मंगलवार, 7 अगस्त 2018

क्या लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराने के काम को ‘भारतीय संघवाद के बुनियादी ढांचे के खिलाफ’ माना जाना चाहिए ?
क्या जवाहर लाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी तक 1952 से 1967 तक देश के फेडरल ढांचे की जड़ में मट्ठा डाल रहे थे ?
  यदि लाॅ कमीशन को हाल में कांग्रेस के शिष्टमंडल ने जो बातें कही हैं,उनसे तो यही लगता है कि कांग्रेस अपने पूर्ववर्ती प्रधान मंत्रियों पर ही प्रकारांतर से  टिप्पणी कर रही है।
दैनिक ‘हिन्दू’ के अनुसार शिष्टमंडल ने जिसमें खगडे जी से लेकर कपिल सिब्बल तक थे, यह भी कहा कि विधान सभाओं के कार्यकाल घटाना या बढ़ाना संविधान की बुनियादी ढांचे के खिलाफ है।आपको याद है कि भूतकाल में कांग्रेस ने कितनी विधान सभाओं का कार्यकाल कितनी बार घटाया ?
वह याद न हो तो यह तो याद होगा ही कि इंदिरा सरकार ने 1976 में लोक सभा का कार्यकाल बढ़ा दिया था।
अपनी सुविधा के अनुसार तर्क गढ़ने का काम सिर्फ कांग्रेस ही नहीं करती।लगभग सभी दल इस देश में समय -समय पर करते रहते  हैं।राजनीति और राजनेताओं की साख ऐसे ही नहीं गिरती जा रही है।
  जब भाजपा प्रतिपक्ष में  थी तो संसद में हंगामा करके उसे ठप कराना लोकतांत्रिक प्रक्रिया  का हिस्सा मानती थी। और,सत्ता में आने के बाद वह अब इसको लेकर प्रतिपक्ष को कोसती है।

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