--डी.जे. से बड़ों व स्मार्ट फोन से बच्चों को बचा लेने की गंभीर समस्या--
कुछ साल पहले पटना के एक नामी होटल में आयोजित एक पारिवारिक समारोह में जाने का अवसर मिला।
बड़े हाॅल के दरवाजे पर पहुंचने ही वाला था।पर, उससे पहले ही हाॅल में बज रहे डी.जे.का इतना अधिक कानफाड़ू शोर सुनाई पड़ने लगा कि मैं समारोह में शामिल हुए बिना लौट आया।
वहां से तो बच गया।पर अब तो डी.जे.का चलन गांव-गांव हो गया है।
कहां- कहां बचिएगा ?
जानकारांे के अनुसार 85 डेसिबल या उससे अधिक आवाज सुनने पर कान को स्थायी तौर पर क्षति पहुंचने की आशंका रहती है।
पर डी.जे.की आवाज आम तौर पर सौ डेसिबल से भी अधिक
रहती है।
आम तौर छोटे -छोटे धार्मिक व पारिवारिक समारोहों में भी नौजवान डी.जे.मंगवा लेते हैं।
चूंकि गांवों में भी अभिभावकों का आम तौर पर अपने घर के युवकों पर कोई कंट्रोल नहीं रहा,इसलिए वे मनमानी करते रहते हैं, नतीजों की परवाह किए बिना।उन्हें तो बुरे नतीजों कव कोई पूर्वानुमान ही नहीं है।
नियमतः 55 से 75 डेसिबल आवाज वाले लाउड स्पीकर या डी.जे. बजाने की सरकारी अनुमति है।
पर अदालतों के सख्त आदेशों के बावजूद तेज आवाज पर आम तौर पर कहीं कोई रोक नहीं ।यदि तेज लाउड स्पीकर या डी.जे. यदि धार्मिक स्थलों से बजाया जा रहा हो तब तो स्थानीय पुलिस भी भयवश कोई कार्रवाई नहीं करती।
कई जगहों में तो तेज आवाज के कारण न तो रातों में नींद है और न ही दिन में चैन।ऐसे पीडि़तों को तेज शोर के राक्षस से बचाने वाला आज कोई नहीं।
यही हाल बच्चों के हाथों में पड़े स्मार्ट फोन का है।
इसने महामारी का रूप धारण कर लिया है।अधिकतर परिवारों में यह देखा जाता है कि एक तरफ माएं स्मार्ट फोन लेकर बैठी हैं तो दूसरी तरफ उनके बच्चे।
इसके अनेक कुपरिणाम सामने आ रहे हैं।और भी आएंगे।
‘आॅक्सीजन’ के विनोद सिंह ‘चीनी छोड़ो’अभियान चलाते हैं।उनका अभियान अच्छा है।कुछ अन्य समाजसेवी लोग कुछ अन्य तरह के लाभकारी अभियान चलाते रहते हैं।
ऐसे स्वयंसेवी संगठनों को स्मार्ट फोन और डी.जे.को लेकर भी कोई अभियान शुरू कर देना चाहिए।अन्यथा, बाद में देर हो चुकी होगी।
--प्रदूषण की समस्या का एक समाधान
यह भी--
वायु प्रदूषण के मामले में पटना अब दिल्ली का मुकाबला करने लगा है।
इस देश की कुछ समस्याएं जानलेवा हैं।फिर भी सरकारें उनके समाधान के लिए कड़े कदम नहीं उठातीं।
यह भारत जैसे ‘नरम राज्य’ में अधिक देखा जाता है।भीषण प्रदूषण की समस्या उन्हीं में से एक है।
जब दिल्ली के हुक्मरानों को इस समस्या का समाधान नहीं सूझ रहा है तो बिहार की बात क्या करें ?
हालांकि दिल्ली के लिए दो ठोस प्रस्ताव एक बार फिर सामने आए हंै।
सारे गैर सी.एन.जी.वाहनों पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव है। दूसरा प्रस्ताव यह है कि एक बार फिर आॅड-इभन यानी सम -विषम संख्या वाले वाहनों को बारी -बारी से सड़कों पर चलाने की छूट दी जाए।
पर साथ ही यह भी सलाह दी जा रही है कि इस बार महिला चालकों व दो पहिया वाहनों को कोई छूट न दी जाए।
देखना है कि इसे लागू किया जा सकेगा या नहीं।
पहले तो पूरे देश में एक खास अदालती आदेश को लागू करना चाहिए ।वह 15 साल से अधिक पुराने वाहनों को लेकर है।उन्हें अविलंब सड़कों से बाहर कर दिया जाना चाहिए।
जब सरकारें यह काम भी नहीं कर पा रही है तो और भला क्या संभव है ?
--पी.एम.सी.एच.शहर के भीतर ही क्यों ?--
इस महीने एक खुशखबरी आई।मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने घोषणा की पटना मेडिकल काॅलेज अस्पताल को विश्व स्तर का अस्पताल बनाया जाएगा।
54 सौ करोड़ रुपए की लागत से उसका उन्नयन किया जाएगा।उसमें अब 5 हजार बेड होंगे।
बिहार के लिए इससे बेहतर खबर और क्या हो सकती है ?
पर क्या अब यह समय नहीं आ गया है कि पटना मेडिकल काॅलेज अस्पताल के उस उन्नत संस्करण का निर्माण मुख्य नगर से बाहर कहीं हो।
पटना में प्रदूषण कम करने की दिशा में वह एक जरूरी कदम होगा।
पटना एम्स भी तो मुख्य नगर से दूर ही है।
एम्स के आसपास न सिर्फ आबादी बढ़ रही है बल्कि नये- नये निजी अस्पताल भी खोले जाने का प्रस्ताव है।इससे भी मुख्य नगर पर से आबादी का बोझ घटेगा।प्रदूषण कम होगा।
भूजल संकट कम होगा।सड़कों से वाहनों का बोझ कम होगा।
-- ऐसे तैयार होंगे योग्य शिक्षक--
प्रधान मंत्री विद्यालक्ष्मी योजना के तहत पढ़ाई के लिए
10 से 20 लाख रुपए तक के कर्ज की सुविधा केंद्र सरकार ने मुहैया की है।
नौकरी लगने पर कर्ज वापस कर देना पड़ेगा।
यह एक अच्छी योजना है।
इस देश में पैसों के अभाव में प्रतिभाशाली छात्र आगे नहीं पढ़ पाते।
पर, इस योजना में एक संशोधन की जरूरत है।
इस देश में इन दिनों योग्य शिक्षकों की भारी कमी है।यह कमी लगभग हर स्तर पर है।मेडिकल काॅलेजों से लेकर सामान्य काॅलेजों में भी योग्य शिक्षकों की कमी पड़ रही है।
विद्यालक्ष्मी योजना के तहत कर्ज लेकर शिक्षक की नौकरी करने वालों को यह कर्ज लौटाना न पड़े,ऐसी व्यवस्था केंद्र सरकार को करनी चाहिए।
1963 में भारत सरकार ने ऐसी ही एक छात्रवृत्ति योजना शुरू की थी।उसका नाम था राष्ट्रीय ऋण स्काॅलरशीप योजना।उसे भी नौकरी के बाद
लौटा देना था।पर उसमें एक ढील दी गयी थी।जो लोग शिक्षक की नौकरी करेंगे ,उन्हें वह ऋण नहीं लौटाना था। केंद्र सरकार ने ही ऐसा प्रावधान कर रखा था।
अच्छे शिक्षकों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए वह प्रावधान किया गया था।
याद रहे कि वह ऋण स्काॅलरशीप उन्हें ही मिल पाता था जिन्हें मैट्रिक में कम से कम 60 प्रतिशत अंक आए हों।
उन दिनों 60 प्रतिशत अंक वाले भी प्रतिभाशाली छात्र होते थे।
--भूली बिसरी याद--
आजादी की लड़ाई के दिनों जवाहर लाल नेहरू चाहते थे कि
जय प्रकाश नारायण उनके घर में उनके साथ ही रहें।
इस संबंध में 30 अप्रैल 1930 को जेल से जवाहर लाल नेहरू ने अपने पिता मोतीलाल नेहरू को लिखा कि ‘यह भी संभव है कि जय प्रकाश और प्रभावती मेरे ऊपर वाले पुराने कमरों में रहें।उनसे सलाह की जा सकती है।उनके लिए यह अधिक सुविधाजनक एवं सस्ता होगा।वे हर महीने 25 से 30 रुपए किराया दे सकते हैं।जहां तक रसोई घर का संबंध है,पुराने रसाई घर के बगल का छोटा कमरा उन्हें दिया जा सकता है।’
जेपी के बारे में नेहरू जी ने महात्मा गांधी को 1931 में लिखा कि ‘जे.पी.वहां खुश नहीं हैं।अनिश्चितता और आधारहीनता महसूस कर रहे हैं।नहीं लगता कि बिरला के साथ काम करने में उनकी कोई रूचि है।’
बिरला जी के यहां काम करने की पृष्ठभूमि कुछ इस प्रकार बनी थी।
जेपी जब अमेरिका से पढ़कर लौटे तो प्रभावती जी ने गांधी जी से बात की।गांधी जी ने जी.डी.बिरला से बात की।
जेपी को फिलहाल तीन सौ रुपए माहवारी की कोई नौकरी चाहिए थी।
बिरला जी ने गांधी जी से कहा कि हमारे पास 300 रुपए माहवार वाला एक ही पद खाली है।वह है मेरे निजी सचिव का पद।
यदि जेपी राजी हों तो मैं तैयार हूं।जेपी राजी हो गए।पर वहां उनका मन नहीं लग रहा था।उसी की चर्चा नेहरू जी ने अपने पत्र में की।
--और अंत में--
केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल प्रत्येक घटक दल से कम से कम
एक कैबिनेट मंत्री रहें तो राजनीतिक प्रबंधन में गठबंधन को सुविधा हो सकती है।
उम्मीद है कि 2019 के चुनाव के बाद सत्ता में आने वाला गठबंधन इस पर ध्यान देगा।
अभी तो कुछ घटक दलों के नेताओं को राज्य मंत्री पद पर ही संतोष करना पड़ता है।
@ 16 नवंबर 2018 को प्रभात खबर-बिहार-में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से@
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