शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

समस्याओं की जड़ बनी सांसद निधि




  सांसद क्षेत्र विकास निधि ने इस देश की राजनीति और प्रशासन को जितना प्रदूषित और बदनाम किया है,उतना शायद किसी अन्य एक तत्व ने नहीं किया।
इसने राजनीति व प्रशासन की रही -सही नैतिक धाक भी समाप्त कर दी है।
  नरेंद्र मोदी  अपने अब तक के  कार्यकाल में भ्रष्टाचार के एक -एक गढ़ को खोज- खोज कर ध्वस्त करने की भरपूर कोशिश करते रहे।कुछ मामलों में उन्हें सफलता भी मिली है।पर आश्चर्य है कि प्रधान मंत्री का ध्यान भ्रष्टाचार के इस ‘रावणी अमृत कुंड’ की गंम्भीरता की ओर नहीं गया।
या फिर वे भी समझते हैं कि सांसद फंड समाप्त करना उनके वश की बात नहीं है ? याद रहे कि समाप्ति की मांग के बावजूद अब तक कोई प्रधान मंत्री यह काम नहीं कर सके।
 वीरप्पा मोइली के नेतृत्व वाली प्रशासनिक सुधार समिति से लेकर अनेक हस्तियों ने इसे समाप्त करने की सिफारिश की है।मोइली कमेटी की रपट 11 साल पहले आ चुकी है।
  करीब दो दशक पहले तत्कालीन प्रधान मंत्री ं अटल बिहारी वाजपेयी  इसे समाप्त करने की तैयारी ही कर रहे थे कि वे अंततः कुछ सत्ताधारी सांसदों के दबाव में आकर उन्होंने अपने पैर खींच लिए।बल्कि उन्होंने  एक करोड़ रुपए सालाना से बढ़ा कर 2003 में सांसद क्षेत्र विकास फंड की राशि को दो करोड़ रुपए  कर दिया।
   जब यह राशि बढ़ाई जा रही थी तब मन मोहन सिंह  राज्य सभा में प्रतिपक्ष के नेता थे।
श्री सिंह ने इसका कड़ा विरोध करते हुए प्रधान मंत्री से कहा  ‘यदि आप चीजों को इस तरह होने दीजिएगा तो जनता नेताओं और लोकतंत्र में विश्वास खो देगी।’
  पर, जब खुद मन मोहन सिंह  प्रधान मंत्री बने तो उन्होंने  2011 में 2 करोड़ रुपए सालाना से बढ़ा कर पांच करोड़ रुपए कर दिए।
 अब नरेंद्र मोदी के शासन काल में अधिकतर सांसद चाहते हैं कि  इस राशि को बढ़ाकर 50 करोड़ रुपए  कर दिया जाए ।इसे   सांसद आदर्श ग्राम योजना में भी लगाने की सुविधा मिले।यदि ऐसा हुआ तो आदर्श ग्राम योजना को 
कार्यान्वित करने में सुविधा होगी।
मोदी सरकार ने अब तक इस मांग को स्वीकार नहीं किया है।पर प्रधान मंत्री सांसद फंड के खर्चे की ‘थर्ड पार्टी आॅडिट’ कराने की अपनी घोषणा को लागू नहीं कर पा रहे हंै।
  कहते हैं कि इस फंड की ताकत इतनी अधिक है कि इसके सामने बड़े -बड़े लोग पस्त हो जाते हैं।
पर कई लोगों को नरेंद्र मोदी में वह हिम्मत जरूर दिखाई पड़ रही है जो शायद जरूरत पड़ने पर पहाड़ से भी टकरा जाए।
पता नहीं उन्हें इस मामले में उनकी ‘हनुमानी ताकत’ का भान कौन कराएगा !
 इस फंड के संस्थागत घोटाले से संबंधित हाल का एक वाकाया इस प्रकार है।
बिहार के एक ईमानदार सांसद  हाल में अपने चुनाव क्षेत्र में इस फंड से हो रहे निर्माण का जायजा ले रहे थे।इंजीनियर भी साथ मेें था।घटिया निर्माण होते देख जब संासद ने इंजीनियर को डांटा तो उसने कहा कि ‘मैं क्या करूं सर ?
आप नहीं लेते,पर 30 प्रतिशत कमीशन तो आॅफिस ही ले लेता है।
 उसके बाद तो निर्माण ऐसा ही हो सकता है।’
 ईमानदार सांसद ने जो मंत्री भी हैं ,उस इंजीनियर के खिलाफ केस कर दिया है।
 यानी जिस क्षेत्र का सांसद अपना भी कमीशन ले लेता है,उस क्षेत्र में सांसद फंड की गुणवत्ता का अनुमान लगाया जा सकता है।
 हां, कुछ थोड़े से ईमानदार सांसद इस फंड के इस्तेमाल का अलग व बेहतर रास्ता निकाल लेते हैं।एक राज्य सभा सदस्य ने अपना पूरा फंड एक विश्व विद्यालय को दे दिया।अटल सरकार के एक मंत्री आई.आई.टी, कान पुर को दे देते थे।पर ये दोनों राज्य सभा में रहे।
  पर, सब तो वैसे नहीं हैं।लोकसभा वाले को तो अपने क्षेत्र में ही खर्च करना है।
 कई साल पहले समाजवादी पार्टी के एक राज्य सभा सदस्य की सदस्यता इसलिए समाप्त कर दी गयी क्योंकि सांसद फंड से घूस लेने का उन पर आरोप साबित हो गया था।वह  अब भाजपा सासंद  हैं।
 दरअसल सासंद फंड को जिला स्तर का कोई जूनियर आई.ए.एस.अफसर नियंत्रित करता है।
 अपवादों को छोड़ दें तो उसके आॅफिस का कमीशन तय रहता है।
यानी अपने सेवा काल के आरम्भिक वर्षों से ही उसे रिश्वखोरी की लत पड़ जाती है।
उसे ऐसा करने के लिए  अधिकतर सांसद भी मजबूर कर देते हैं।
इसमें अपवाद भी है,पर वे बहुत कम हैं।
इस तरह आई.ए.एस.के लिए यह फंड भ्रष्टाचार की पाठशाला साबित होता है।
  दूसरी ओर इन दिनों देश के अधिकतर हिस्सों में फंड के ठेकदार ही सांसद के लिए राजनीतिक कार्यकत्र्ता की भूमिका भी निभाते हैं।
यानी यह फंड प्रशासन व राजनीति को एक साथ प्रदूषित करता है। 
एक बड़े भाजपा नेता ने कई साल पहले इन पंक्तियों के लेखक को बताया था कि संघ से भाजपा में आए कुछ कार्यकत्र्ता भी सांसद फंड के ठेकेदार बन गए हैं।पहले उनसे हमारा संबंध सेवा व सार्वजनिक हित का था।अब उनकी आंखों में वाणिज्य नजर आता है।
 यानी जब भाजपा का यह हाल है तो अन्य दलों का अनुमान लगा सकते हैं।
जो सांसद अपने फंड में  कमीशन लेता है,वह सरकार के दूसरे अंगों में हो रहे रोज ब रोज के भ्रष्टाचारों पर कैसे नजर रख सकेगा ? 
यानी समय रहते देश की राजनीति की देह से इस कोढ़ को नरेंद्र मोदी सरकार समाप्त नहीं करेगी तो शासन के अन्य क्षेत्रों से भ्रष्टाचार को हटाने का उनका प्रयास भी अधूरा ही रह जाएगा।
दरअसल इस फंड की शुरूआत का उद्देश्य ही दूषित लगा था।  
1993 में यह फंड शुरू किया गया।
उसी साल  वकील राम जेठमलानी ने तत्कालीन प्रधान मंत्री पी.वी.नरसिंह राव पर यह आरोप लगाया था कि उन्होंने शेयर दलाल हर्षद मेहता से 
एक करोड़ रुपए  लिए।
संभवतः प्रधान मंत्री को किसी ने यह सलाह दी कि आरोप आप पर लग ही गया तो आप सासंदों के लिए भी ऐसा कुछ कर दीजिए।वैसे भी आपकी सरकार अल्पमत में है।इससे आरोप व्यापक हो जाएगा।
   सांसद क्षेत्र विकास फंड का प्रावधान करने का काम त्वरित गति से हुआ।
माकपा के सासंद निर्मलकांत मुखर्जी के विरोध के बीच संयुक्त संसदीय समिति की अंतरिम रपट सदन में 2 दिसंबर 1993 को 3 बजकर 43 मिनट पर पेश की गयी।
सरकार ने 5 बज कर 50 मिनट पर यह घोषणा कर दी कि एक करोड़ रुपए के विकास फंड के प्रस्ताव को सरकार स्वीकार करती है।
 मुखर्जी ने कहा था कि हमने तो ऐसी कोई मांग नहीं की थी।
  जब यह सब हो रहा था ,उस समय वित्त मंत्री मन मोहन सिंह विदेश के दौरे पर थे।वे इस तरह के फंड के खिलाफ थे।
 बाद में मन मोहन सिंह ने  कहा भी था यदि मेरा वश चलता मैं ऐसा नहीं होने देता।
  इस फंड को लेकर समय -समय पर अदालतें और सी.ए.जी. प्रतिकूल टिप्पणियां करती रही हैं।
बिहार में आम चुनाव हारने के बाद लालू प्रसाद ने कहा था कि सांसद-विधायक फंड ने हमें हरा दिया।
 दरअसल राजनीतिक ताकत हासिल किए ठेकेदारों की आपसी प्रतिद्वंद्विता कई बार नेताओं पर भारी पड़ती है।नेता दुविधा में पड़ जाता है कि फंड दो में से किस ठेकेदार को दें।कई बार इस द्वंद्व में फंड का उपयोग ही नहीं हो पाता।
 ं, फंड की अधिकांश राशि सरकारी अफसरों, जन प्रतिनिधियों ,ठेकदारों और बिचैलियों की जेबों में चली जानी है।उसको लेकर अक्सर खींचतान होती है।कई बार हिंसा भी हो जाती है।
 यदि चाहें भी तो उनकी जेब में जाने से रोकना आज  किसी शासन या सांसद के लिए संभव नहीं हो पा रहा है।इसलिए अधिकतर नेता  अब रोकना ही नंहीं चाहते हैं।
  पर इस तरह लूट बढ़ती जा रही है और साथ ही प्रशासन-राजनीति में उसी अनुपात में गिरावट भी।यदि इसे नरेंद्र मोदी नहीं रोक पाएंगे तो कोई अन्य नहीं रोक सकता।
 यदि केंद्र सरकार  इस फंड की बुराइयों की गम्भीरता की सोशल आॅडिट कराएगी तो उसे चैंकाने वाले नतीजे मिल सकते हैं।
 उसे देख कर इस फंड की समाप्ति का निर्णय जन सेवा की मंशा वाला कोई भी सरकार तुरंत ही कर देगी,ऐसी उम्मीद की जा सकती है।
@ मेरे इस लेख का संपादित अंश 31 अगस्त, 2018 के दैनिक जागरण में प्रकाशित@
पुनश्चः-ताजा खबर के अनुसार एम.पी.फंड के 12 हजार करोड़ रुपए का उपयोग ही नहीं हो सका है।
यदि इसके असली कारण का पता लगाया जाए तो इस फंड में व्याप्त अनियमितताओं का और भी 
खुलासा हो जाएगा।

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