है।
केंद्र सरकार के मंत्रिमंडल स्तर पर तो आज पहले जैसा भले घोटालों-महा घोटालों  का दौर नहीं है,
पर उससे नीचे के स्तरों पर यहां अमेरिकी कंपनियों को भारी भ्रष्टाचार से पाला पड़ेगा।
  उस स्थिति में वे यहां कितने दिनों तक टिक पाएंगी ?
हां, यहां आ जाने पर उन्हें यदि टिकाए रखना है तो भारत  सरकार को कुछ ठोस व कठोर उपाय करने होंगे।
  चीन में भ्रष्टाचार के लिए फांसी की सजा का प्रावधान है।
यहां भी वह प्रावधान करना पड़ेगा।
अमेरिका मंे तरह -तरह के अपराधियों में से 93 प्रतिशत को अदालतों से सजा हो जाती है।
यहां का प्रतिशत सिर्फ 46 है।
वैसे उपाय यहां भी करने हांेगे ताकि सजा का प्रतिशत बढ़े।
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मुझे पहले लगता था कि यदि देश का प्रधान मंत्री खुद पैसे बनाने वाला नहीं हो या अपने लोगों को पैसे न बनाने दे तो देश भर के शासन तंत्र पर उसका सकारात्मक असर पड़ेगा।
पर, मोदी जी के राज में भी ऐसा नहीं हो सका।
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मोदी जैसा ईमानदार व लोकप्रिय नेता कोरोना संकट की पृष्ठभूमि में उपर्युक्त कड़े कदम यदि उठाए तो अधिकतर जनता उनकी वाहवाही करेगी।
पर क्या वे इस देश के भ्रष्टों यानी दीमकों पर सर्जिकल स्ट्राइक करने का साहस कर पाएंगे ?
  मोदी, किसी को बार-बार मौका नहीं मिलता।
यदि निर्णायक आप कदम नहीं उठाएंगे तो फिर इस देश में शीर्ष स्तर पर महा घोटालेबाज हावी हो जाएंगे।
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इस नारे को सार्थक करने का माकूल समय आ गया है कि ‘मोदी है तो मुमकिन है ?
----सुरेंद्र किशोर--7 मई 20

‘‘.....सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होने के तत्काल बाद 
जस्टिस दीपक गुप्त ने कहा कि 
‘‘देश का लीगल सिस्टम अमीरों और ताकतवरों 
के पक्ष में हो गया है।
.......जब कोई अमीर सलाखों के पीछे होता है 
तो कानून अपना काम तेजी से करता है।
लेकिन गरीबों के मुकदमों में देरी होती है।’’
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सुरेंद्र किशोर--9 मई 2020  

 पद्मश्री मिला हो तो 
उसे अपने नाम के 
साथ मत जोड़िए
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सुरेंद्र किशोर
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तेलुगु फिल्मी हस्तियों के प्रकरण सामने आने
के बावजूद देश में अनेक लोग अपने नाम के आगे या पीछे 
पद्मश्री शब्द जोड़ रहे हैं।
ऐसा करना नियम विरूद्ध है।
याद रहे कि 2013 में तेलुगु फिल्मों की हस्तियों मोहनबाबू और ब्रह्मानंदम का मामला आंध्र हाईकोर्ट में गया था।
उन पर आरोप था कि वे पद्मश्री शब्द अपने नामों के साथ जोड़ते हैं।
  23 दिसंबर, 2013 को हाईकोर्ट ने गृह मंत्रालय को निदेश दिया कि वह इनके पद्म पुरस्कार को वापस लेने के लिए राष्ट्रपति से सिफारिश करे।
 इन हस्तियों ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की।
सुप्रीम कोर्ट से कहा कि नियम की जानाकारी के अभाव में हम
ऐसा कर रहे थे।
अब अपने नाम के साथ पद्मश्री नहीं जोड़ेंगे।
हमने हाईकोर्ट से भी कह दिया है कि हमें मालूम नहीं था।
  इस पर सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश को स्थगित कर दिया।
   इस प्रकरण के बाद भी आज देश के अनेक महानुभाव अपने नाम के आगे या पीछे पद्मश्री जोड़ लेते हैं।
कुछ सज्जन तो अपने मकान के नेम प्लेट में भी ऐसा ही लिखवा लेते हैं।
अखबारों में उनके बयान और लेख भी कई बार पद्मश्री सहित उनके नाम के साथ छपते हैं।
  पद्म पुरस्कर से संबंधित नियम के अनुसार यह अवार्ड
कोई टाइटिल नहीं है।
इसलिए इसे अपने नाम के आगे या पीछे नहीं लगा सकते।
लेटरहेड, निमंत्रण पत्र, पोस्टर, किताब आदि में इसका इस्तेमाल नहीं कर सकते।
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पर सवाल है कि जब तक आप इस देश के दो -चार नियम भंग नहीं करेंगे ,तब तक आप बड़ा व प्रभावशाली व्यक्ति कैसे कहलाएंगे ?!!!!
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8 मई 2020 

   
  

शुक्रवार, 8 मई 2020

‘‘रियाज नाइकू की नियति तो उसी दिन तय हो गई 
जब उसने बंदूक उठाकर हिंसा और आतंक की राह चुनी थी।
उसकी मौत और अधिक लोगों को हिंसा के रास्ते पर लाने और विरोध -प्रदर्शन का पड़ाव बिल्कुल भी नहीं बननी चाहिए।
         ----- पूर्व मुख्य मंत्री उमर अब्दुल्ला
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रियाज नायकू हिजबुल कमांडर था।
उस पर सरकार ने 12 लाख रुपए का इनाम घोषित कर रखा था।
हिजबुल मुजाहिदीन हथियारों के बल पर कश्मीर में इस्लामिक शासन कायम करने की कोशिश में लगा है।
उसे पाकिस्तान की मदद हासिल है।
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इसके बावजूद
एक हिन्दुस्तानी विश्लेषणकत्र्ता निशांत वर्मा ने कल रियाज नायकू पर ‘टाइम्स नाउ’ में आयोजित चर्चा के दौरान कह दिया कि यहां तो यह हो रहा है कि किसी को भी गोली मार दो और उसे आतंकवादी बोल दो।
   इस पर एंकर राहुल शिवशंकर ने निशांत से माफी मांगने के लिए कहा।
पर, जब वर्मा ने माफी नहीं मांगी तो वर्मा की माइक डाउन कर दी गई।
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इन दिनों कई निजी इलेक्ट्रानिक चैनलों पर आने वालों में निशांत वर्मा जैसे विचार वालों की संख्या कम नहीं है।
अब सवाल यह है कि वर्मा जैसे लोगों को चैनल वाले बुलाते ही क्यों हैं ?
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बड़े -बड़े चैनलों पर वर्मा जैसे लोगों की ऐसी ही और इससे भी कड़ी टिप्पणियों से देश-विदेश के वैसे लोगों का हौसला बढ़ता है जो इस देश को नुकसान पहुंचाने के काम में लगे हुए हैं।
  इस तरह के बयान प्रिंट मीडिया में आम तौर पर नहीं छपते।
इसके लिए हमें प्रिंट मीडिया का शुक्रगुजार होना चाहिए। 
पर, दूसरी ओर कई निजी इलेक्ट्रानिक चैनलों को इस बात का अंदाजा ही नहीं है कि वे ऐसे लोगों को मंच देकर देश का जाने-अनजाने कितना नुकसान कर रहे हैं !
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--- सुरेंद्र किशोर - 7 मई 20


 ताजा गैस रिसाव ने बताई देश की पाइपलाइनों की निगरानी की जरूरत-सुरेंद्र किशोर 
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लगता है कि सन् 1984 की भोपाल गैस त्रासदी से भी हमने 
कम ही सबक सीखा है।
तब वहां उस कारण हजारों लोगों की जानें गई थीं।
 उसके असली गुनहगार को तौल कर सजा मिल गई होती तो 
बाद के वर्षों में कठोर सावधानी बरती जाती।
पर ऐसा नहीं हो सका।
नतीजतन बाद के वर्षों में भी ऐसी घटनाएं होती जा रही हैं।
ताजा दुःखद खबर विशाखापतनम से आई है।
  सतत निगरानी की कमी और कई अन्य तरह की असावधानियों के कारण ऐसी घटनाएं होती रही हैं।
  इससे मिलती -जुलती एक अन्य बात।
 हाल के वर्षों में बिहार सहित देश में गैस व तेल पाइपलाइनों का विस्तार हुआ है।
हो भी रहा है।
कई जगह पाइपलाइन घनी बस्तियों से गुजरती हैं।
 उन्हें किसी जानी-अनजानी  दुर्घटना से बचाने के लिए सतत निगरानी की जरूरत होगी। 
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  बिहार के प्रवासी मजदूरों
  के लिए अच्छी खबर
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बिहार सरकार ने राज्य में लौटे प्रवासी मजदूरों को काम पर लगाने के लिए बड़ी संख्या में योजनाएं बनाई हैं।
 बहुत अच्छी बात है।
पर, इससे भी अच्छी  बात यह होगी कि जो भी योजनाएं बनें,उनका ठीकठाक ढंग से कार्यान्वयन भी हो।
तभी मजदूरों व अंततः राज्य का भला होगा।
  योजनाएं तो पहले भी बनती रही हैं।
 किंतु उनके कार्यान्वयन को लेकर सवाल उठते रहे हैं।
सबसे बड़ी समस्या यह रहती है कि कार्यान्वयन की ईमानदार शासकीय निगरानी नहीं होती।
नतीजतन न तो उससे मजदूरों को पूरा लाभ मिल पाता और न ही लाभुक को।
वैसे थर्ड पार्टी निगरानी की जरूरत है।
  ऐसे में जरूरत इस बात की है कि नई योजनाओें को शुरू करने से  पहले पिछली योजनाओं के कार्यान्वयन को लेकर हुए कटु -मधु अनुभवों से भी दो-चार हुआ जाए।
उसके अनुभवों का लाभ नई योजनाओं के कार्यान्वयन में उठाया जाए। 
   कम से कम अब तो कार्यशैली में ठोस बदलाव आए !
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     कौशल को सम्मान
    मिलने का अवसर 
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 प्रवासी मजदूरों में से अनेक कुशल मजदूर भी हैं।
 वे अब बिहार में ही रहकर काम करना चाहते हैं।
उनके लिए यहीं और अनेक बेहतर अवसर उपलब्ध होने वाले हंै।
 इस राज्य के कई हिस्सों से यह सूचनाएं आती रहती हैं कि कुशल मजदूर उपलब्ध नहीं हैं। 
लोग अपेक्षाकृत कम कुशल मजदूरों से काम चला रहे हैं।
 मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने प्रवासी मजदूरों का कौशल सर्वेक्षण कराने निदेश दिया है। 
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     किसानों से मनरेगा को जोड़ने 
    से कम हांेगी अनियमितताएं 
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क्या मनरेगा मजदूरों को किसानों की खेती-बाड़ी से कभी 
जोड़ा जा सकेगा ?
क्या यह संभव हो पाएगा कि मजदूरगण खेती और खेती से 
जुड़े खादी जैसे उद्योग धंधों में काम करें ?
ऐसी मांग पहले से उठती रही  है।
उन्हें कुछ पैसे मनरेगा फंड से मिले और बाकी किसानों से मिले ?
  अभी यह शिकायत आ रही है कि मनरेगा के पैसों का कम ही सदुपयोग हो पा रहा है।
  कितना सदुपयोग हो रहा है ?
क्या इस बात की किसी प्रामाणिक एजेंसी से जांच कराई जाएगी ?
कोरोना विपत्ति के कारण देश-प्रदेश की अर्थ व्यवस्था को भारी चोट पहुंची है।
अब छोटे -बड़े घोटालेबाजों के खिलाफ सरकार को चाहिए कि वह ‘युद्ध’ छेड़ दे ताकि लूट में पहले की अपेक्षा अब तो कम पैसे जाया हों ! 
कोरोना के बाद के वर्षों में आर्थिक पुनर्जीवन व विकास के कामों के लिए भारी धनराशि की जरुरत पड़ेगी।
ऐसे में यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि सरकारी पैसों की अब पहले जैसी बंदरबांट न हो।
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   सरकारी योजनाओं की निगरानी 
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मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने कहा है कि जदयू कार्यकत्र्ता सरकारी योजनाओं की निगरानी करेंगे।
यह भी एक सामयिक पहल है।
खास कर सरकारी योजनाओं को अधिक से अधिक भ्रष्टाचारमुक्त बनाया जाना ही चाहिए।
 निगरानी भी राजनीतिक कार्यकत्र्ता करें जो गांव-गांव में फैले होते हैं।
घूसखोरों को पकड़वाने वालों को इनाम देने की घोषणा मुख्य मंत्री पहले ही कर चुके हैं।
  कोई दल यदि वैसे  ही कार्यकत्र्ताओं को चुनावी टिकट
दे या कोई अन्य पद देने पर विचार करे जिसने कम से कम दो रिश्वतखोरों को पकड़वाया हो तो शासन व राजनीति में फर्क आ सकता है।
  आज की राजनीति की जो हालत है,उसमें यह कठिन काम जरुर है।पर  संभव है कि अपने कैरियर को आगे बढ़ाने के लिए कुछ कार्यकत्र्ता  सख्ती से निगरानी करें।
  पंचायतों के चुनाव यदि दलगत आधार पर हो,तो भी फर्क पड़ेगा।क्योंकि 
पंचायतों के लिए चुने गए प्रतिनिधियों पर दल का अंकुश रहेगा।
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     और अंत में 
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बिहार सरकार के ग्रामीण विकास विभाग ने टाॅल फ्री नंबर जारी किया है।
इस नंबर पर मजदूर शिकायत कर सकता है।
यह कि उसे सरकारी योजनाओं में काम मांगने के बावजूद नहीं मिल रहा है।
   शासन यदि कहता है कि अब तक ऐसी शिकायत नहीं आई तो उसे उसके कारण का पता लगाना चाहिए।आखिर क्यों नहीं आई ?
  क्या मजदूर दबंगों के डर से शिकायत नहीं करते ?
यदि ऐसा है तो शासन को  चाहिए कि वह उसका निदान करे।
 याद रहे कि ग्रामीण इलाकों में मजदूरों के लिए आवाज उठाने वाली राजनीतिक शक्तियों की धीरे -धीरे कमी होती जा रही है।
इससे भी शासन की जिम्मेदारी बढ़ गई है।
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--कानोंकान,
प्रभात खबर,
पटना,8 मई 2020

बुधवार, 6 मई 2020

   
  लाॅकडाउन शब्द अब गांव-गांव में प्रचलित हो गया है।
यह शब्द अब अधपढ़ से लेकर अनपढ़ तक की जुबान पर है।
  ठीक इसी तरह अस्सी के दशक में बोफोर्स शब्द प्रचलित हुआ था।
उन दिनों तो सुदूर इलाकों में सड़कों के किनारे ‘बोफोर्स चाय’ भी मिलने लगी थी।
   अभी क्वारंटाइन और कंटेनमेंट शब्द प्रचलित नहीं हुए हैं।
  पर, ग्रीन जोन, आॅरेंज जोन और रेड जोन जरुर चर्चा में हैं।
याद रहे कि लाॅकडाउन से तो सब पीड़ित हैं,पर क्वारंटाइन और कंटेनमेंट 
का असर सब पर नहीं है। 
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--सुरेंद्र किशोर-5 मई 20