रविवार, 12 अगस्त 2018

मुजफ्फर पुर कांड में सार्थक परिणाम तभी, जब अदालतें जांच पर नजर रखें



   पटना हाई कोर्ट की निगरानी के कारण अब यह उम्मीद बनी है कि  मुजफ्फर पुर बालिका अल्पावास गृह यौन हिंसा कांड का  कोई आरोपित बचेगा नहीं।
 सी.बी.आई. उन्हें उसी तरह  अदालत के कठघरे तक पहुंचा देगी जिस तरह चारा घोटाले में हो रहा है।
  पर मुजफ्फर पुर के महा पाप की कहानियां पढ़ने-सुनने के बाद  साफ हो गया है कि यह सरकारी सिस्टम की  विफलता का स्पष्ट नतीजा हैं।यह अधिक गंभीर बात है।
सिस्टम की ऐसी ही विफलता वाले चारा घोटाले की सी.बी.आई.जांच पटना हाई कोर्ट  के आदेश के कारण ही संभव हो सकी थी।जांच पर तब अदालत की सतत  निगरानी भी रही।
नतीजतन दो पूर्व मुख्य मंत्रियों सहित अनेक महारथि नेता,अफसर और व्यापारी सजायाफ्ता हुए।
बालिका अल्पावास गृह यौन हिंसा कांड के अनुभव से सीख कर राज्य सरकार को चाहिए कि वह जनता से सीधे जुड़े कुछ अन्य विभागों की भी इसी तरह की सोशल आॅडिट कराए।अन्य जगहों से भी चैंकाने वाली जानकारियां मिल सकती हैं।
अगर इस देश में कभी पुलिस थानों की सोशल आॅडिट संभव हो पायी तब तो भूकम्प ही आ जाएगा।
 याद रहे कि बिहार सरकार ने मुम्बई के नामी संस्थान ‘टिस’ यानी टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल साइंस की टीम से अल्पावास गृहों की जांच कराई थी।
  टिस एक ऐसा गर्व करने वाला संस्थान है जहां के अधिकतर छात्र समाज सेवा की भावना से ओतप्रोत होकर निकलते हैं।मेरा उसका व्यक्तिगत अनुभव भी है।
राज्य सरकार यदि उस  संस्थान की टीम से कुछ अन्य महत्वपूर्ण विभागों के कार्यकलाप की सोशल आॅडिट कराए तो 
राज्य का कल्याण होगा।
  बिहार सरकार की विडंबना यह है कि देश के अधिकतर राज्यों की तरह ही यहां के सिस्टम के रग -रग  में भी भष्टाचार लिप्त हो चुका है।
ईमानदार मंशा वाला कोई मुख्य मंत्री भी उस सिस्टम के सामने लाचार हो जाता है।
एक बार एक मुख्य मंत्री ने मुझसे कहा था कि  भ्रष्टाचार कम करने के लिए आई.ए.एस.अफसरों को भ्रष्टाचार के प्रति शून्य सहनशीलता का रुख अपनाना होगा।पर ऐसा हो नहीं पा रहा है ।क्योंकि यहां आई.ए.एस.अफसरों की संख्या बहुत कम है और मलाईदार पोस्ट अधिक है।
इसलिए तबादला कोई सजा नहीं है।हालांकि सभी अफसर एक जैसे नहीं हैं।
  आज सरकारी सिस्टम में भरोसा बहुत कम लोगों को रह गया है।
   हां, यदि मुजफ्फर पुर बालिका गृह यौन हिंसा कांड के दोषियों को सचमुच उनके असली मुकाम तक पहुंचा देना संभव हो पाया तो  सिस्टम में विश्वास की बहाली की प्रक्रिया शुरू हो सकती है।
मंत्री स्तर पर सांठगांठ की हालत यह है कि मुजफ्फर पुर कांड में राज्य की समाज कल्याण मंत्री मंजू देवी को अपने पद से इस्तीफा तक देना पड़ा।
 मंजू देवी ने कहा था कि उनके पति का मुजफ्फर पुर कांड के मुख्य आरोपी ब्रजेश ठाकुर से कोई संबंध नहीं रहा है।वे सिर्फ एक बार मेरे साथ मुजफ्फर पुर गए थे।
पर अब यह पता चल रहा है कि न सिर्फ मंजू देवी के पति ने ब्रजेश ठाकुर से 17 बार फोन पर बातचीत की,बल्कि वे 9 बार मुजफ्फर पुर की यात्रा कर चुके हैं।
 इतना ही नहीं,समाज कल्याण विभाग के एक बड़े अफसर ने पहले तो कह दिया था कि ‘टिस’ की रपट में यौन हिंसा की कोई चर्चा नहीं है।पर बाद में पता चला कि वैसी चर्चा उस रपट में मौजूद है।
 अब जो बातें खुल कर सामने आ रही हैं,उनके अनुसार लगभग  पूरे शासन तंत्र के संबंधित लोगों  ने मुजफ्फर पुर अल्पावास गृह  के संचालक को उसके जघन्य कार्यों में सहयोग किया या जानबूझ कर अनदेखी की।अल्पावास गृह की 44 में से 34 लड़कियों  के साथ लगातार बलात्कार हो,पड़ोसी भी उनकी चीख- पुकार सुन लें,पर प्रशासन की नींद न टूटे तो इसे सिस्टम की विफलता नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे।जबकि संबंधित अफसर निरीक्षण की कागजी खानापूरी भी करते रहे।
मिली जानकारियों के अनुसार अनेक संबंधित सत्ताधारी नेताओं,अफसरों,कर्मचारियों को बस  उसकी एक ‘कीमत’ चाहिए थी जो उन्हें मिलती गयी।तरह -तरह की कीमतें।घूसखोरी तो प्रमुख हथकंडा रहा ही।
 मुजफ्फर पुर  कांड की जांच की अदालती निगरानी से वैसी ही उम्मीद बंधती है जैसी चारा घाटाले में बंधी थी।पूरी भी हुई।
 चारा घोटाले मंे ंअदालत की निगरानी के कारण ही सी.बी.आई. तब के प्रधान मंत्री के दबाव को भी नजरअंदाज कर सकी थी।
तब के सी.बी.आई. निदेशक जोगिंदर सिंह पर जब  तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदर कुमार गुजराल ने आरोपितों को बचाने के लिए दबाव डाला तो .निदेशक ने यही बात लिखित रूप से देने का प्रधान मंत्री से आग्रह कर दिया।
उस पर  प्रधान मंत्री पीछे हट गए थे।दोनों अदालत से डर रहे थे।
मुजफ्फर पुर कांड की जांच के सिलसिले में यह कहानी दुहरायी जा सकती है ,यदि ऐसी कोई कोशिश होगी तो।
याद रहे कि ब्रजेश ठाकुर की गिरफ्तारी के तत्काल बाद से ही बड़े -बड़े नेताओं के फोन अफसरों के यहां जाने लगे थे।
  याद रहे कि बिहार के ही श्वेत निशा त्रिवेदी उर्फ बाॅबी हत्या कांड@1983@और ललित नारायण मिश्र हत्याकांड के मामलों में अदालती निगरानी नहीं थी।इसलिए सी.बी.आई.ने उन मामलों में आरोपितों को बचाने के लिए सफलतापूर्वक गलत मोड़ दे दिया।बचाने के लिए उच्चस्तरीय दबाव जो था !
  भागल पुर के ताजा चर्चित सृजन घोटाले की जांच में भी सी.बी.आई. तीन प्रमुख आरोपियों को गिरफ्तार नहीं कर पाई है।इस मामले में भी अदालती निगरानी होती तो बात कुछ और होती।
@ 12 अगस्त, 2018 के हस्तक्षेप-राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित मेरा लेख@



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