रविवार, 3 फ़रवरी 2019

- बेहतर कानून-व्यवस्था के लिए नये डी.जी.पी.से लोगों की बड़ी उम्मीदें-


उम्मीद है कि नए डी.जी.पी.के कार्यकाल में बिहार के शांतिप्रिय लोगों को बेहतर कानून-व्यवस्था उपलब्ध होगी।
पिछले कुछ महीनों की व्यवस्था से तो मुख्य मंत्री भी चिंतित रहे हंै।उन्होंने एकाधिक बार कानून -व्यवस्था सुधारने का निदेश पुलिस प्रमुख को दिया था।
पर, फर्क नहीं पड़ा।
 क्यों नहीं पड़ा,इसकी खुफिया जांच होनी चाहिए ताकि आगे उससे शिक्षा ली जा सके।
खैर, अभी तो नए पुलिस प्रमुख से उम्मीदों की बात है।
इस बीच सेंट्रल रेंज के डी.आई.जी.ने पुलिस बल की कमी की कृत्रिम समस्या का  समाधान ढूंढा है।
तय किया गया है कि पटना के कुल नौ हजार जवानों को 12 सौ सेक्शन में बांट दिया जाएगा।
इससे अब तक ‘अदृश्य’ पुलिसकर्मी  भी
ड्यूटी पर दृश्यमान होेंगे।होना पड़ेगा।
नए डी.जी.पी.को चाहिए कि वे पूरे राज्य में भी ऐसी ही व्यवस्था कराएं ।
 पूरे राज्य में ट्रैफिक अराजकता है।यह लोगों की नाक में दम किए हुए है।
कई जगह अतिक्रमणों के कारण ऐसा है तो कई अन्य जगह कुछ अन्य कारणों से ।
 सबसे बड़ा कारण व्यापक घूसखोरी है।
जब एक चोर-डकैत  देखता है कि पटना तथा अन्य नगरों में खुलेआम रिश्वत देकर कुछ लोग रोज ही कानून तोड़ रहे हैं तो उन्हें भी चोरी,डकैती हत्या करने की अघोषित छूट मिल जाती है।
उन्हें लगता है कि पैसों और पैरवी के बल पर कुछ भी किया जा सकता है।
ऐसी स्थिति से राज्य को उबारने की एक बड़ी जिम्मेदारी पुलिए महकमे के शीर्ष नेता की बनती है।हालांकि अन्य संबंधित लोग भी ऐसी जिम्मेवारी से बच नहीं सकते।यह अच्छी बात है कि पटना हाईकोर्ट प्रादेशिक राजधानी की ट्रैफिक अराजकता को समाप्त करने के लिए प्रयत्नशील है।  --अदालती निर्णयों को राजनीतिक रंग-- 
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि ‘जब भी किसी राजनीतिक मसले पर किसी भी पक्ष में निर्णय आता है तो विवेकहीन व्यक्तियों या
वकीलोें द्वारा उसे राजनीतिक रंग दे दिया जाता है।
ऐसा करने से आम लोगों के मन में न्याय -व्यवस्था के प्रति भरोसा कम होता है।
किसी जज के खिलाफ उचित शिकायत के लिए व्यवस्था बनी हुई है।वहां शिकायत की जानी चाहिए।
 राजनीतिक रंग और गलत आरोपों के जरिए न्यायपालिका की छवि को खराब करने की किसी को भी इजाजत नहीं दी जा सकती।’
  सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी सामयिक है।
न्यायपालिका के खिलाफ छिटपुट ढंग से लगभग पूरे देश में यही हो रहा है।
तब ऐसी टिप्पणियां आए दिन की जाती रही हैं जब किसी नेता को सजा मिलती है।
सार्वजनिक रूप से आरोप लगाया जाता है कि 
साजिश करके फलां नेता को सजा दिलवा दी गई।
आशय यह होता है कि साजिश में न्यायपालिका का भी हाथ है।
 कभी -कभी तो संबंधित जज की जाति की भी चर्चा सार्वजनिक रूप से की जाती है।
 यदि लोअर कोर्ट के किसी जज से किसी फैसले में चूक होती है तो ऊपर की अदालत में अपील का कानूनी हक  हासिल है।यदि किसी जज के खिलाफ कोई खास शिकायत के सबूत हांे तो उसके निराकरण के भी उपाय हैं।
पर यूं ही ऐसे न्यायापालिका को बदनाम कर देने की  छूट किसी को नहीं मिलनी चाहिए।या तो सरकार इस संबंध में कठोर कानून बनाए या फिर सुप्रीम कोर्ट कोई सख्त कदम उठाए।    
   --राजद्रोह पर 1962 का  जजमेंट-- 
केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट का
एक ऐतिहासिक निर्णय 1962 में आया था।
अदालत ने कहा था कि ‘सरकार पर सिर्फ कड़ा शब्द प्रहार राजद्रोह नहीं है ।हां,यदि शब्द प्रहार के परिणामस्वरूप हिंसा हो जाए तो उसे राजद्रोह माना जा सकता है।’
  याद रहे कि केदारनाथ सिंह पर राजद्रोह का आरोप लगा था।
पर उनके भाषण से कहीं हिंसा नहीं हुई थी।
  अब बदली हुई स्थिति में आज इस देश में जो कुछ हो रहा है,उसकी तुलना केदार सिंह प्रकरण  से की जा सकती है ?
  आज तो शहरी नक्सली खुलेआम हिंसा को उचित ठहरा रहे हैं और छत्तीस गढ़ के जंगलों में सक्रिय उनके माओवादी साथी वास्तव में हिंसा कर रहे हैं।
  विश्वविद्यालयों के परिसरों में कश्मीरी अतिवादियों के समर्थक गण ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे ’ और ‘घर -घर अफजल पैदा होगा’ के नारे लगा रहे हैं और उधर उनसे जुड़े कश्मीरी आतंकी घाटी में भीषण  हिंसा कर रहे  हैं।क्या इन लोगों पर 1962 का जजमेंट लागू होता है ?
नहीं लागू होता है।यदि किसी को यह गलतफहमी है कि लागू होता है तो उन्हें सुप्रीम कोर्ट से आग्रह करना चाहिए कि इस बारे में स्थिति क्या है ? क्या माना जाए ?
    --जेल में आई.ए.एस.--
बिहार काॅडर के पूर्व आई.ए.एस अफसर बी.के. सिंह को सी.बी.आई.कोर्ट ने तीन साल की सजा दी है।
भ्रष्टाचार के आरोप में सी.बी.आई.ने 1986 में उनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की थी।
करीब तीन दशक  बाद लोअर कोर्ट से यह निर्णय आया है।
ठीक ही कहा जाता है कि ‘देर से हुए मिले न्याय को न्याय नहीं कहते।’
खैर इस बहाने इस अफसर की गिरफ्तारी के समय की एक कहानी याद आ गई।
जब बी.के.सिंह को बांकी पुर जेल भेजा गया था तो वहां के अधीक्षक ने उन्हें ऐसी-ऐसी सुविधाएं भी मुहैया करा दीं जिसके वे हकदार नहीं थे।
इतना ही नहीं, अधीक्षक ने उन सुविधाओं का जिक्र करते हुए 
तब के जेल आई.जी. सुरेन्द्र प्रताप सिंह को चिट्ठी लिख दी।
 लगा था कि जेल आई.जी.खुश होंगे।शाबासी देंगे।
पर दिवंगत  सुरेन्द्र बाबू कुछ दूसरे ही तरह के अफसर थे।उन्होंने अधीक्षक को कारण बताओ नोटिस भेजा कि आपने  जेल मैनुअल के प्रावधानों का उलंघन करते हुए ऐसा क्यों किया ?
अधीक्षक की हालत पतली हो गई।
पता नहीं, उसका अंततः क्या हुआ ! पर बेचारा अधीक्षक भी क्या करता ?
उससे ठीक पहले कमिश्नर रैंक के ही एक अन्य अफसर उसी जेल में गए थे।
उन्होंने दबाव डाल कर अपने लिए ‘हर तरह’ की सुविधा का प्रबंध करवा लिया था।हर तरह की सुविधा यानी सचमुच  मतलब हर की ।घर से भी बेहतर।
अधीक्षक को लगा कि बी.के.सिंह के लिए प्रबंध आखिर करना
ही पड़ेगा तो पहले से ही कर दिया जाए।
काश ! सुरेन्द्र प्रताप सिंह जैसे जेल आई.जी.बिहार सहित पूरे देश में होते !  
--भूली बिसरी याद--
25 जून, 1975 को देश में आपातकाल लग जाने के बाद अपने लोग भी किस तरह अचानक बदल गए थे,उसका विवरण जार्ज फर्नांडिस के शब्दों में।तब वे ओडि़शा में थे।
जार्ज ने बताया था,‘मैंने उससे कहा कि मेरे लिए एक कार का इंतजाम कर दो।दो दिन पहले तक मेरे आगे -पीछे दौड़ने वाले शहर के सब राजनीतिक नेता ,बड़ी -बड़ी दो -दो मोटरें रखने वाले ,जो 26 तारीख की सुबह में हमें अपने -अपने घर ले जाकर चाय पानी देने के लिए होड़ कर रहे थे ,उनमें से हरेक ने हमें गाड़ी देने से इनकार कर दिया।
कहा कि अब स्थिति बदल गयी है।लेेकिन एक आदमी ने टैक्सी किराए पर करा के दी।’
 जो कुछ जार्ज के साथ हुआ,वही पूरे देश में अन्य नेताओं व राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं के साथ भी तब हुआ था।
 अब जार्ज का तब का अनुभव सुनिए जब वे ओडि़शा से एक मछुआरे की पोशाक में बस से कलकत्ता पहुंचे थे।
 ‘हावड़ा स्टेशन से टैक्सी करके एक मित्र के यहां गया।
जो बहुत ही डरे हुए थे।मुझे देखकर वे परेशान हो गए।उन्होंने बताया कि पुलिस तीन दिन से हमारे घर रोज आ रही है  -तुमको खोजने।मैंने कहा तो ठीक है,कुछ इंतजाम कर दो।उन्होंने इंतजाम कर दिया।
--और अंत में--
बड़ौदा डायनामाइट मुकदमे के आरोपी के रूप में रेलवे यूनियन नेता महेन्द्र नारायण वाजपेयी महीनों तक जार्ज के साथ जेल में बंद थे।इस केस में जेल में वे बिहार से अकेले आरोपी थे।
फिर भी उन्हें बिहार जेपी सेनानी पेंशन का हकदार नहीं माना गया। क्या जार्ज फर्नांडिस का आपात विरोधी अभियान जेपी आंदोलन का हिस्सा नहीं था ?
@-मेरा यह काॅलम कानोंकान 1 फरवरी, 2019 के प्रभात खबर-बिहार-में प्रकाशित@




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