डा.नामवर सिंह की कुछ यादें
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डा.नामवर सिंह एक पत्रिका का समारंभ करने के
लिए पटना आए थे।
साथ में प्रभाष जोशी भी थे।
उस पत्रिका के प्रथम अंक में मैंने प्रभाष जोशी पर एक लेख लिखा था।
याद रहे कि जनसत्ता छोड़कर तब मैंने दैनिक हिन्दुस्तान ज्वाइन कर लिया था।
नामवर सिंह मेरा लेख पढ़ चुके थे।उन्होंने कहा कि ऐसा लेख किसी संवाददाता ने अपने संपादक के बारे में नहीं लिखा है।नामवर जी की यह टिप्पणी मेरे लिए महत्वपूर्ण थी।
इसी तरह की उनकी एक टिप्पणी मैंने हेमंत शर्मा के बारे में सुनी थी।हेमंत शर्मा जनसत्ता के लखनऊ संवाददाता थे।उन्होंने कहा था कि इन दिनों सबसे अच्छा गद्य कोई हिन्दी साहित्यकार नहीं बल्कि एक पत्रकार हेमंत शर्मा लिख रहे हैं।यानी नए लोगों को प्रोत्साहित करना कोई उनसे सीखे।
पटना में भी नामवर सिंह की 75 वीं जयती मनाई जा रही थी।प्रभाष जी ही आयोजक थे।
प्रभाष जी की शिकायत रहती थी कि मैं न तो किसी को खाने पर बुलाता हूं और न कहीं भोजन पर जाता हूंं।
उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा कि बड़े लोगों को घर बुलाने से आपके बच्चों में हीन भावना नहीं आएगी।
आप खाने पर बुलाइए। अब भला प्रभाष जी के आदेश को मैं कैसे ठुकरा सकता था।
मेरे आवास पर डा. नामवर सिंह, प्रभाष जोशी, चंद्र शेखर धर्माधिकारी तथा कुछ अन्य गणमान्य लोग आए।
मेरे निजी पुस्तकालय की सामग्री देख कर नामवर जी ने कहा कि सुरेंद्र जी, आपने तो हीरा संजो कर रखा है।
यह सुन कर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था !
मैंने पूछा कि इसका बेहतर इस्तेमाल कैसे हो सकेगा,यह सोच कर कभी बताइएगा।खैर उसका अवसर उन्हें न मिला।
डा.नामवर जी का मैं कोई खास करीबी तो नहीं हो सका था,पर उनकी याद आती रहती थी।उनके करीबी रहे अजित राय को दिल्ली फोन करके कभी-कभी मैं नामवर जी के स्वास्थ्य के बारे में पूछता रहता था।
टुकड़ों में कुछ घंटों की मुलाकातों से मुझे लगा कि वे एक स्नेहिल व्यक्ति हैं।अभिमानी कहीं से नहीं थे।अहंकारी तो बिलकुल नहीं।
साथ ही, ग्रामीण पृष्ठभूमि के होते हुए भी शहरियों के बीच समान रूप से सहज थे।
किसी भेंट वात्र्ता में उन्होंने एक बार कहा था कि मैं अपने पुत्र को अपनी गोद में खेलाने को तरस गया।क्योंकि गांव के संयुक्त परिवार में कोई अपने पुत्र को गोद नहीं लेता था।वह दूसरे के पुत्र को लेगा।उसके पुत्र को बच्चे के चचा या दादा खेलाएंगे।
नामवर जी जैसा अद्भुत वक्ता मैंने
नहीं देखा।आलोचक थे, पर किसी साहित्यकार से उनका कद ऊंचा था।
मुझे यह देख कर और भी अच्छा लगा कि वे अपने स्वास्थ्य के प्रति सतर्क थे।नाश्ते के साथ एक सेव लेते थे और भोजन के बाद वज्रासन पर बैठना नहीं भूलते थे।
वे बहुत याद आएंगे ।
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डा.नामवर सिंह एक पत्रिका का समारंभ करने के
लिए पटना आए थे।
साथ में प्रभाष जोशी भी थे।
उस पत्रिका के प्रथम अंक में मैंने प्रभाष जोशी पर एक लेख लिखा था।
याद रहे कि जनसत्ता छोड़कर तब मैंने दैनिक हिन्दुस्तान ज्वाइन कर लिया था।
नामवर सिंह मेरा लेख पढ़ चुके थे।उन्होंने कहा कि ऐसा लेख किसी संवाददाता ने अपने संपादक के बारे में नहीं लिखा है।नामवर जी की यह टिप्पणी मेरे लिए महत्वपूर्ण थी।
इसी तरह की उनकी एक टिप्पणी मैंने हेमंत शर्मा के बारे में सुनी थी।हेमंत शर्मा जनसत्ता के लखनऊ संवाददाता थे।उन्होंने कहा था कि इन दिनों सबसे अच्छा गद्य कोई हिन्दी साहित्यकार नहीं बल्कि एक पत्रकार हेमंत शर्मा लिख रहे हैं।यानी नए लोगों को प्रोत्साहित करना कोई उनसे सीखे।
पटना में भी नामवर सिंह की 75 वीं जयती मनाई जा रही थी।प्रभाष जी ही आयोजक थे।
प्रभाष जी की शिकायत रहती थी कि मैं न तो किसी को खाने पर बुलाता हूं और न कहीं भोजन पर जाता हूंं।
उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा कि बड़े लोगों को घर बुलाने से आपके बच्चों में हीन भावना नहीं आएगी।
आप खाने पर बुलाइए। अब भला प्रभाष जी के आदेश को मैं कैसे ठुकरा सकता था।
मेरे आवास पर डा. नामवर सिंह, प्रभाष जोशी, चंद्र शेखर धर्माधिकारी तथा कुछ अन्य गणमान्य लोग आए।
मेरे निजी पुस्तकालय की सामग्री देख कर नामवर जी ने कहा कि सुरेंद्र जी, आपने तो हीरा संजो कर रखा है।
यह सुन कर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था !
मैंने पूछा कि इसका बेहतर इस्तेमाल कैसे हो सकेगा,यह सोच कर कभी बताइएगा।खैर उसका अवसर उन्हें न मिला।
डा.नामवर जी का मैं कोई खास करीबी तो नहीं हो सका था,पर उनकी याद आती रहती थी।उनके करीबी रहे अजित राय को दिल्ली फोन करके कभी-कभी मैं नामवर जी के स्वास्थ्य के बारे में पूछता रहता था।
टुकड़ों में कुछ घंटों की मुलाकातों से मुझे लगा कि वे एक स्नेहिल व्यक्ति हैं।अभिमानी कहीं से नहीं थे।अहंकारी तो बिलकुल नहीं।
साथ ही, ग्रामीण पृष्ठभूमि के होते हुए भी शहरियों के बीच समान रूप से सहज थे।
किसी भेंट वात्र्ता में उन्होंने एक बार कहा था कि मैं अपने पुत्र को अपनी गोद में खेलाने को तरस गया।क्योंकि गांव के संयुक्त परिवार में कोई अपने पुत्र को गोद नहीं लेता था।वह दूसरे के पुत्र को लेगा।उसके पुत्र को बच्चे के चचा या दादा खेलाएंगे।
नामवर जी जैसा अद्भुत वक्ता मैंने
नहीं देखा।आलोचक थे, पर किसी साहित्यकार से उनका कद ऊंचा था।
मुझे यह देख कर और भी अच्छा लगा कि वे अपने स्वास्थ्य के प्रति सतर्क थे।नाश्ते के साथ एक सेव लेते थे और भोजन के बाद वज्रासन पर बैठना नहीं भूलते थे।
वे बहुत याद आएंगे ।
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