गुरुवार, 29 नवंबर 2018

सन 1972 के विधान सभा चुनाव के बाद एक बड़े नेता
 के साथ मैं पटना में घूम रहा था।नेता जी विधान सभा चुनाव जीत कर आए थे।उनकी जीत की खुशी में पटना में तीन जगह घरेलू ‘पार्टी’ रखी गयी थी।
नेता जी ने एक ही दिन में तीनों ‘पाटीर्’ स्वीकार कर ली थी।
तीनों जगह गए।
तीनों जगह खाए।मैं भी साथ था।
़़़़़     मेजबानों ने बारी -बारी से नेता जी को ‘ठूंस -ठंूस’ कर खिलाया।नेता जी मना करते रह गए,मेजबान नहीं माने।
मूर्ख मेजबानों ने उस बहुमूल्य नेता जी के स्वास्थ्य का तनिक  भी ध्यान नहीं रखा।नेता जी भी भोजन भट्ट ही थे।
मुझे लग गया था अति भोजन के कारण यह अच्छा- भला नेता अधिक दिनों तक हमारे बीच नहीं रह सकेगा।वही हुआ।
  उन दिनों तो भोजन के साथ अधिकतर नेता लोग शराब नहीं लेते थे।लोकलाज भी था।आज के तो अधिकतर नेता लेते हैं।सरेआम लेते हैं।कुछ तो दारू पीकर सार्वजनिक समारोहों में भी जाने लगे हैं।मैंने वहां उन्हें लड़खड़ाते देखा है।
उनके साथियों-संगतियों-चमचों में यह हिम्मत नहीं है कि नेता जी को अधिक शराब पीने व अति भोजन करने से रोके।
इस तरह दशकों से मैं देखता रहा हूं कि समाज के लिए बहुमूल्य नेता भी  कम ही उम्र में जानलेवा बीमारियों से ग्रस्त हो रहे हैं और ऊपर जा रहे हैं।अपने प्रशंसकों को बिलखते छोड़।
  अधिक दिन नहीं हुए।
एक जमाना मोरारजी देसाई का भी था।प्रधान मंत्री थे तो मंदिर गुरद्वारा जाते ही थे।
पर,वे कहीं भी प्रसाद नहीं लेते थे।
मोरारजी कहते थे कि मेरे भोजन का समय - आकार-प्रकार तय है।उसमें मैं कोई विचलन नहीं कर सकता हूं।वे करीब सौ साल जिए।
  अरे आज के नेता जी,अपने लिए नहीं तो अपने प्रशंसकों के लिए तो अपना आहार-बिहार ठीक रखिए।रावण ने लक्ष्मण को जो संदेश दिया था,उसे तो याद रखिए।
समान्य आदमी मरता है तो उसके कुटुम्ब रोते हैं।नेता मरता है तो उसका जनता-समाज-वोट बैंक  रोता है।असमय मरता है तो ज्यादा रोते हैं।

  

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