मंगलवार, 6 नवंबर 2018

एक शिखर  सूना 
-ओम थानवी-
फिर प्रभाष जी के देखते- देखते, हिंदी में अंग्रेजी घालमेल वाली ऐसी फूहड़ भाषा दाखिल हो गई जो लिखने वालों को रास आती थी और टी.वी.रेडियो पर बोलने वालों को भी।
इस भाषा में विचार भरी पत्रकारिता हो सकती है,इसमें संदेह करने की हजारहां वजहें हैं।यह अकारण नहीं है कि भाषाई फूहड़ता के साथ पत्रकारिता में नैतिक पतन का मुद्दा उन्हें आखिरी दिनों में सबसे ज्यादा सालता रहा।
  मुझे अच्छी तरह याद है एक दफा स्व.राजेंद्र माथुर ने मुझे अपने घर ले जाते वक्त रास्ते में मुस्कराते हुए कहा था-मैं अपने अखबार में वह काम करना चाहता हूं जो जनसत्ता कर रहा है।
उस वक्त मैं राजस्थान पत्रिका में काम करता था और माथुर साहब मुझे दिल्ली आने का न्योता दे रहे थे।मैं उनके साथ नहीं जुड़ पाया ,इसकी अलग दास्तान है।लेकिन हिंदी के और अखबारों में व्याप्त बेचैनी की इशारा करने वाला यह प्रसंग मुझे मौके -बेमौके याद आता है और कचोटता है।
   भाषा के साथ विचार के हलके में प्रभाष जी के अनूठे काम का एक श्रेष्ठ उदाहरण सांप्रदायिकता की राजनीति पर उनकी लोहार वाली चोटें हैं।हिंदुत्व के नाम पर हुए खून खराबे और वोट की राजनीति पर जितना साफ और बेलौस उन्होंने लिखा,किस और पत्रकार ने लिखा होगा ?
गांधी जी के अनुयायी वे इस अर्थ में भी थे कि आस्थावान धार्मिक थे ,पर धर्म की राजनीति के जैसे जानी दुश्मन।
इसके खिलाफ उन्होंने जमकर लिखा।कभी इस तेवर की वजह से उन्हें सशंकित या भयभीत नहीं देखा।
उन्होंने कभी सुरक्षाकर्मी नहीं रखे,न किसी जलसे में यह कहने से हिचके जो वे लिखते भी थे।
   उनके निडर अंदाज का एक अनुभव याद करना मौजूं होगा।तब मैं जनसत्ता के चंडीगढ़ संस्करण का संपादक था।
आतंकवाद चरम पर था।
आतंकवादियों ने पत्रकारों के लिए तानाशाही की एक आचार संहिता घोषित की।
मैंने दिल्ली आकर प्रभाष जी से बात की।उन्होंने ‘द ट्रिब्यून’ के प्रधान संपादक की राय जानने के लिए फोन मिलवाया।
उधर से यह सुनने को मिला कि आचार संहिता लागू करने की आखिरी तारीख भले दूर हो ,वे उसे लागू कर चुके हैं।
पंजाब के सबसे बड़े अखबार के इस समर्पण पर प्रभाष जी कुछ देर तक मौन रहे।फिर बोले,‘इन @आतंकवादियों@ की ऐसी तैसी।जब हम वहां चंडीगढ़ से अखबार निकाल रहे हैं तो कीमत चुकाने को भी तैयार रहना चाहिए।’
और आचार संहिता उन्होंने बगल की रददी की टोकरी के हवाले कर दी।
  जैसा कि महान शख्सियतों में होता है,प्रभाष जी में कुछ चीजों को लेकर दीवानापन था और कुछ अंतविरोध भी थे।
संगीत और क्रिकेट के लालित्य को उन्होंने दिल से पहचाना था।कुमार गंधर्व को वे कार से लेकर रसोई तक में डूब कर सुन सकते थे।
स्वभाव से भावुक थे।अक्सर आंखें छलछला आती थीं।बाइपास सर्जरी के बाद यह भावुकता बढ़ी।पर,वे कहते थे-यार,रोएंगे नहीं तो जीएंगे कैसे !
सुनते हैं कि ,गुरुवार की रात सचिन तेंदुलकर के आउट होने पर उनके दिल की धड़कन गड़बड़ा गई।हालांकि उनके अजीज दोस्त हरिकृष्ण दुआ ने ऐसा नहीं माना।उन्होंने कहा कि सचिन की पारी देखकर वे खुश ही हुए होंगे,आहत नहीं।
असल तनाव लगातार हो रहे सफर का रहा होगा।
  सफर सचमुच उन्हें आराम की जगह नहीं देता था।
चार रोज पहले पटना में जसवंत सिंह की किताब के हिंदी संस्करण का लोकार्पण किया ।फिर लखनऊ गए।वहां से बनारस।वहां दिल में हलचल महसूस की।पर दिल्ली लौटकर कल मणि पुर जाने वाले थे।
  यह उनके जीवट का उदाहरण है।और कुछ लापारवाह तबीयत का भी।
कहते थे,अभी बहुत कागद कारे पचहत्तर की उम्र तक करूंगा,बाद में बचा हुआ काम।
लेकिन इसके लिए जरूरी अनुशासन उनमें कहां था ।
अक्सर रेल या विमान आखिरी घड़ी में ही पकड़ते थे।
कार्यक्रमों में देर से पहंुचते थे।
मगर ललित तबीयत के धनी शख्स से हम नीरस अनुशासन की उम्मीद ही क्यों कर सकते हैं !
  जो हो, हिंदी की दुनिया आज वैसी नहीं रही जैसी कल थी।
उनका जाना सचमुच एक शिखर का सूना करके जाना है।
कद्दावर संपादक हिंदी के इतिहास में बहुत हुए हैं।पर प्रभाष जी हमारे दौर की हिंदी पत्रकारिता का कद आप थे ।
@समाप्त@
--5 नवंबर, 2009 को निधन के तत्काल बाद ओम थानवी ने प्रभाष जोशी को इन शब्दों में श्रद्धांजलि दी।               








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