एक शिखर सूना
-ओम थानवी-
दिल्ली की न्यू फ्रंेडस काॅलोनी की दस साल की रिहायश छोड़कर मैं गए साल गाजियाबाद की वसुंधरा बस्ती में चला आया तो उसकी एक वजह यह भी थी कि प्रभाष जी वहां बस चुके थे। बीस बरस उनके साथ काम किया,अब एक ही इमारत -जनसत्ता एपार्टमेंट्स-में साथ रहने का मौका मिलेगाःइससे खुशगवार अहसास किसी जनसत्ताई को दूसरा क्या हो सकता था !
लेकिन वक्त की करवटें जब -तब बड़ी क्रूर होती हैं।सवा साल के साथ में जब लगने लगा कि उनके साथ किसी नए रिश्ते का आविष्कार हो रहा है ,संपादक से अभिभावक बनते हुए वे बतरसी अंदाज में सामने आने लगे हैं,सहसा उन्होंने आंखें मूंद लीं।
उनका निधन हिंदी समाज के लिए एक दुखद घटना है,मगर मेरे जैसे अनेकानेक शिष्यों के लिए एक हादसा ।
सहमति ही नहीं,असहमतियों में भी उनकी उपस्थिति हमारे लिए एक बड़ा संबल थी।एम्स के शव लेपन गृह से वसुधंरा के घर तक उनकी शिथिल देह ने जब उनके न रहने का संदेश पुख्ता कर दिया है,फिलहाल यह समझ पाना मुश्किल है कि ‘सांप्रदायिकता’ के मिजाज से लेकर शब्दों के भेद और कुमार गंधर्व या मल्लिकार्जुन मंसूर की तानों के अर्थ समझने के लिए अब कोई कहां जाएगा ?
प्रभाष जी के काम,उनके योगदान का मूल्यांकन आने वाले वक्त में होगा।
पर विदाई की घड़ी में उनके व्यक्तित्व की कुछ छवियां बरबस याद आती हैं।
मेरे नजदीक सबसे अहम रहा है भाषा के प्रति उनका सरोकार।उन्होंने हिंदी पत्रकारिता की खांचों में बंधी भाषा को तोड़ा।
उनका प्रयोगधर्मी रुख ‘प्रजानीति’ और ‘आसपास’ के दिनों में भी दिखाई देता था,लेकिन ‘जनसत्ता’ उन्होंने एक नए भाषाई तेवर के साथ शुरू किया।
सहयोगियों को उन्होंने सहज, सीधी और मारक भाषा में लिखने की बाकायदा दीक्षा दी।
कभी -कभी उनके कुछ प्रयोग चर्चा का विषय भी बने।लेकिन इसमें शायद ही किसी को शक हो कि ‘उल्लेखनीय है’ जैसे एकरस जुमलों वाली हिंदी आज की पत्रकारिता में हर तरफ ‘मालूम हो-खयाल रहे’ का स्वीकार अर्जित कर चुकी है।
उस सरल,बोलचाल वाली हिंदी में उन्होंने पत्रकारिता में विचार की जगह बनाई ः यह उनका भाषा के खाते में दूसरा यश।
वे भवानी बाबू के मुरीद थे ,कविता की कवि लोग जानें,पत्रकारिता में वे वही भाषा लिखते और लिखवाते थे,जो हम बोलते हैं।
जिन्होंने उन्हें सभाओं में बोलते हुए सुना है,वे जानते हैं कि उनके बोले हुए को कागज पर हू ब हू उतार कर छापा जा सकता था।और तो और,उनकी हस्तलिपि में भी एक सुघड़ लय थी।
सहज हिंदी में यह सार्थक -पत्रकारिता का आगाज था।
अफसोस यही है कि हिंदी में यह सिलसिला कायम न हो सका। अरसे तक अखबारों में वही नीरस और कागजी हिंदी बनी रही।@जारी@
--5 नवंबर, 2009 को निधन के तत्काल बाद ओम थानवी ने प्रभाष जोशी को इन शब्दों में श्रद्धांजलि दी।
-ओम थानवी-
दिल्ली की न्यू फ्रंेडस काॅलोनी की दस साल की रिहायश छोड़कर मैं गए साल गाजियाबाद की वसुंधरा बस्ती में चला आया तो उसकी एक वजह यह भी थी कि प्रभाष जी वहां बस चुके थे। बीस बरस उनके साथ काम किया,अब एक ही इमारत -जनसत्ता एपार्टमेंट्स-में साथ रहने का मौका मिलेगाःइससे खुशगवार अहसास किसी जनसत्ताई को दूसरा क्या हो सकता था !
लेकिन वक्त की करवटें जब -तब बड़ी क्रूर होती हैं।सवा साल के साथ में जब लगने लगा कि उनके साथ किसी नए रिश्ते का आविष्कार हो रहा है ,संपादक से अभिभावक बनते हुए वे बतरसी अंदाज में सामने आने लगे हैं,सहसा उन्होंने आंखें मूंद लीं।
उनका निधन हिंदी समाज के लिए एक दुखद घटना है,मगर मेरे जैसे अनेकानेक शिष्यों के लिए एक हादसा ।
सहमति ही नहीं,असहमतियों में भी उनकी उपस्थिति हमारे लिए एक बड़ा संबल थी।एम्स के शव लेपन गृह से वसुधंरा के घर तक उनकी शिथिल देह ने जब उनके न रहने का संदेश पुख्ता कर दिया है,फिलहाल यह समझ पाना मुश्किल है कि ‘सांप्रदायिकता’ के मिजाज से लेकर शब्दों के भेद और कुमार गंधर्व या मल्लिकार्जुन मंसूर की तानों के अर्थ समझने के लिए अब कोई कहां जाएगा ?
प्रभाष जी के काम,उनके योगदान का मूल्यांकन आने वाले वक्त में होगा।
पर विदाई की घड़ी में उनके व्यक्तित्व की कुछ छवियां बरबस याद आती हैं।
मेरे नजदीक सबसे अहम रहा है भाषा के प्रति उनका सरोकार।उन्होंने हिंदी पत्रकारिता की खांचों में बंधी भाषा को तोड़ा।
उनका प्रयोगधर्मी रुख ‘प्रजानीति’ और ‘आसपास’ के दिनों में भी दिखाई देता था,लेकिन ‘जनसत्ता’ उन्होंने एक नए भाषाई तेवर के साथ शुरू किया।
सहयोगियों को उन्होंने सहज, सीधी और मारक भाषा में लिखने की बाकायदा दीक्षा दी।
कभी -कभी उनके कुछ प्रयोग चर्चा का विषय भी बने।लेकिन इसमें शायद ही किसी को शक हो कि ‘उल्लेखनीय है’ जैसे एकरस जुमलों वाली हिंदी आज की पत्रकारिता में हर तरफ ‘मालूम हो-खयाल रहे’ का स्वीकार अर्जित कर चुकी है।
उस सरल,बोलचाल वाली हिंदी में उन्होंने पत्रकारिता में विचार की जगह बनाई ः यह उनका भाषा के खाते में दूसरा यश।
वे भवानी बाबू के मुरीद थे ,कविता की कवि लोग जानें,पत्रकारिता में वे वही भाषा लिखते और लिखवाते थे,जो हम बोलते हैं।
जिन्होंने उन्हें सभाओं में बोलते हुए सुना है,वे जानते हैं कि उनके बोले हुए को कागज पर हू ब हू उतार कर छापा जा सकता था।और तो और,उनकी हस्तलिपि में भी एक सुघड़ लय थी।
सहज हिंदी में यह सार्थक -पत्रकारिता का आगाज था।
अफसोस यही है कि हिंदी में यह सिलसिला कायम न हो सका। अरसे तक अखबारों में वही नीरस और कागजी हिंदी बनी रही।@जारी@
--5 नवंबर, 2009 को निधन के तत्काल बाद ओम थानवी ने प्रभाष जोशी को इन शब्दों में श्रद्धांजलि दी।
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