बुधवार, 8 अगस्त 2018

बरसात देती है टाउन प्लानिंग की गड़ बडि़यां समझने का मौका


बरसात बता देती है कि टाउन प्लानरों  की दूरदर्शिता कितने पानी में है।
अन्य किस शहर की बात करें, हर बरसात में मुम्बई जैसे महा नगर की हालत भी दयनीय हो जाती है।
पर हम हैं कि कोई सबक सीखने को तैयार ही नहीं हैं।
पटना तथा बिहार के अन्य अधिकतर शहरों के विकास की शैली को भी बरसात बेनकाब कर देती है।जिसने जहां चाहा ,घर बना लिया।कहीं सड़क का अतिक्रमण हुआ तो कहीं नालों का।
 नालियों और सड़कों के निर्माण की गुणवत्ता की सच्चाई भी सबके सामने होती है।
 बरसात में भ्रष्टाचार की भी बू आने लगती है।
फिर भी हर बरसात के बाद हम सब कुछ भूल जाते हैं।
 समस्या नगर निकायों और सरकार के बीच तालमेल की भी आती है।वैसे किसी भी जन सेवी सरकार के लिए यह जरूरी है कि वह बरसात में यह आकलन करा ले कि बरसात के बाद कहां -कहां और क्या- क्या सुधार  जरूरी हैं।
 वैसे  अनेक शहरों के मध्य में भी आबादी के बढ़ते दबाव के कारण भी तरह -तरह की समस्याएं आ रही हैं।
  आश्चर्य है कि किसी भी राज्य सरकार ने इस बात पर विचार क्यों नहीं किया कि पटना में गंगा किनारे के चार बड़े संस्थानों में से कम से कम दो को मुख्य पटना से बाहर स्थानांतरित कर दिया जाए ?
  आसपास ही बसे पटना विश्व विद्यालय ,पी.एम.सी.एच.,पटना कलक्टरी और जिला अदालत ने मध्य पटना की भीड़ बढ़ा दी है।ये सब भीड़ जुटाऊ जगहें हैं।साथ ही गांधी मैदान भी पास में ही हैं।खैर, उसका तो कोई विकल्प नहीं है।
 --ट्राफिक प्रबंधन की समस्या--
केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने भी गत माह यह स्वीकारा  कि ट्राफिक प्रबंधन इस देश की पुलिस के लिए बड़ी समस्या बन चुकी है।
उन्होंने तीव्र शहरीकरण को इसका मुख्य कारण बताया है।
अब सवाल है कि सुव्यवस्थित शहरीकरण के लिए इस देश की सरकारें क्या और कितना कुछ कर रही हैं ?
 यदि सरकार नहीं करेगी तो निजी एजेंसियां तो करेंगी ही।
निजी एजेसियां तो आम तौर पर जैसे -तैसे ही करेंगी।
निजी एजेंसियों पर नजर रखने वाली सरकारी एजेंसियों में से अधिकतर का मुख्य लक्ष्य पैसे कमाना रहता है।
पहले यह कहावत बिहार में ही थी।पर अब पूरे देश में के लिए यह सत्य है।यानी अधिकतर सरकारी कर्मी आॅफिस आने के लिए वेतन लेते हैं और काम करने के घूस।
हालांकि इसके अपवाद भी हैं।
देश भर के भ्रष्टाचारियों में जेल जाने का भय समाप्त हो चुका है।फिर उपाय क्या है ?जो सत्ता में हैं,उन्हें अन्य बातों के साथ -साथ इस पर भी गंभीरता से सोचना होगा कि सख्त अदालती  आदेश के बावजूद अतिक्रमणकारी इतना निर्भीक क्यों रहते हैं ?फुटपाथों और सड़कों पर अतिक्रमण ट्राफिक समस्या का एक बड़ा कारण है।यह सब पटना सहित लगभग पूरे देश में देखा जा रहा है।सिर्फ वी.वी.आई.पी.इलाके इसके अपवाद हैं।केंद्रीय गृह मंत्री को चाहिए कि वे सभी राज्यों की बैठक बुलाएं और इस समस्या के समाधान के लिए कानून में बदलाव करना जरूरी हो तो वह भी करें।
  --सीमा पर चैकसी जरूरी--
    असम के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के ड्राफ्ट में अभी करीब 40 लाख लोगों के नाम नहीं हैं।
इनमें से जो चाहें , अभी सबूतों के साथ अपना नाम दर्ज करने का दावा कर सकते हैं।
जिनके पास पक्के सबूत होंगे ,उनके तो नाम अंततः दर्ज हो ही जाएंगे।
पर फिर भी संकेत हैं कि लाखों लोग सबूत नहीं जुटा पाएंगे।
नतीजतन वे वोटर नहीं रहेंगे।यानी ऐसे गैर वोटरों में उन राजनीतिक दलों की रूचि समाप्त हो जाएगी जिन्होंने इन बंगलादेशियों को नाजायज तरीकों से वोटर बनवाया और दूसरी सरकारी सुविधाएं दिलवाईं।
बोर्डर पार कराकर भारत लाने में तो सीमा पर तैनात भ्रष्ट सुरक्षा कर्मी व दलाल  जिम्मेदार होते हैं।पर, उन्हें वोटर बनवाने के लिए  वोट लोलुप नेता और राजनीतिक कार्यकत्र्ता जिम्मेदार होते हैं।
यदि टपा कर लाए गए मानुष वोटर ही नहीं बन पाएंगे तो फिर नेता लोग क्यों घुसपैठियों की मदद करेंगे  ? नतीजतन घुसपैठ की समस्या काफी कम हो जाएगी।असम में भी और अन्य राज्यों में भी।
हां,साथ ही समस्या के पूर्ण निदान के लिए अंतरराष्ट्रीय सीमा पर तैनात सुरक्षा बलों के बीच फैले भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए केंद्र सरकार को विशेष उपाय करने होंगे।
--सुप्रीम कोर्ट की पहल से उम्मीद जगी--
सुप्रीम कोर्ट ने मुजफ्फर पुर अल्पावास गृह यौन हिंसा कांड का खुद संज्ञान लेकर केंद्र और राज्य सरकार को नोटिस जारी किया है।
देश की सबसे बड़ी अदालत की इस पहल से लोगों में यह उम्मीद बढ़ी है कि उस कांड के पीडि़तों को न्याय मिलेगा।
 दरअसल सी.बी.आई.जांच पर जब तक अदालत की नजर नहीं रहती ,तब तक निष्पक्ष जांच की उम्मीद कम ही रहती है।
बिहार के 1983 के बाॅबी हत्याकांड और 1999 के शिल्पी जैन हत्याकांड में ऐसा हो चुका है।सत्ताधारी आरोपियों के समक्ष तो जांच एजेंसी की बेचारगी ही सामने आती रही है।
  दर्जनों निरीह बच्चियों के साथ जघन्य महा पाप के ताकतवर आरोपी बच कर निकल न जाए,इसके लिए जरूरी है कि उनकी नार्काे और डी.एन.ए.जांच भी हो।यदि सुप्रीम कोर्ट इसकी खास अनुमति देगा तो न्याय होने मेंे सुविधा होगी।
याद रहे कि 2010 के अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट यह कह चुका है कि आरोपी की मर्जी के खिलाफ उसका नार्को-डी.एन.ए.टेस्ट नहीं हो सकता।
इस निर्णय ने बिहार में भी कई बार जांच एजेंसियों का काम 
कठिन बना दिया है।यदि जरूरत समझे तो सुप्रीम कोर्ट इन निरीह व बेसहारा बच्चियों के लिए 2010 के अपने निर्णय पर पुनर्विचार कर ले।
       --भूली-बिसरी याद--
आपातकाल के बड़ौदा डायनामाइट केस से कन्नड व तेलुगु की मशहूर फिल्म अभिनेत्री स्नेहलता रेड्डी का नाम अंतिम समय में हटा दिया गया था।
 याद रहे कि जार्ज फर्नांडिस उस केस के मुख्य आरोपी 
थे।आपातकाल में जब सी.बी.आई.ने अभियुक्तों की सूची बनायी   थी तो उसमें स्नेहलता का भी नाम था।
पर आरोप पत्र से उनका नाम हटा दिया गया।इस संबंध में गृह मंत्रालय की राय बनी थी कि स्नेहलता अत्यंत लोकप्रिय व खूबसूरत अभिनेत्री हैं।
अभिनेत्री  किसी मुकदमे में अभियुक्त बनेगी तो मुकदमे में ग्लेमर का तत्व आ जाएगा।
इससे मुकदमा अधिक चर्चित हो जाएगा।
इससे उस केस के अन्य अभियुक्तों के प्रति भी लोगों की सहानुभूति बढ़ सकती है।
पर सरकार नहीं चाहती थी कि बड़ौदा डायनामाइट केस के अभियुक्तों खास कर जार्ज फर्नांडिस के प्रति किसी की सहानुभूति हो।
  हालांकि सरकार यह नहीं जानती थी कि स्नेहलता डायनामाइट के इस्तेमाल के खिलाफ थीं।
बंगलुरू की  निवासी स्नेहलता का  पूरा परिवार समाजवादी था।डा.राम मनोहर लोहिया का अत्यंत प्रशंसक।
जार्ज का भी उनके घर आना जाना था।पर हिंसा के सवाल पर  स्नेहलता परिवार में मतभेद था।स्नेहलता आपातकाल के खिलाफ सिर्फ  अहिसंक आंदोलन के पक्ष में थीं जबकि उनकी पुत्री नंदना रेड्डी जार्ज के साथ थी।
  फिर भी  स्नेहलता को मई, 1976 में गिरफ्तार किया गया था।उन्हें जेल में इतना अधिक कष्ट दिया गया कि उनकी हालत खराब हो गयी।खराब हालत के कारण उन्हें छोड़ा गया। जेल से छूटने के कुछ ही समय बाद यानी जनवरी 1977 में उनका निधन हो गया।याद रहे कि कन्नड की
पहली समानांतर सिनेमा ‘संस्कार’ में  स्नेहलता काम कर चुकी थींं।     
   --और अंत मंे-
यदि कोई सरकार चाहती है कि किसी आयोग की रपट जल्द से जल्द उसे मिल जाए  तो उसे एक काम पहले ही कर देना चाहिए।
उसे आयोग या कमेटी  के प्रधान व सदस्यों से अनौपचारिक रूप से यह कह देना चाहिए कि इस आयोग का काम समाप्त होते ही आपको एक दूसरे आयोग को संभालना है।
  दरअसल आयोग की कुर्सी मिल जाने पर शायद ही उसे कोई छोड़ना चाहता है।क्योंकि उसके साथ कई सुविधाएं जुड़ी रहती हैं।
इसलिए अधिकतर आयोग फाइनल रपट तैयार करने में अनावश्यक विलंब करते हैं। 
@ 3 अगस्त, 2018 को ‘प्रभात खबर’ -बिहार-में प्रकाशित मेरे काॅलम ‘कानोंकान’ से@

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