शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

भष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई में समदृष्टि जरूरी 
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महाराष्ट्र को मिला दंे तो देश के पांच प्रमुख राज्यों में 
भाजपा सत्ता में अब नहीं है।
  कांग्रेस तथा कुछ अन्य गैर राजग दलों के नेताओं की यह शिकायत रही है कि मोदी सरकार ने राजनीतिक बदले की भावना के तहत अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ
जांच एजेंसियों को सक्रिय कर दिया है।
  दूसरी ओर, प्रधान मंत्री और भाजपा कह रहे हंै कि ‘हम न खाएंगे और न खाने देंगे।’
सबूत के आधार पर कार्रवाइयां हो रही हैं।
  मन मोहन सिंह के शासन काल में भी तो जांच एजेंसी के निशाने पर कई  हस्तियां थीं।
तब जो निशाने पर थे,उनमें 
मधु कोड़ा,
हरिनारायण राय,
ए.राजा,
कनिमोई,
दयानिधि मारन, 
कलानिधि मारन,
सुरेश कलमाडी,
स्वामी रामदेव,
वाई.एस.जगनमोहन रेड्डी,
जी.जर्नादन रेड्डी,
और लक्ष्मीकांत शर्मा प्रमुख थे।
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इन दिनों जो हस्तियां जांच एजेंसी के निशाने पर हैं,उनमें 
सोनिया गांधी,
राहुल गांधी,
राबर्ट वाड्रा,
पी.चिदंबरम,
कार्ति चिदंबरम, 
नलिनी चिदंबरम,
अहमद पटेल,
भूपेंद्र सिंह हुड्डा,
मोतीलाल वोरा,
बी.के.शिव कुमार,
शरद पवार,
प्रफल्ल पटेल,
अखिलेश यादव,
आजम खान,
मायावती,
मदन मित्र,
कुणाल घोष,
लालू प्रसाद,
राबड़ी देवी,
तेजस्वी यादव,
मीसा भारती,
छगन भुजबल,
नवीन जिंदल,
डी.एन.राव,
फारुक अब्दुल्ला,
रतुल पुरी,
अशोक गहलोत,
सचिन पायलट,
शंकर सिंह बाघेला,
ओम प्रकाश चैटाला,
विजय सिंगला,
हरीश गहलोत,
के.डी.सिंह,
वीरभद्र सिंह,
बाबा सिद्दीकी,
राज ठाकरे,
वाई.एस.चैधरी,
प्रमुख हैं। 
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नामों की सूची इंडिया टूडे से साभार
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पक्ष-विपक्ष की सूची पर यदि पक्ष -विपक्ष की प्रतिक्रियाएं 
परस्पर विरोधी रही हैं,तो वह स्वाभाविक ही है।
पर आम लोगों की राय रही है कि चाहे जिस दल का नेता हो,यदि उस पर कार्रवाई को अदालतें पहली नजर में उचित मानती हैं तो वैसी कार्रवाई होनी ही चाहिए।
क्योंकि भीषण भ्रष्टाचार के कारण ही इस देश में भीषण गरीबी-भुखमरी 
आजादी के 72 साल बाद भी कायम है।
देश की रक्षा के लिए जितने अधिक आधुनिक हथियार खरीदने की जरूरत हैं,उसके लिए भारत सरकार के पास पैसे नहीं हैं।
 फिर भी हमारे देश के अनेक नेता सत्ता पाकर देश को चंगेज खान की तरह लूटते रहते  हैं और देश-विदेश में अपनी बड़ी -बड़ी संपत्ति खड़ी करते रहते हैं।
 अधिकतर नेताओं की संपत्ति दिन दूनी रात चैगुनी बढ़ती ही जा रही  है।
  कांग्रेसियों पर कार्रवाई हो तो कांग्रेसी कहते हैं कि भाजपा नेताओं पर कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है ?
भाजपा नेताओं पर कार्रवाई हो तो भाजपाई कहते हैं कि कांग्रेसियों पर कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है।
  अब पांच प्रमुख राज्यों की सत्ता में भाजपा नहीं है।
वहां के कुछ भाजपाइयों पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं या नहीं ?
 आमलोग यही चाहते हैं कि उन पांच राज्यों की गैर भाजपा सरकारें उन भाजपाइयों के खिलाफ अपने राज्य की जांच एजेंसी को लगा दे,यदि आरोप हांे तो।
   यदि उससे काम न चले तो केंद्रीय जांच एजेंसियों को लगाने के लिए अदालत की शरण ले । सुब्रह्मण्यम स्वामी शरण लेकर यह काम करते रहे हैं।
  यदि राजग विरोधी दल या सरकार ऐसा नहीं करते हैं तो यह माना जाएगा कि उनके द्वारा शासित  राज्यों में कोई भाजपाई भ्रष्ट नहीं है।
पर, यदि वहां भी भ्रष्ट मौजूद है ,फिर भी कार्रवाई नहीं होगी तो यह माना जाएगा कि गैर भाजपा सरकारें या उनके नेतागण भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं हैं।
उसकी चिंता सिर्फ यही है कि उसके अपने भ्रष्ट नेताओं पर मोदी सरकार कुछ न करे।
उसके बदले हम उनके नेताओं के खिलाफ कुछ नहीं करेंगे।
   




गुरुवार, 28 नवंबर 2019


बात -बात में हो जाती है लोकतंत्र की हत्या !!!!
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‘‘लोकतंत्र की हत्या हो गई।’’
हमारे देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जब थोड़ी भी गड़बड़ी   होती है तो तपाक से यही बात कह दी जाती है।
यानी हमारे यहां बार -बार लोकतंत्र की हत्या होती रहती है।
 लोकतंत्र फिर से अपने -आप जीवित कैसे हो जाता है ?
कटा सिर कैसे जुड़ जाता है ? 
  मानो लोकतंत्र न हो,दंतकथाओं का फीनिक्स पक्षी हो !
कथाओं में फीनिक्स पक्षी तो खुद को जला लेता है और खुद ही फिर से जीवित भी हो जाता  है।
   क्या अपना लोकतंत्र वैसा ही है ?
अरे भई, किसी भी मामूली भटकाव पर शब्दों के चयन में   सावधानी बरतें।
हत्या के बदले किसी अन्य शब्द का इस्तेमाल किया जा सकता है।
  अघोषित ‘आज स्कूल आॅफ जर्नलिज्म’ के संपादक नए पत्रकारों से कहा करते थे कि कुछ शब्दों को कुछ खास अवसरों के लिए बचा कर रखिए।
विशेषण का इस्तेमाल तो कम से कम कीजिए।
किसी के निधन या  किसी घटना पर जल्दी ‘पेज हेडिंग’ यानी पूरे पेज की हेडिंग  मत लगाइए। 
   पर क्या कीजिएगा ?
हमारे यहां तो ‘अतिशयोक्ति अलंकार’ के इस्तेमाल की पुरानी परपंरा है।
दंत कथाओं में भगवान परशुराम इस धरती को 21 बार क्षत्रिय विहीन कर चुके थे।
समझ में नहीं आता कि यदि एक बार विहीन कर ही दिए थे तो दूसरी बार क्षत्रिय कहां से आ गए ?
 पर यहां तो तीसरी-चैथी से लेकर 21 वीं बार तक आ गए। 
27 नवंबर 2019


मंगलवार, 26 नवंबर 2019

बटोहिया
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सुन्दर सुभूमि भैया भारत के देसवा से,
मोरे प्राण बसे हिम खोह रे बटोहिया।
एक द्वार घेरे राम हिम कोतवलवा से,
तीन द्वार सिन्धु घहरावे रे बटोहिया।
जाऊ जाऊ भैया रे बटोही हिन्द देखि आउं,
जहवां कुहुकि कोइली बोले रे बटोहिया।
पवन सुगन्ध मन्द हमर गगनवां से,
कामिनी बिरह राग गावे रे बटोहिया।
विपिन अगम घन सघन अगन बीच,
चम्पक कुसुम रंग देवे रे बटोहिया।
द्रुम बट पीपल कदम्ब अम्ब नीम वृक्ष,
केतकी गुलाब फूल फूले रे बटोहिया।
तोता तूती बोले राम बोले  भेंगरेजवा से,
पपिहा के पी पी जिया साले रे बटोहिया।
सुन्दर सुभूमि भैया भारत के देसवा से,
मोरे प्राण बसे गंगा धार रे बटोहिया।
गंगा रे जमुनवा के झममग पनिया से,
सरजू झमकी लहरावे रे बटोहिया।
ब्रह्मपुत्र पंचनद घहरत निसि दिन,
सोनभद्र मीठे स्वर गावे रे बटोहिया।
अपर अनेक नदी उमड़ी घुमरी नाचे,
जगन के जदुआ जगावे रे बटोहिया।
आगरा प्रयाग काशी दिल्ली कलकतवा से ,
मोरे प्राण बसे सरजू तीरे रे बटोहिया।
जाऊ जाऊ भैया रे बटोही हिन्द देखी आउं,
जहां ऋषि चारों वेद गावे रे बटोहिया।
सीता के विमल जस राम जस कृष्ण जस,
मोरे बाप दादा के कहानी रे बटोहिया।
व्यास बाल्मीकि ऋषि गौतम कपिल देव,
सुतल अमर के जगावे रे बटोहिया।
रामानुज रामानन्द न्यारी प्यारी रूपकला,
ब्रह्म सुख वन के भंवर रे बटोहिया।
नानक कबीर गौरी शंकर श्रीरामकृष्ण,
अलख के गतिया बतावे रे बटोहिया।
विद्यापति कालिदास सूर जयदेव कवि,
तुलसी के सरल कहानी रे बटोहिया।
सुन्दर सुभूमि भैया भारत के देसवा से,
मोरे प्राण बसे हिम खोह रे बटोहिया।
जाऊ जाऊ भैया रे बटोहि हिन्द देखि आऊं,
जहां सुख झूले धान खेत रे बटोहिया।
बुद्धदेव पृथु वीर अरजुन शिवाजी के,
फिरि फिरि हिम सुधि आवे रे बटोहिया।  
            ........रघुवीर नारायण 

राजनीति के बदलते रंग 
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1.-शिव सेना ने ऐसे दल के साथ समझौता कर लिया जिसके एक नेता पर दाऊद इब्राहिम के सहयोगी इकबाल मिर्ची से
आर्थिक सौदा करने का आरोप है।
2.-दिल्ली जामा मस्जिद के शाही इमाम ने भी राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट को स्वीकार कर लिया।
3.-कांग्रेस ने झारखंड के मतदाताओं से वादा किया है कि सत्ता में आने के बाद वह ओ.बी.सी.आरक्षण को 14 प्रतिशत से बढ़ाकर 27 प्रतिशत कर देगी।
4.-राजद ने अपनी बिहार शाखा के अध्यक्ष पद पर एक दबंग और ईमानदार सवर्ण को बैठा दिया है।
5.-शिक्षाविद् जे.एस.राजपूत ने लिखा है कि हमारा राजनीतिक तंत्र ऐसे दलदल में फंस गया है जिसमें ‘सत्ता से सेवा’ का स्थान ‘सत्ता से स्वार्थ’ में बदल चुका है।  
26 नवंबर 2019


एक घर बने लाउड स्पीकर से दूर 
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मेरे एक पुराने परिचित बसने के लिए जमीन खोज रहे थे।
मेरे पास भी आए थे।
उन्होंने कहा कि मैं ऐसी जगह जमीन खोज रहा हूं जहां मुझे कोई लाउड स्पीकर सुबह-शाम  परेशान न करे।
  अभी जहां हूं ,वहां एक धार्मिक स्थल से रोज सुबह-शाम लाउड स्पीकर अत्यंत  तेज आवाज में बजता रहता है।
  सुबह चार घंटे और शाम में भी फिर चार घंटे।
न तो मैं अखबार पढ़ पाता हूं और न बच्चे अपना होम वर्क बना पाते हैं।
  पुलिस-प्रशासन भी कुछ नहीं कर पाता।
पुलिस कहती है कि हम धार्मिक स्थान में हस्तक्षेप नहीं कर सकते ।
हालांकि हाईकोर्ट का यह सख्त आदेश है कि रात 10 बजे और सुबह छह बजे के बीच लाउड स्पीकर न बजे।
  मैंने पूछा कि आपके अन्य पड़ोसियों का 
क्या हाल है ?
  उन्होंने कहा कि किराएदार तो धीरे -धीरे दूसरी जगह जा रहे है।
पर मकान मालिकों के लिए दिक्कत है।
वे कहां जाएं ?
किराएदार न मिलने के कारण वे भी परेशान हैं।
 तब तो वहां जमीन-मकान फ्लैट की कीमत कम होगी ?
उन्होंने कहा कि अब वहां कौन खरीदेगा ?  
26 नवंबर 2019

बाहर की दुनिया में यह अनुमान लगाया जाता था कि शरद पवार के परिवार में अंतिम शब्द शरद पवार का ही होता है।
  इसलिए अजित पवार ने जब विद्रोह किया तो लगा कि इसके पीछे खुद शरद पवार ही हैं।
उसी को ध्यान में रखते हुए अनेक टिप्पणियां भी आई थीं।
पर, यह अनुमान अंततः गलत निकला।
दरअसल अजित का शरद पवार से विद्रोह है।असंतोष पहले से पल रहा था।
वैसा ही जैसा इस देश के अधिकतर राजनीतिक परिवारों में होता रहा है।
  जब राजनीति सेवा के लिए नहीं बल्कि सत्ता और मलाई पाने एवं उसके बंटवारे और भ्रष्टाचार के मुकदमों की
वापसी की कोशिश में लगी हो तो वैसा ही होता है जैसा शरद पवार के परिवार के साथ  हुआ।  
26 नवंबर 2019

सुप्रीम कोर्ट के किसी निर्णय पर टिप्पणी करने से पहले 
संविधान के अनुच्छेद-142 को ध्यान से पढ़ लिया जाना चाहिए।
उस अनुच्छेद के अनुसार,
‘‘उच्चत्तम न्यायालय अपनी अधिकारिता का प्रयोग करते हुए ऐसी डिक्री पारित कर सकेगा या ऐसा आदेश दे सकेगा जो उसके समक्ष लंबित किसी वाद या विषय में पूर्ण न्याय करने के लिए आवश्यक हो।’’
25 नवंबर 2019
   

सोमवार, 25 नवंबर 2019

कल शाम  जब मैं टहलने निकला तो देखा कि कोरजी गांव 
में नहर पर पुलिया बन कर तैयार है।
कल ही राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव ने उस पुलिया का उद्घाटन किया।
यह पुलिया मेरे घर से करीब सौ मीटर पर ही है।
कोरजी सेवा संघ के ऊर्जावान नौजवानों ने किसी सरकारी मदद के बिना श्रमदान से दस दिनों में ही पुलिया बना दिया।
  इससे कुछ ही साल पहले इसी कोरजी गांव के बुजुर्गों ने अपने गांव को एन.एच.-98 से जोड़ने के लिए मिट्टी की सड़क बनवा दी थी, आपसी सहयोग से।
   उस मिट्टी की सड़क को पक्की बनाने में अब भी शासन की कोई रूचि नहीं है।
  कल जहां पुलिया बन कर तैयार हुई ,वहीं से नहर पार करके मैं अक्सर सैलून में पहुंचता रहा हूं।
अब तक बिजली के दो पोल को आसपास सटाकर वहां पुल का काम लिया जाता रहा।
उस पोल से गुजरते समय मुझे हर दम आशंका रहती थी कि नहर में अब गिरा, तो तब गिरा !!
पर,नौजवानों ने अब मेरा वह भय समाप्त कर देने का स्थायी प्रबंध कर दिया।
  पुल बनाने से पहले उन लोगों ने मुझसे कोई चंदा भी नहीं लिया।
वे मांगते तो अपनी हैसियत के अनुसार खुशी -खुशी दे देता।
  उससे पहले मिट्टी की सड़क के लिए भी चंदा नहीं मांगा था।
फिर भी मैंने अपने पड़ोसी आर.एन.सिंह के साथ जाकर कुछ पैसे दे दिए थे।
  कोरजी गांव पटना जिले के फुलवारी शरीफ अंचल की भुसौला दाना पुर ग्राम पंचायत में है।
इसी पंचायत में पटना एम्स भी अवस्थित है।
 पर, इसके आसपास की सड़कों की हालत अब भी जर्जर है।
 कोरजी गांव सिर्फ  700 मीटर दूर स्थित एन.एच.से भी अब तक नहीं जोड़ा जा सका है।
  जिस ग्रामीण सड़क पर कोरजी गांव स्थित है,वह सड़क सरारी रेलवे क्राॅसिंग से शुरू होकर जमालुदद्दीन चक होते हुए चकमुसा में एन.एच.-98 में मिलती है।
 इस मात्र चार किलोमीटर सड़क का भी मरम्मत-चैड़ीकरण हो जाता तो एम्स पहुंचने वालों को भी सुविधा मिलती।
पर,इस ओर राज्य सरकार का ध्यान जाना अभी बाकी है।
याद रहे कि खगौल, कोरजी गांव का निकटत्तम बाजार है। खगौल से आर्यभट्ट का भी नाम जुड़ा हुआ है। 
सुरेंद्र किशोर--18 नवंबर 2019


  

स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनियों से नई पीढ़ी परिचित हो
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बिहार विधान परिषद के पूर्व सभापति बाबू देवशरण सिंह के जीवन और राजनीति पर आधारित पुस्तक ‘क्रांतिकारी गांधीवादी देवशरण सिंह’ आई है।
 ऐसे नेताओं के बारे में नई पीढ़ी को अवगत कराना जरूरी भी है।
नई पीढ़ी आज की राजनीति का जो स्वरूप देख रही है,उससे अलग बातें स्वतंत्रता सेनानियों की जीवन गाथाओं से जानेगी।
  याद रहे कि आजादी की लड़ाई में जो लोग कूदे थे,उनका लक्ष्य सत्ता, धाक और धनोपार्जन नहीं था।
आज अपवादों को छोड़कर बस यही तो राजनीति है।
 यह और बात है कि आजादी मिलने के बाद कई स्वतंत्रता सेनानियों ने भी अपने चाल,चरित्र और चिंतन में परिवत्र्तन कर लिए थे।
   फिर भी उनके संघर्ष व त्याग की कहानियां आज के लोग पढ़ें,ऐसी व्यवस्था होनी ही चाहिए।
  जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद  डा.राम मनोहर लोहिया ने कहा था,
‘‘1947 से पहले के नेहरू को मेरा सलाम।’’
  हाल में शिवानंद तिवारी ने अपने यशस्वी पिता की एक ऐसी तस्वीर फेसबुक पर पोस्ट की,जिसे पहली बार नई पीढ़ी ने देखा।
  उस पोस्ट पर मुझे तिवारी जी की याद आई।
तिवारी जी उन थोड़े से नेताओं में थे जिनके जीवन में आखिर तक संयम कायम रहा।
तिवारी जी की जीवनी साहित्यकार राम दयाल पांडेय ने लिखी थी।
पर, संभवतः उसका अगला संस्करण नहीं छपा।
छपना चाहिए।
उनके बारे में कुछ बातें मुझे सहसा याद आ गईं।   
गोदी मीडिया और क्रोनी कैप्टलिज्म तब भी था।
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बात तब की है जब 
बिहार में जेपी आंदोलन चल रहा था।
एक नारा यह भी था,
‘जयप्रकाश बोल रहा है,इंदिरा शासन डोल रहा था।’
पटना के मजहरूल पथ के एक होटल में बिहार के पूर्व गृह मंत्री रामानंद 
तिवारी का प्रेस कांफ्रेंस चल रहा था।
मैं भी उस प्रेस कांफ्रंेस में था।
एक बड़े नामी-प्रभावशाली संवाददाता ने सवाल किया।
‘तिवारी जी, आप ब्राह्मण होकर भी इंदिरा जी के खिलाफ
क्यों आंदोलन कर रहे हैं ?’
तिवारी जी का जवाब था--‘बाचा, तू खाली पतरकारिता कर।
राजनीति मत कर।’
तिवारी जी अपने से छोटी उम्र के लोगों को कई बार बाचा कह कर संबोधित करते थे।बाचा यानी बच्चा।
1969 में बिहार में समाजवादियों ने बड़ा भूमि आंदोलन चलाया था।
बड़े नेताओं के नेतृत्व में हदबंदी से फाजिल जमीन पर दखल करके उसे भूमिहीनों में बांटने  की कोशिश हुई थी।
तिवारी जी ने इसी सिलसिले में
चम्पारण में एक पूंजीपति के फार्म पर हल चलाया।
भूमिपति के लठैतों ने निहत्थे आंदोलनकारियों पर जानलेवा हमला किया।
हलवाहा रोगी महतो की हत्या कर दी गई।
तिवारी जी को भी बुरी तरह घायल कर दिया गया।
नतीजतन वे महीनों  तक अस्पताल में थे।
 रोगी महतो की हत्या का मुकदमा चलने लगा।
1972 की बात है।
जब उस पूंजीपति के कानून की गिरफ्त आने की नौबत आई तो उसने सोशलिस्ट पार्टी के एक विधायक को पटा कर 
तिवारी जी के यहां भेजा।
संयोग से मैं भी आर.ब्लाॅक स्थित तिवारी जी के आवास पर मौजूद था।
विधायक ने कहा कि ‘बाबा,चम्पारण वाले केस में समझौता कर लिया जाना चाहिए।’
 यह सुनते ही तिवारी जी ने डपटते हुए कहा कि ‘तू जा समझौता कर ल। रोगी महतो के लाश पर हम समझौता ना करब।’
यह कह कर तिवारी जी रोने लगे।
संभवतः उनको लगा था कि हमारी पार्टी का एक विधायक भी खरीद लिया गया।
ऐसे और इन जैसे अन्य नेताओं की जीवन गाथाओं से नई पीढ़ी को अवगत कराना ही चाहिए।
उससे पता चलेगा कि  राजनीति यही नहीं होती है जो आज हो रही है।
आज क्या है ?
अपवादों को छोड़कर अधिकतर लोग सत्ता,धाक, पैसा और वंश को आगे बढ़ाने के लिए राजनीति में हैं।
इससे लोकतंत्र का स्वरूप बिगड़ता जा रहा है।
24 नवंबर 2019




स्थिति है चिंताजनक,
पर, हम कितने चिंतित ????
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दैनिक भास्कर के अनुसार,
‘‘रविवार को प्रदूषण के मामले में देश के 94 शहरों में पटना और मुजफ्फरपुर दूसरे स्थान पर रहे।’’
  बिहार के लिए प्रधान मंत्री पैकेज में पटना रिंग रोड का निर्माण शामिल है।
  उस पर काम जल्द शुरू कराइए।
मुख्य पटना नगर पर से आबादी का बोझ घटाइए।
लोगों को काल के गाल में जाने से बचाइए।
प्रदूषण धीमा जहर है।
प्रदूषण कम करने का रिंग रोड भी एक अच्छा उपाय है।
मुजफ्फर पुर के लिए भी रिंग रोड का प्रस्ताव केंद्र को भेजिए।
अनुभव बताते हैं कि नगरों-महानगरों के रिंग रोड के बाएं -दाएं बड़ी आबादी बस जाती है।
स्कूल-अस्पताल-उद्योग भी स्थापित होने लगते  हैं।
25 नवंबर 2019

बक्सर में कथावाचक मोरारी बापू ने जोर देकर कहा कि
अयोध्या में ऐसा भव्य राम मंदिर बने जैसा मंदिर दुनिया में कहीं नहीं है।
  आज टी.वी.पर उनकी यह सलाह सुनने के बाद उत्साहित होकर मेरी पत्नी ने कहा कि उसके लिए मैं भी चंदा दूंगी।
  ऐसी है राम के प्रति आम लोगों की भावना !
 पर, इस देश में  ‘बाबरी प्रवृति’ के कुछ लोगों के मन में उस भावना की  कोई इज्जत  नहीं।
वैसी प्रवृति के कई  गैर मुस्लिम भी हैं।
  पर, यह शुभ संकेत है कि यहां के अधिकतर मुसलमानों ने 
अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का समर्थन किया है।
25 नवंबर 2019
   

रविवार, 24 नवंबर 2019

दलों को क्यांें नहीं सम्मानित किया जाए अच्छे संसदीय आचरण के लिए-सुरेंद्र किशोर



प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने सोमवार को राज्य सभा में दो राजनीतिक दलों की सराहना की।
उन्होंने कहा कि बीजू जनता दल और एन.सी.पी.ने लगातार संसदीय मर्यादा का पालन किया । उनके सदस्य कभी सदन के ‘वेल’ में नहीं गए।
बिहार विधान मंडल का संक्षिप्त सत्र शुरू हो रहा है।
क्या कोई दल यहां भी ऐसी मर्यादा का पालन करेगा ?
लगता तो नहीं है।
पर उम्मीद रखने में क्या हर्ज है ?
यदि कोई दल यह संकल्प करे कि उसके सदस्य कभी सदन के वेल में जाकर हंगामा नहीं करेंगे तो उस दल का सकारात्मक प्रचार होगा।
हंगामा करने वालों को भी प्रचार मिलता है,पर वह नकारात्मक होता है।
  साठ-सत्तर के दशकों में संसद में अनेक प्रतिपक्षी नेता
गण  प्रभावकारी भूमिका निभाते थे।हालांकि वे कभी वेल में नहीं जाते थे।
इन दिनों  अच्छी भूमिका  वाले सदस्यों को सम्मानित किया जाता है।
क्या बीजेडी और एनसीपी को अच्छे संसदीय आचरण के लिए दल के रूप में कभी सम्मानित किया जाएगा ?
     --एन.सी.सक्सेना की किताब-- 
केंद्र में ग्रामीण विकास सचिव रहे एन.सी.सक्सेना की भारतीय प्रशासनिक सेवा की स्थिति पर एक किताब आई है।
 बिहार के आई.ए.एस.अफसरों पर भी उन्होंने 1998 में बहुत ही कड़ा नोट लिखा था।
सक्सेना के अनुसार इस सेवा में भी भ्रष्टाचार प्रवेश कर रहा है।पर स्थिति उतनी खराब नहीं है जितनी कल्पना की जाती है।
वे लिखते हैं कि अब भी 75 प्रतिशत आई.ए.एस.अफसर ईमानदारी से अपना काम कर रहे हैं।
  बिहार के मुख्य सचिव रहे पी.एस.अप्पू ने भी इस राज्य में हुए अपने कटु अनुभवों को लिपिबद्ध किया है।
 यदि वरीय आई.ए.एस.अफसर अपनी सेवा के सदस्यों के बारे में कोई किताब लिखते हैं तो उससे लोगों को इस बात का पता चलता है कि कभी ‘स्टील फ्रेम’ के नाम से चर्चित इस सेवा में कितना जंग या मोरचा लग चुका है।
बिहार के अफसरों के बारे में सक्सेना ने तब लिखा था कि 
‘‘अफसरों में कोई कार्य संस्कृति नहीं है।
जन कल्याण की कोई चिंता नहीं हैे।राष्ट्र के निर्माण की कोई भावना नहीं है।’’..आदि..आदि..।
ऐसे में अनुमान लगा लीजिए  कि सक्सेना की ताजा पुस्तक में कैसी -कैसी बातें होंगी।
   --घुसपैठ की समस्या--
पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि ‘मैं पश्चिम बंगाल में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर तैयार करने की इजाजत नहीं दूंगी।’
 याद रहे कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि अवैध लोगों की पहचान के लिए पूरे देश में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर लागू होगा।
 ममता जी की इस मनाही का कारण अधिकतर लोग जानते -समते हैं।
माना जा रहा है कि ममता जी बंगला देशी घसपैठियों के बीच के अपने वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए  ही  एन.आर.सी.के खिलाफ हैं।
  अब देखिए पश्चिम बंगाल में घुसपैठियों की क्या स्थिति रही है।
  1987 में पश्चिम बंगाल सरकार के पास उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार उस राज्य में घुसपैठियों की संख्या 44 लाख थी।
1992 में केंद्र सरकार के पास जो
आधार पत्र था,उसके अनुसार पश्चिम बगाल में बंगलादेशियों की संख्या 50 लाख थी।
  आज की संख्या का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।
   यदि इस संबंध में अदालत का कोई निर्णय होगा,या फिर पश्चिम बंगाल में सरकार अगले चुनाव में बदलेगी तो क्या होगा ? 
    --एक भूली बिसरी याद--
पूर्व प्रधान मंत्री वी.पी.सिंह अपनी एस.पी.जी.सुरक्षा को  वापस
कर देने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक गए थे।
पर वे सफल नहीं हो सके।
क्योंकि तब की केंद्र सरकार उनकी सुरक्षा को वापस लेने के लिए राजी नहीं थी।
 अदालत ने कहा कि इस संबंध में कोई निर्णय सरकार ही करे।
  वी.पी.सिंह समझते थे कि ‘मेरी जान पर कोई खतरा नहीं है।’
  उल्टे उसका उन्हें नुकसान हो रहा था।यह बदनामी हो रही थी  कि उनकी  सुरक्षा पर सरकार बहुत  अधिक खर्च
 कर रही है।
  जीवन के आखिरी वर्षों में वी.पी.सिंह गंभीर रूप से बीमार हो गए थे। इलाज के लिए उन्हें विदेश जाना पड़ता था।
उनके साथ एस.पी.जी.के करीब एक दर्जन सुरक्षाकर्मी विदेश जाते थे।
   एक बार मीडिया में जब यह खबर आई कि वी.पी.सिंह के विदेश में इलाज पर 15 करोड़ रुपए खर्च हुए तो उन्होंने इसका प्रतिवाद करते हुए पत्र लिखा।वी.पी.सिंह ने लिखा कि ‘‘मेरे इलाज पर खर्च को बढ़ा चढ़ा कर बताया जा रहा है।
 1997 में मेरे इलाज पर तथा रहने और विदेश यात्रा पर हुआ कुल खर्च एस.पी.जी.के ग्यारह सदस्यीय दल पर हुए खर्च का सिर्फ दसवां हिस्सा था।
मैंने सरकार से बार -बार एस..पी.जी.सुरक्षा वापस लेने को कहा था। इस मुद्दे पर मैं सुप्रीम कोर्ट भी गया था।पर तत्कालीन सरकार ने मेरी बात नहीं मानी।’ 
       --और अंत में-
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पिछले महीने कहा था कि जल्द ही पुलिस के काम के घंटे तय कर दिए जाएंगे।
उम्मीद है कि गृह मंत्री अपने इस निर्णय को जल्द ही अमली जामा पहनाएंगे।
 यदि काम के घंटे तय हो जाएं और पुलिसकर्मियों के लिए अन्य सरकारी कर्मियों की तरह निर्धारित छुट्टियां भी मिलने लगें तो वे तनावमुक्त होंगे।उससे उनकी कार्य कुशलता भी बढ़ सकती है। 
--22 नवंबर, 2019 को ‘प्रभात खबर’-पटना- में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से।

   1978 में प्रकाशित ‘इंडियन नेशन’ की इसी खबर ने डा.वशिष्ठ नारायण सिंह की बीमारी,तंगहाली और बेबसी की ओर बिहार सरकार तथा लोगों का ध्यान पहली बार खींचा था
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अमेरिका के कोलम्बिया गणित संस्थान के निदेशक रह चुके 
डा.वशिष्ठ नारायण सिंह भोजपुर जिले के अपने गांव बसंत पुर में भीषण तंगहाली में निराश जीवन बिता रहे थे कि  पटना के अंग्रेजी दैनिक इंडियन नेशन ने उनकी दुर्दशा पर पहले पेज पर यह  खबर छापी।
   2 फरवरी, 1978 को प्रकाशित उस  खबर ने तत्कालीन मुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर का ध्यान खींचा।
उन्होंने डा.वशिष्ठ नारायण सिंह को रांची के मनो चिकित्सक डा.डेविस के किशोर नर्सिंग होम में सरकारी खर्चे पर इलाज शुरू कराया।
  कर्पूरी ठाकुर और राम सुंदर दास के मुख्य मंत्रित्वकाल तक तो इलाज का पैसा सरकार देती रही।
पर डा.जगन्नाथ मिश्र के मुख्य मंत्री बनते ही डा.वशिष्ठ को कांके के सरकारी मानसिक आरोग्यशाला में भत्र्ती करा दिया गया।
वहां की बदतर चिकित्सा व देखरेख से ऊबकर वशिष्ठ के परिजन उन्हें घर ले आए। बाद की कहानी तो अब आ चुकी है।
  

शनिवार, 23 नवंबर 2019

जब कोई डकैत पकड़ा जाता है तो क्या वह पुलिस से कहता है कि हमें जेल भेजने से पहले मेरे परिवार के लिए ‘सरकारी पेंशन’ की व्यवस्था कर दो  ?
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 क्या सरकारी जमीन -नाले-आहर पर कब्जा कर लेना डकैती से कम है ?
फिर उजाड़ने से पहले वैकल्पिक व्यवस्था की मांग क्यों ?
जल -जमाव से पटना के लोगों की पिछली दुर्दशा भूल गए ?
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यदि आपके घर से आपसे पूछे बिना एक तिनका भी
कोई उठाकर ले जाए तो आपको गुस्सा आता है।
पर,सरकार की जमीन पर जहां जो चाहे , बस जाते हैं।
दुकान खोल लेते हैं।
  नाला-नाली आहर-पइन पर नाजायज कब्जा कर लेते हैं।
नाला-नाली जाम के कारण इसी बरसात में पटना के लाखों लोगों को अपार कष्ट हुआ।
तब अनेक लोगों ने सरकार-नगर निगम को जमकर खरी-खोटी सुनाई।
ठीक ही किया।क्योंकि शासन की अनदेखी या साठगांठ से ही  कोई सरकारी जमीन पर कब्जा करता है।
 अब नालों आदि पर से जब शासन अतिक्रमण हटाने का काम सफलतापूर्वक कर रहा है तो कुछ नेताओं को गरीबों की याद आ रही है।
  कह रहे  हैं कि वैकल्पिक व्यवस्था के बिना किसी को मत उजाड़ो।
  अब बताइए, जितने लोगों ने जबरन सरकारी जमीन पर कब्जा कर रखा है, उन सबके लिए वैकल्पिक व्यवस्था करना किसी भी सरकार के बूते की बात है ?
  चोरी -डकैती करने वाले अधिकतर अपराधी गरीब पृष्ठभूमि के ही होते हैं।
यदि उनमें से कोई पकड़ा जाता है तो क्या वह पुलिस से कहता है कि हमें जेल भेजने से पहले मेरे परिवार के गुजारे  की व्यवस्था कर दो ? 
   क्या सरकारी जमीन पर कब्जा डकैती से कम है ? 
23 नवंबर 2019
   

शुक्रवार, 22 नवंबर 2019

संदर्भ --
झारखंड सरकार  के मंत्री
सरयू राय  
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यदि किसी नेता के पास अपना जमीर भी हो और अपनी बुद्धि भी ! 
और, यदि जमीर-बुद्धि जागृत अवस्था में भी हो !
तो फिर ऐसी ‘गैर जरूरी’ चीजों का ‘व्यापक दलीय अनुशासन’ से एक न एक दिन टकराव स्वाभाविक है।

अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की गलत व्याख्या


  
अयोध्या पर अपने ऐतिहासिक फैसले में 9 नवंबर, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि 
‘‘ए.एस.आई.की रिपोर्ट से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि विवादास्पद ढांचे के नीचे मिले अवशेष इस्लामिक मूल के नहीं थे।
अवशेष मंदिर के थे।
मस्जिद को खाली जमीन पर नहीं बनाया गया था।
यानी, वहां पहले से मंदिर था।
हालांकि ,ए.एस.आई. की रिपोर्ट में इसका जिक्र नहीं है कि मस्जिद बनाने के लिए मंदिर तोड़ा गया था या नहीं।’’
  बाबरी मस्जिद के समर्थक कुछ अतिवादी मुस्लिम नेतागण इस अंतिम पंक्ति को लेकर यह जिद कर रहे हैं कि राम मंदिर को तोड़ कर बाबरी मस्जिद नहीं बनाई गई,ऐसा सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया है।
 अरे भई, सुप्रीम कोर्ट इतना ही तो कह रहा है कि ए.एस.आई.की रिपोर्ट में तोड़कर बनाने का जिक्र नहीं है।
  यदि ए.एस.आई. को उसका सबूत नहीं मिला तो इसका क्या मतलब है ?
क्या मंदिर की जगह बाबरी मस्जिद किसी जादू-टोने  से बन गया ?
किसे दिग्भ्रमित कर रहे हैं आपलोग ?
सुप्रीम कोर्ट के इससे पहले के  वाक्य को क्यों नजरअंदाज कर रहे हैं कि 
‘‘मस्जिद खाली जमीन पर नहीं बनाया गया था।यानी वहां पर पहले मंदिर था।’’
  किस तरह सदियों से मंदिरों को तोड़- तोड़ कर मस्जिदें बनाई गई हैं,इसके अनेक सबूत जहां -तहां बिखरे पड़े हैं।
वे बातें पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों की
जुबान पर रही  हैं।
   उसके कारण जो कटुता है,उसे कम करने या दूर करने का अवसर सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय दे रहा है।
उसका लाभ उठाइए।
 दोनों समुदायों के अधिकतर लोग कटुता खत्म करके शांतिपूर्ण जीवन बिताने व तरक्की करने के पक्षधर हैं।
काशी का ज्ञानव्यापी मस्जिद वाला सबूत तो कोई भी व्यक्ति गुगल पर आज भी देख सकता है ।
  ऐसे ही कारणों से इस देश के अधिकांश मुस्लिम समाज सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट से राहत महसूस कर रहे  हंै और आगे कोई विवाद खड़ा करने के पक्ष में नहीं हंै।
यहां तक कि दिल्ली के जामा मस्जिद के इमाम बुखारी तक इसी राय के हैं।
  यदि किसी को इस बात पर फिर भी शक है कि अतिवादी मुस्लिम जमात मंदिरों के बारे में क्या राय रखती रही  है,वे निम्नलिखित फोटोकाॅपी में दर्ज बयान को पढ़ लें।
  यह फोटोकाॅपी 30 सितंबर 2001 के ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ का है।
उसमें सिमी के अहमदाबाद जोन के सेके्रट्री साजिद मंसूरी 
का बयान छपा है।
साजिद ने कहा है कि ‘‘जब कभी हम सत्ता में आएंगे तो हम सारे मंदिरों को ध्वस्त करके वहां मस्जिद बनाएंगे, चाहे वे मंदिर सोने के ही क्यों न बने हों।’’
  क्या ऐसी सोच सिर्फ साजिद की है ?
या ऐसी सोच सदियों से परंपरा में चली आई है ?
ऐसी ही सोच के कारण आज भाजपा सत्ता में है।
यदि अयोध्या विवाद को आगे खींचा जाएगा तो भाजपा की चुनावी राह आसान होती चली जाएगी।
अब सिमी के बारे में कुछ बातंे।
सिमी पर जब प्रतिबंध लगा था तो उस संगठन के कुछ लोगों ने इंडियन मुजाहिद्दीन बना लिया।
केरल में जब अतिवादी संगठन ‘पोपुलर फं्रट आॅफ इंडिया’ का गठन हुआ तो केरल सरकार  
ने कहा कि इसके पीछे सिमी के लोगों का हाथ है।
  

बुधवार, 20 नवंबर 2019

  बिल्डर्स-डेवलपर्स का अयोध्या कूच
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रामजी की कृपा से बिल्डिरों और डेवलपरों की चांदी होने 
वाली है।
चांदी कौन कहे ,मिट्टी को सोना बनाने के लिए बाहर के डेवलपर्स भी अयोध्या कूच कर रहे हैं।
  कुछ तो पहुंच भी चुके हैं।
 मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम के भव्य मंदिर के निर्माण के साथ -साथ अयोध्या और आसपास के इलाकों का भी तेज विकास 
अवश्यम्भावी है।
  मंदिर बनने के बाद संभवतः अयोध्या देश का  सबसे बड़ा तीर्थ स्थल बन जा सकता है।
राम घट -घट में जो हैं !
 जैसे-जैसे इस देश में राक्षसी प्रवृति वाले रावणों की संख्या बढ़ेगी,उनके सफाए के लिए लोगबाग उस प्रेरणास्थल की ओर रुख करेंगे।
  रावण न सिर्फ बाहर है बल्कि कई लोगों के भीतर भी है।
आज की राजनीति-ब्यूरोक्रेसी-न्यायपालिका  में जो थोड़े से 
अच्छी  प्रवृति के लोग हैं,उनकी भी नहीं चलने दे रहे हैं आज के ताकतवर रावण।
लगता है कि दस सिर वाले की ताकत त्रेता से भी अधिक हो चुकी है।
 ताजा उदाहरण प्रदूषण से पीडि़त लोगों का है।
प्राण जाए,पर वोट न जाए !
इस प्रवृति वाले नेतागण प्रदूषण के लिए एक दूसरे को जिम्मेदार ठहरा कर अपने कत्र्तव्यों की इतिश्री कर रहे हैं।
पर एक साथ मिलकर प्रदूषण नामक मानवनिर्मित राक्षस से लड़ने को वे तैयार ही नहीं हैं।
 उससे वोट के बिदकने का खतरा जो है !
 ऐसे लोगों से राम जी बचाएं इस देश को !


  

    शर्मिष्ठा मुखर्जी का अर्ध सत्य
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प्रणव मुखर्जी की पुत्री शर्मिष्ठा मुखर्जी के अनुसार 
‘‘वी.पी.सिंह ने राजीव गांधी की एस.पी.जी.सुरक्षा हटा ली थी।
उसके बाद की घटना इतिहास है।’’
  शर्मिष्ठा ने अर्ध सत्य कहा है।
 जानबूझ कर वह यह भूल गर्इं कि 1988 में जो एस.पी.जी.कानून बना,उससे  सिर्फ मौजूदा प्रधान मंत्री को ही सुरक्षा मिलनी थी।
संभवतः राजीव गांधी व उनके सलाहकार यह मानते थे कि राजीव गांधी कभी प्रधान मंत्री पद से हटेंगे ही नहीं।
किन्तु जब वी.पी.सिंह ने सत्ता संभाली तो उन्होंने राजीव सरकार के बनाए कानून को लागू भर किया।
   वैसे भी वी.पी.सिंह की सत्ता अवधि में राजीव गांधी सुरक्षित भी रहे।
पर, जब कांग्रेस की मदद से चंद्र शेखर की सरकार बनी तो राजीव गांधी की हत्या हो गई।
उससे पहले कई महीने चंद्रशेखर सत्ता में रहे थे।
पर राजीव गांधी या कांग्रेस ने चंद्रशेखर  पर इस बात के लिए दबाव नहीं डाला कि 
एस.पी.जी.कानून में बदलाव करिए और राजीव परिवार को उसके तहत लाइए।
भले राजीव  प्रधान मंत्री रहें या नहीं।
चंद्र शेखर सरकार पर राजीव ने दबाव डाल कर उन्हें इस्त्ीफा देने पर मजबूर किया भी तो उसका कारण दूसरा था।वह कोई देशहित वाला कारण नहीं था।
वह बात आज यहां लिखने लायक भी नहीं है।    


  दुख ही जीवन की कथा रही
       सुरेंद्र किशोर  
अमेरिकी अर्थशास्त्री और गणितज्ञ जाॅन फोब्र्स नैश @1928-2015@करीब एक दशक तक  सिजोफ्रेनिया से पीडि़त रहे।उचित इलाज के बाद ठीक भी हो गए थे।
बाद में उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला।
   यहां के कुछ लोग यह सवाल पूछते रहे  कि यदि नैश ठीक हो सकते हैं तो फिर बिहार के गौरव डा.वशिष्ठ नारायण सिंह क्यों नहीं ?
इसका जवाब यही हो सकता है कि भारत न तो अमेरिका है और न ही यहां की सरकारें अमरीका जैसी हैं।न ही नेतागण।
  दरअसल अद्भुत प्रतिभा के धनी रहे गणितज्ञ डा.सिंह के साथ विडंबना रही कि बीमार होने के बाद वे लगातार तरह -तरह की उपेक्षा के शिकार रहे।
पारिवारिक, सामाजिक और सरकारी उपेक्षा।
ऐसी प्रतिभा किसी अन्य देश में होती तो उसे  दुनिया की सर्वोत्तम चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराई जाती,जैसी चिकित्सा सुविधा नैश को मिली थी।
ऐसी प्रतिभा की भी उपेक्षा तो शायद हमारे सिस्टम की भी देन है।
14 नवंबर, 2019 की सुबह जब डा.वशिष्ठ नारायण सिंह की तबियत बिगड़ी तो उन्हें पटना मेडिकल काॅलेज अस्पताल ले जाया गया।
वहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया।
उनके निधन के बाद उनके परिजन ने शव गांव ले जाने के लिए जब अस्पताल से एम्बुलेंस की मांग की तो पांच हजार रुपए देने को कहा गया।
बाद में सरकारी अधिकारियों के हस्तक्षेप से वाहन का प्रबंध करके उन्हें गांव भिजवाया गया।
सत्तर के दशक में मानसिक रूप से बीमार हो जाने के साथ ही वशिष्ठ नारायण सिंह  की पत्नी वंदना सिंह ने उन्हें तलाक दे दिया।
  1944 में बिहार के  भोजपुर जिले के गांव बसंत पुर में जन्मे वशिष्ठ नारायण सिंह को उनके जीवन के प्रारंभिक साल में तो खूब प्रसिद्धि मिली।
उनकी अद्भुत प्रतिभा से पहले पूरा बिहार और बाद में बाहर के लोग चमत्कृत थे।
पर,जब सिजोफ्रेनिया के कारण कुछ करने लायक नहीं रहे तो उनके कांस्टेबल पिता लाल बहादुर सिंह ने कहा था कि ‘मेरा तो सोना का जहाज डूब गया।’
उसी दुख के साथ वे गुजर गए।वशिष्ठ जी के भाई व बहनोई ने उनकी देखभाल की।   
 हमलोग तो अद्भुत प्रतिभा के धनी गणितज्ञ वशिष्ठ बाबू के जमाने के छात्र थे और उनसे मिले बिना भी उनसे प्रेरित होते थे।
उन दिनों राज्य भर की  शिक्षण संस्थाओं में वशिष्ठ जी की यदाकदा चर्चा होती रहती थी।शिक्षकगण उनका नाम लेकर छात्रों को प्रेरित करते थे।वे बिहार के गांवों में भी दंतकथा के पात्र थे।
  हों भी क्यों नहीं  ?
उनके लिए पटना विश्व विद्यालय ने पहली बार नियम बदल कर जल्दी -जल्दी उन्हंे एम.एससी.करवा दी थी।
उन्होंने 1962 में हायर सेकेंड्री परीक्षा पास की थी।प्रतिष्ठित नेतरहाट स्कूल में पढ़ेे वशिष्ठ जी बिहार बोर्ड के टाॅपर थे।
पर जब पटना साइंस काॅलेज में दाखिला लिया तो शिक्षकों ने पाया कि ये तो ऊंची कक्षाओं के विषयों में भी पारंगत हैं।
वे कक्षाओं में शिक्षक से ऐेसे -ऐसे सवाल करते थे जिनसे 
शिक्षक भी अचंभित हो जाते थे।
वशिष्ठ जी को पटना साइंस काॅलेज के प्राचार्य नागेंद्र नाथ और कुलपति जैकब से मिलवाया गया।
जांच के बाद उन्होंेने पाया कि वशिष्ठ को एम.एससी.कराने के लिए 5 साल का लंबा समय  लगाना निरर्थक है।
समय से पहले ऊंचे क्लास की परीक्षा में बैठाने के लिए पटना विश्व विद्यालय के नियम में परिवत्र्तन किया गया।
नतीजतन वे 1965 में ही एम.एससी.कर गए।
इस बीच वर्कले  विश्व विद्यालय के गणितज्ञ जाॅन एल.केली एक सेमिनार के सिलसिले में पटना आए थे।
पटना साइंस काॅलेज के प्रिंसिपल नासु नागेंद्र नाथ ने
वशिष्ठ नारायण सिंह को केली से मिलवाया।
केली ने जब वशिष्ठ नारायण सिंह की प्रतिभा देखी- जानी तो वे उन्हें अमेरिका ले गए।
 वहां 1969 में तो उन्होंने  पीएच.डी.कर ली।
उन्होंने कुछ समय के लिए ‘नासा’ के लिए भी काम किया।
 चर्चा थी कि वशिष्ठ  आइंस्टीन की सापेक्षता थ्योरी को चुनौती दे रहे थे।यह भी चर्चा रही कि केली उन्हें अपना दामाद बनाना चाहते थे।पर वशिष्ठ के भारतीय पिता इस शादी के खिलाफ थे।वशिष्ठ आज्ञाकारी पुत्र थे।
1973 में वशिष्ठ जी की शादी भोज पुर के ही पास के सारण जिले के खलपुरा गांव के डा.दीपनारायण सिंह की पुत्री वंदना से हुई।
अमेरिका से लौटने के बाद उन्होंने आई.आई.टी.कानपुर,टी.आई.एफ.आर.मुम्बई और इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट, कोलकाता में बारी-बारी से काम किया। संस्थान में अनेक शोधार्थी वशिष्ठ नारायण सिंह से मार्ग दर्शन ले रहे थे।
पर कुछ ही साल बाद उनके दिमाग के तंतु उलझ गए यानी वे सिजोफं्रेनिया के मरीज हो गए।
जिनके ज्ञान से ‘नासा’ ने अंतरिक्ष मिशन को आगे बढ़ाया,वह अपने गांव में वर्षों तक  गुमनामी में जीते रहे थे ।बीच -बीच में रांची और बंगलुरू में उनका इलाज भी चला।
पर लोगों की यह आम धारणा थी कि सरकार को उनका बेहतर इलाज कराना चाहिए था।
 1989 में एक ट्रेन यात्रा के दौरान वशिष्ठ जी अपने भाई से बिछुड़ गए थे । लगातार चार साल तक  गायब रहे।
  1993 में नाटकीय ढंग से वे अपनी सुसराल के पास के गांव में पाए गए।
उन्हें उनके गांव बसंत पुर के युवकों ने पहचान लिया था।
 हाल के वर्षों में ‘नोवा’ ने वशिष्ठ जी  के  पटना में रहने की व्यवस्था कर दी थी।
 नोवा यानी नेतरहाट के पूर्ववर्ती छात्रों का संगठन।इसके सदस्य बड़े -बड़े पदों पर रहे हैं।
वशिष्ठ जी का उदाहरण इस बात की जरुरत बताता है कि  ऐसी प्रतिभाओं के लिए सरकार पेंशन का प्रावधान करे।

कुछ अच्छी खबरें
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1.-
केंद्र सरकार गंगा की अविरलता को बाधित और उसे प्रदूषित करने वालों के लिए कड़ी सजा का प्रावधान
कर सकती है।
इस संबंध में संसद के इसी सत्र  में विधेयक लाया जाने वाला है।
पांच साल तक कैद की सजा और 50 करोड़ रुपए तक के जुर्माने का प्रावधान किया जा सकता है।
2.-
पूर्व केंद्रीय मंत्री वीरेंद्र सिंह ने राज्य सभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया।उनका पौने तीन साल का कार्यकाल बाकी था।
उनके पुत्र अब भाजपा सांसद हैं।
वीरेंद्र सिंह का मानना है कि एक परिवार से एक ही व्यक्ति को सांसद या विधायक होना चाहिए।
3.-
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि बीजद और एन.सी.पी.के सांसद कभी सदन के वेल में नहीं जाते।
यह उनका स्व -अनुशासन है जो सराहनीय है।  

  एक सवाल ईश्वर से
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2010 में पूर्व सोलिसिटर जनरल सोली सोराबजी से
 ‘‘अहा ! जिंदगी’’ ने पूछा था,
‘‘यदि आपको ईश्वर से एक सवाल पूछना हो तो वह क्या होगा ?’’
जवाब था-‘‘आप यह सुनिश्चित क्यों नहीं कर सकते कि जो लोग नियमों का पालन करते हैं, वे पीड़ा नहीं भुगतेंगे ?’’  

2002 के गुजरात दंगे के बाद प्रफुल्ल गोड़ारिया ने 
1 जुलाई 2002 के पायनियर में लेख लिखकर यह सवाल उठाया था,
कि ‘‘इस देश में ईसाइयों और हिन्दुओं के बीच दंगे क्यों 
नहीं होते ?’’

शनिवार, 16 नवंबर 2019

अमेरिका के बर्कले से पिता के नाम 
डा.वशिष्ठ नारायण सिंह का पत्र
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बर्कले, 10 फरवरी, 1968
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  पूज्य पिता जी,
     सादर प्रणाम।                                                      
  मैं यहां कुशलपूर्वक रहते हुये आपकी कुशलता के लिए ईश्वर से प्रार्थना करता हूं जिसे सुनकर दिल खुश हो।
2 फरवरी की लिखी हुई आपकी चिट्ठी कल मिली।
पढ़कर बहुत खुशी हुई।
  प्रो.केली ने पूरे परिवार की तरफ से आपको प्रणाम भेजा है।
वे कल आपकी बहुत प्रशंसा कर रहे थे।
    सीता बब्बी की शादी के बारे में मां को समझाइएगा।
परिवार ने तो एक बड़ी गलती यह की कि उसको पढ़ाया नहीं।
पढ़ाना चाहिए था जिससे उसकी बुद्धि का विकास होता।
आदमी और पशु में बुद्धि का ही बड़ा अंतर है।
खैर, पढ़ने से ही बुद्धि नहीं होती और बहुत से बुद्धिमान व्यक्ति पढ़े-लिखे नहीं होते।
लेकिन यदि सीता बब्बी को पढ़ाया जाता तो आपको उसकी शादी के विषय में बहुत चिंता नहीं करनी पड़ती।
हमारे यहां तो तिलक देने का रिवाज है जो बहुत बड़ी मूर्खता है।तिलक का रुपया तो लड़की को शिक्षित करने में खर्च करना चाहिए।
हमलोग भी तिलक देंगे लेकिन  कम से कम मूर्ख लड़के से बब्बी की शादी नहीं करेंगे।
  वैसे लड़के से शादी करेंगे जो बुद्धिमान हो,स्वस्थ हो,सच्चरित्र हो ,लेकिन समाज की कुरीतियों से नहीं डरे।
   अपने समाज में बहुत कुरीतियां हैं।
अपने समाज में साधारण आदमी अपनी बुद्धि का उपयोग नहीं करता।
केवल कहावत के अनुसार चलता है।
   आप सीता बब्बी को अंग्रेजी पढ़ने को कहिए।
और मेरी किताबों को पढ़कर गणित सीखने को कहिए।
हो सके तो एक लेडी मास्टर भी रख लीजिए।
यदि वह अभी अंग्रेजी पढ़ेगी तो भविष्य में अच्छा होगा।
अभी उसका मन बहलेगा और भविष्य में मुझे यदि उसको यहां बुलाना हो तो आसानी होगी।
बब्बी की शादी अभी नहीं की जाएगी।
     आप श्रीकृष्ण ,छठीलाल और संतोष को भी अंग्रेजी मन से पढ़ने को कहिएगा।अंग्रेजी और विज्ञान दोनों।
श्रीकृष्ण का उत्साह कम मत होने दीजिएगा।
नेतरहाट की परीक्षा पास न करे तो आरा या पटना कालेजियेट में उसका नाम लिखवा दिया जाएगा।
खैर, उसको यह बात समझा दीजिएगा कि उसकी पढ़ाई की चिंता तभी की जाएगी जब वह सब कुछ छोड़कर मन लगा कर पढ़ेगा।
   मेरा विश्वास है कि श्रीकृष्ण मन लगा कर पढ़ता है।
वह गांव के स्कूल की परीक्षा में द्वितीय आया था।
मिहनत करके फस्र्ट आना चाहिए।उसका उत्साह बढ़ाए रखिएगा।
मां,बड़ी मां ,मौसी, भाभी लोग ,बड़े बाबू जी और भैया लोगों को सादर प्रणाम।
  सावित्री और अशोक का समाचार लीखिएगा।
बड़ों को सादर प्रणाम और छोटों को शुभाशीर्वाद।
  शेष कुशल है।
आप अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखिएगा।
बड़े बाबू जी को भी स्वास्थ्य पर ध्यान देने को कहिएगा।
काशी, इंद्रदेव भाई श्री अयोध्या सिंह .......कुछ नाम अस्पष्ट हैं--को यथायोग्य।
                   आपका..... ---वशिष्ठ.   

गुरुवार, 14 नवंबर 2019


राफेल मामले में
कपिल सिब्बल होशियार निकले।
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मशहूर वकील और कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने 2 सितंबर 2018 को ही कह दिया था कि राफेल से संबंधित जरूरी दस्तावेज मिलने पर ही मैंं उस मामले में अदालत में याचिका दायर करूंगा।
 सिब्बल ने खोजा।पर जब नहीं मिला तो उन्होंने याचिका दायर नहीं की।
पर,राहुल गांधी,यशवंत सिन्हा  और अरूण शौरी जैसे अधीर नेता इस मुद्दे पर मोदी सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाते रहे।
  मीडिया का एक हिस्सा भी उस अभियान में शामिल रहा।
अंततः सुप्रीम कोर्ट ने आज कह दिया कि राफेल मामले की जांच की जरूरत नहीं।
राहुल गांधी को पहले ही माफी मांगनी पड़ गई थ़ी।
अदालत ने राहुल को आज चेताया भी।उनकी माफी मंजूर की।
उम्मीद है कि सिन्हा और शौरी शर्माए होंगे।
मीडिया के उस हिस्से की साख में कमी आई।
कुछ को तो सरकारी विज्ञापन का भी घाटा उठाना पड़ा।
दूसरी ओर सरकारी पक्ष का मनोबल बढ़ा।
अब कांग्रेस के कुछ लोग कह रहे हैं कि बोफर्स में भी तो राजीव गांधी को क्लीन चीट मिल गई थी।
पर यह एक और ‘कांग्रेसी झूठ’ है।क्लीन चिट सिर्फ हाईकोर्ट से मिली थी।
बोफर्स तोप खरीद घोटाला मामले को तो कांग्रेस सरकार ने तार्किक परिणति न्यायिक परिणति तक पहुंचने ही नहीं दिया।सुप्रीम कोर्ट में मामला जाने ही नहीं दिया।
उस संबंध में अब भी लोकहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।
 इस बीच दलाल विन चड्ढ़ा के मुम्बई स्थित फ्लैट को आयकर महकमे ने इसी माह नीलामी पर चढ़ा दिया।
   याद रहे कि 2010 में यानी मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ही आयकर न्यायाधिकरण ने कहा था कि क्वात्रोचि और विन चड्ढ़ा को बोफर्स सौदे में 41 करोड़ रुपए की दलाली मिली थी।
उस पर भारत सरकार के आयकर महकमा का टैक्स बनता है।
उसी सिलसिले में नीलामी हुई। 


  नेहरू का राष्ट्रधर्म और आज की कांग्रेस 
         -- सुरेंद्र किशोर--   
आज भारत और पाकिस्तान के बीच जो तनातनी है,
वह किसी छिपी नहीं ,फिर भी कांग्रेस के कुछ नेता उसके खिलाफ नहीं ,बल्कि ऐसे बयान देते रहते हैं जो भारत सरकार के विरुद्ध जाते हैं।
  जाहिर तौर पर पाकिस्तान इन बयानों का अपने पक्ष में इस्तेमाल करता है।
नेहरू के जमाने में भी कांग्रेस के अपने वोट बैंक थे।
लेकिन चीनी हमले के समय नेहरू ने वोट बैंक की परवाह नहीं की।
चीनी हमले से उत्पन्न विषम स्थिति में देश को बचाने के लिए उन्होंने उन देसी -विदेशी शक्तियों से भी मदद ली  जिन्हें वह  हिकारत भरी नजरों से देखते थे और जिनसे उनके  राजनीतिक -सैद्धांतिक मतभेद थे।
लगता है  आज के कांग्रेसी नेता यह सब भूल चुके है।
चीनी हमले के समय नेहरू ने इजरायल से भी हथियार मंगाए।ध्यान रहे कि तब तक भारत ने इजरायल को मान्यता नहीं दी थी।
हथियार मंगवाने के क्रम में नेहरू ने अरब देशों से अपनी दोस्ती की भी परवाह नहीं की।
उन्होंने  इजरायल को  लिखा था कि आप ऐसे जहाज से  हथियार भेजें जिन पर  आपके देश का ध्वज  न हो।
इजरायल  जब इस  पर राजी नहीं हुआ  तो नेहरू ने ध्वज सहित जहाजों  की अनुमति  दी। कुछ कम्युनिस्टों को छोड़कर  तब  प्रतिपक्ष ने आरोप नहीं लगाया कि नेहरू विदेश नीति से समझौता कर रहे हैं।
लेकिन आज जब मोदी सरकार अपनी सीमाओं की रक्षा और कश्मीर में आतंकियों के मुकाबले के लिए कुछ करती है तो प्रतिपक्ष युद्धोन्माद का आरोप लगाता है।
क्या देश पर प्रत्यक्ष -परोक्ष हमले कव विरोध करना   युद्धोन्माद  है ?  
   नेहरू ने चीन के हमले के बाद न सिर्फ अमेरिका से संबंध सुधारे थे,बल्कि  संघ के स्वयंसेवकों को  1963 के गणतंत्र दिवस परेड में शामिल होने का मौका भी दिया था।
साफ है कि उनके लिए देश पहले था।
संघ के शाहदरा मंडल के कार्यवाह विजय कुमार 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में गणवेशधारी सदस्यों के समूह में शामिल थे।
 कुछ साल पहले उन्होंने बताया  था परेड से सिर्फ  24 घंटे पहले शासन से यह आमंत्रण आया कि हमें परेड में शामिल होना चाहिए।
कम समय की सूचना पर भी तीन हजार स्वंयसेवक शामिल हुए।
इससे पहले स्वयंसेवकों ने चीनी हमले के समय सीमा स्थित बंकरों में जाकर सैनिकों को खीर खिलाई थी।
संभवतः इसकी खबर नेहरू को थी।  
    चीनी हमले के दौरान नेहरू ने चीन और सोवियत संघ,दोनों से एक साथ  झटके खाए थे।
माना जाता है कि  यदि  नेहरू कुछ और साल  जीवित रहते तो वह  संभवतः विदेश नीति को ही  बदल देते।
  क्योंकि राष्ट्रधर्म यही मांग कर रहा था।
 कुछ दस्तावेजों से यह साफ है कि नेहरू के साथ न सिर्फ चीन ने धोखा किया, बल्कि सोवियत संघ ने भी मित्रवत व्यवहार नहीं किया।
इसे देश कर उन्होंने अपनी पुरानी लाइन के खिलाफ जाकर अमेरिका की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया।
ज्ञात हो कि अमेरिका के भय से ही चीन ने हमला बंद किया था।
 यह आम धारणा सही नहीं कि 1962 में सोवियत संघ की नीति थी कि ‘दोस्त भारत’ और ‘भाई चीन’ के बीच युद्ध में हमंें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
 लेखक एजी नूरानी का कहना है कि 
 सोवियत संघ की सहमति के बाद ही चीन ने 1962 में भारत पर चढ़ाई की थी।
 इसकी पुष्टि में लेखक ने  सोवियत अखबार ‘प्रावदा’ और चीनी अखबार ‘पीपुल्स डेली’ में 1962 में छपे संपादकीय को सबूत के रूप में पेश किया था।
  चूंकि खुद नेहरू वास्तविकता से वाकिफ  हो चुके थे
इसीलिए उन्होंने अमेरिका के साथ के अपने ठंडे रिश्ते को भुलाकर राष्ट्रपति जाॅन एफ.कैनेडी को मदद के लिए कई  संदेश भेजे।
  इससे कुछ समय पहले कैनेडी से नेहरू की  अपनी एक  मुलाकात के बारे में खुद कैनेडी ने  कहा था कि ‘नेहरू का व्यवहार काफी रूखा  रहा।’
 चीन ने  अक्तूबर, 1962 में  भारत पर हमला किया था।
चूंकि तब हमारी सैन्य तैयारी लचर थी और हम ‘पंचशील’ के मोहजाल में  फंसे थे , इसलिए चीन भारी पड़ा।
नेहरू का कैनेडी के नाम त्राहिमाम संदेश इतना दयनीय और समर्पणकारी था कि अमेरिका में भारत के राजदूत  बी.क.े नेहरू कुछ क्षणों के लिए इस दुविधा में पड़ गए कि इस पत्र को व्हाइट हाउस तक पहुंचाया जाए या नहीं।
आखिर में उन्होंने वह काम बेमन से किया।
दरअसल उस पत्र में अपनाया गया रुख  नेहरू के अमेरिका के प्रति पहले के विचारों से  विपरीत था।
 इससे लगा कि  नेहरू अपनी विफल विदेश और घरेलू नीतियों को बदलने की भूमिका तैयार कर रहे थे।
  चीनी हमले को लेकर भाकपा भी दो हिस्सों में बंट गई थी।
एक गुट मानता था कि ‘विस्तारवादी भारत’ ने  ही चीन पर चढ़ाई की ।
बाद में चीनपंथी गुट ने सी.पी.आई.-एम बनाया।
 नेहरू ने 19 नवंबर, 1962 को अमेरिकी राष्ट्रपति को लिखा था कि ‘ हम न केवल लोकतंत्र की रक्षा, बल्कि  देश के अस्तित्व की रक्षा के लिए भी चीन से हारता हुआ युद्ध लड़ रहे हैं।इसमें आपकी तत्काल सैन्य मदद की  सख्त जरूरत है।’
उस दौरान नेहरू ने अमेरिका को एक ही दिन में दो -दो चिट्ठियां लिख दीं।
इन चिट्ठियों को पहले गुप्त रखा गया  ताकि नेहरू की दयनीयता देश के सामने न आ पाए,
पर चीनी हमले की 48 वीं वर्षगाठ पर एक अखबार ने उन्हें सार्वजनिक कर दिया।
   आजादी के बाद नेहरू के प्रभाव में भारत ने गुट निरपेक्षता की नीति अपनाई जबकि सरकार का झुकाव सोवियत लाॅबी की ओर था।
एक संवदेनशील प्रधान मंत्री,जो देश के तमाम लोगों का ‘हृदय सम्राट’ था,1962 के धोखे के बाद भीतर से टूट गया।
युद्ध के बाद नेहरू सिर्फ 18 माह ही जीवित रहे।
  चीन युद्ध में पराजय से हमें यही शिक्षा मिली कि किसी भी दल  के लिए राष्ट्रहित और सीमाओं की रक्षा का दायित्व सर्वोपरि होना चाहिए।
इस दायित्व का निर्वाह दुनिया के सब देश करते हैं,लेकिन अपने देश में उसे लेकर संकीर्ण राजनीति होती है।
कांग्रेस को यह भी याद रखना चाहिए कि नेहरू समय -समय पर अपनी गलतियों को सार्वजनिक रूप से स्वीकार भी करते थे।
  वह कई सहकर्मियों की राय के सामने झुके।
1950 में राष्ट्रपति का नाम तय करने के समय नेहरू ने पहले ते राज गोपालाचारी को राष्ट्रपति बनाने की जिद की,पर जब देखा कि उनके नाम पर पार्टी में सहमति नहीं बन रही है तो वह राजेंद्र प्रसाद के नाम पर राजी हो गए।
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-- 14 नवंबर, 2019 को दैनिक जागरण में प्रकाशित मेरा लेख।





    

बुधवार, 13 नवंबर 2019

साठ के दशक में अपने गांव में मैंने एक कहावत 
सुनी थी।
‘‘लडि़का मालिक बूढ़ दीवान।
ममिला बिगड़े सांझ -बिहान।।’’
यह कहावत कुछ जमींदारों को ध्यान में रख कर परंपरागत विवेक वाले बुजुर्गों ने बनाई थी।
अब आज की राजनीति
पर भी यह लागू हो रही है।
वंशवाद को आगे बढ़ाने के लिए ‘लडि़का’ को दल का मालिक बनाने का खामियाजा कुछ दलों को तो भुगतना ही पड़ रहा है।
आगे-आगे देखिए होता है क्या !!!!!

मंगलवार, 12 नवंबर 2019


पटना के गांधी सेतु पर जाम में जब बड़े नेता फंसे
तभी धृतराष्ट्र बने पुलिस अफसरों की आंखें खुलीं।
नतीजतन सेतु पर सुशासन का चीर हरण कर रहे 
45 पुलिसकर्मी निलंबित हुए।
गांधी सेतु से गुजरने
वाली पूरी आबादी जानती है कि 
वहां कैसे -कैसे दुःशासन तैनात रहते हैं।
क्योंकि आम जनता तो रोज ही एक तरफ भीषण जाम में घंटों फंसी रहती है तो दूसरी ओर लोगों की आंखें के सामने वसूली करके प्रतिबंधित वाहनों को पास कराया जाता है।
500 से 1000 रुपए तक प्रति वाहन !
इतनी बड़ी आय न जाने कितने अफसरों -नेताओं को धृतराष्ट्र बना दे !
 अब देखना है कि कब किन्हीं स्वजातीय या फिर हिस्सेदार  नेताओं -अफसरों की पैरवी पर इन 45 निलंबितों के निलंबन उठ जाते हैं !
फिर चीर हरण शुरू होने में कोई देर नहीं लगेगी।
2018 में भी ऐसे ही चीर हरण के आरोप में एस.एस.पी.मनु महाराज ने दो थानेदारों सहित 55 पुलिसकर्मियों को निलंबित किया था।
उन निलंबनों पर आगे की कौन सी कार्रवाई हुई ?
किसी को कोई सजा मिली ?
मिली होती तो एक बार फिर 45 को निलंबित क्यों करना पड़ता ?
फाॅलो अप के लिए संवाददाताओं को कहां फुर्सत रहती है !
उन पर रोज-बरोज के काम का ही इतना अधिक बोझ  रहता है कि बेचारा संवाददाता और कितना कुछ करेगा ?
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कई दशक पहले की बात है।
कहीं पढ़ा था ।
क्राइम की  निरंतर व सटीक फाॅलो -अप रिपोर्टिंग के कारण ही दिल्ली के हिन्दुस्तान टाइम्स का सर्कुलेशन कभी आसमान छूने लग गया था।  

डा.राजेंद्र प्रसाद ने 1950 में राष्ट्रपति का पद संभाला था।
संसद में उनके पहले अभिभाषण के समय का यह ग्रूप फोटोग्राफ है।
  प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल के सदस्यों के साथ राष्ट्रपति की यह तस्वीर 12 दिसंबर, 2014 के अंग्रेजी पाक्षिक ‘फं्रटलाइन’ में छपी थी।
अंग्रेजी दैनिक ‘हिन्दू’ के अभिलेखागार में एक से एक विरल तसवीरें उपलब्ध हैं।
 ‘फं्रटलाइन’ हिन्दू ग्रूप की चर्चित पत्रिका है। 
चित्र में बैठे नजर आ रहे हैं --बाएं से पहले 
डा.बी.आर.आम्बेडकर।
उनके बाद रफी अहमद किदवई,
सरदार बलदेव सिंह,
मौलाना अबुल कलाम आजाद,
जवाहरलाल नेहरू,
डा.राजेंद्र प्रसाद,
सरदार वल्लभ भाई पटेल,
जाॅन मथाई,
जगजीवनराम ,
राज कुमारी अमृत कौर
और श्यामा प्रसाद मुखर्जी।
पीछे खड़े हैं--बाएं से --
खुर्शीद लाल,
आर.आर.दिवाकर,
मोहनलाल सक्सेना,
गोपाल स्वामी आयंगार,
एन.वी.गाडगिल,
के.सी.नियोगी,
जयराम दास दौलत राम,
के.संथानम,
सत्यनारायण सिन्हा 
और बी.वी.केसकर।
याद रहे कि यह नेहरू के जन्म दिन का महीना है।



    
    नफरतो ,भारत छोड़ो 
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‘‘अयोध्या पर फैसले के ठीक एक दिन बाद ‘ईद मिलाद उन नबी’ पर देश के तमाम हिस्सों में निकले जुलूस ए मोहम्मदी में हर तरफ तिरंगे लहराते दिखे।
इनमंे शिरकत कर आपसी भााईचारे की मिसाल पेश करते सभी धर्मों के लोगों की तस्वीरें देख कर सीना गर्व से चैड़ा हो गया।
इसका संदेश यही है कि नफरतो भारत छोड़ो।’’
                           ---समीर अब्बास 
इस सकारात्मक माहौल को बिगाड़ने के काम में ओवैसी और हबीबुल्ला जैसे लोग लग गए हैं।
दूसरी ओर, आम लोगों की समझ यह रही है कि
बाबर ने 1526 में राम मंदिर को तोड़ कर अयोध्या में मस्जिद बनवाई थी।
उस अन्याय को सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में समाप्त करके देश मेें 
बेहतर माहौल बनाने की कोशिश की है।
ऐसा अधिकार सुप्रीम कोर्ट को संविधान के -142 में हासिल भी है।
 उस अनुच्छेद के अनुसार,
‘‘उच्चत्तम न्यायालय अपनी अधिकारिता का प्रयोग करते हुए ऐसी डिक्री पारित कर सकेगा या ऐसा आदेश दे सकेगा ,जो उसके समक्ष लंबित किसी वाद या विषय में पूर्ण न्याय करने के लिए आवश्यक हो..........।’’
वैसे तो अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट का  निर्णय ‘एक बड़ी हद तक पुरातात्विक ऐतिहासिक साक्ष्यों पर आधारित है’, फिर भी   
जो उन्हें सबूत नहीं मानते कि अयोध्या में मंदिर ध्वस्त करके बाबरी मस्जिद बनाई गई तो उन्हें वाराणसी के ज्ञानव्यापी मस्जिद की तस्वीर गुगल पर देख लेनी चाहिए।
 वहां अब भी भवन के निचले हिस्से में मंदिर का ढांचा और ऊपरी हिस्से में मस्जिद देखने को मिल जाएंगे।
  यदि पांच सौ साल पहले की किसी घटना का सबूत आज उपलब्ध नहीं है तो यह नहीं कहा जा सकता कि वह घटना हुई ही नहीं।
  अयोध्या की  उसी बाबरी मस्जिद के नीचे दबे और उत्खनन से निकले  सबूतों के साथ वामपंथी इतिहासकारों ने किस तरह छेड़छाड़ की,वह जानना हो तो 12 नवंबर 2019 के दैनिक जागरण में प्रो.मक्खन लाल का लेख पढ़ लें।
                         ---सुरेंद्र किशोर
      12 नवंबर 2019



सोमवार, 11 नवंबर 2019

दिवंगत टी.एन.शेषन की याद में 
.....................................
चुनाव नियमों की किताब को मुख्य चुनाव आयुक्त 
टी.एन.शेषन ने आलमारी से निकाला।
उस पर पड़ी धूल को झाड़ा।
 उन्हें लागू करने की कोशिश की।
फिर तो धांधलीबाज नेताओं की नानियां मरने लगी थींं।
जार्ज बर्नार्ड शाॅ ने कहा था कि ‘‘सभी आत्म कथाएं 
झूठी होती हैं।’’
  नब्बे के दशक में टी.एन.शेषन ने भी बर्नार्ड शाॅ को सही ही साबित किया  था।
शेषन की जब जीवनी आई तो पूर्व कैबिनेट सचिव बी.जी.देशमुख ने उनकी कई बातों को झूठा ठहरा  दिया।
खैर जो हो,सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ढंग से टी.एन.शेषन ने
जितना प्रभावित किया,वह एक रिकाॅर्ड है।
वह रिकाॅर्ड टूटने वाला भी नहीं है।क्योंकि कोई सरकारी अफसर वैसा बन ही नहीं सकता।
शेषन ने एक बार कहा था कि ‘मैं अमिताभ बच्चन की तरह चर्चित हूं।’
शेषन कुछ भी बोल सकते थे।
पटना राज भवन में आयोजित प्रेस कांफ्रंेस में मुख्य चुनाव आयुक्त से मैंने जब एक तीखा सवाल किया तो उन्होंने जवाब देने की जगह कहा कि ‘तुम पर मंगल ग्रह है।’
बगल में बैठे वरिष्ठ पत्रकार सीता शरण झा ने धीरे से कहा कि शेषन ज्योतिषी भी है।
खैर, तब बिहार में शेषन पर चालीसा भी लिखा गया।
जय प्रकाश क्रांतिकारी ने लिखा,‘
आए शेषन लेकर डंडा,
हो गए होश सभी के ठंडा।
शेषन है अति बजरंगी,
मतदाता के असली संगी।
अब चुनाव मंे मजा आएगा,
भ्रष्ट नेता चने चबाएगा।
.......................
........................चालीसा लंबा है।
31 जनवरी 1994 को शेषन ने सरेआम यह कह दिया था कि ‘भारत का लोकतंत्र  धन, अपराध और भ्रष्टाचार के स्तम्भों पर खड़ा है।’
यह सुनकर जानकार व भुक्तभोगी लोग गदगद थे।
 1995 के बिहार विधान सभा चुनाव से ठीक पहले तत्कालीन मुख्य मंत्री लालू प्रसाद से शेषन की टकराहट हो गई।
लालू को लगा था कि शेषन पिछड़ों की सरकार को हटवाना चाहता है।
लालू खर्चे के बहाने मतदाता पहचान पत्र को अव्यावहारिक बता रहे थे।
पर चुनाव नतीजे आने के बाद लालू ने शेषन को धन्यवाद दिया।
याद रहे कि लालू की पार्टी बहुमत से सत्ता में आ गई थी।
शेषन ने कमजोर वर्ग के लोगों को भी,जो तब लालू के मतदाता थे, मतदान करने का अवसर प्रदान किया।
शेषन ने अपनी अधिकृत जीवनी में तो सभी बातेंं सही नहीं लिखी हैं।
 यह अस्वाभाविक भी नहीं है।
मैंने तो जीवनियां कम ही पढी हंै।
पर बर्टेंड रसेल और बिहार के पूर्व मुख्य मंत्री सत्येंद्र नारायण सिंह के अलावा ऐसी कोई जीवनी मेरी नजर से अभी नहीं गुजरी है जिसमें अपनी गलतियां-कमियां बताई गई हों।
 कोई निष्पृह होकर टी.एन.शेषन की जीवनी लिखें तो वह खूब बिकेगी।
पर, उसे राजीव गांधी की चमचागिरी से लेकर वह सारी बातें लिखनी पड़ंेगी जो घटित हुईं।
याद रहे कि असम में गलत ढंग से मतदाता बन जाने पर वित्त मंत्री मन मोहन सिंह के खिलाफ शेषन ने जांच शुरू कर दी थी।
        


रविवार, 10 नवंबर 2019

भारतीय संविधान में अनुच्छेद-142 का प्रावधान करने के लिए हम संविधान निर्माताओं के आभारी हैं।
  उस अनुच्छेद के अनुसार--
‘‘उच्चत्तम न्यायालय अपनी अधिकारिता का प्रयोग करते हुए ऐसी डिक्री पारित कर सकेगा या ऐसा आदेश दे सकेगा जो उसके समक्ष लंबित किसी वाद या विषय में पूर्ण न्याय करने के लिए आवश्यक हो.............।’’
अयोध्या विवाद पर जजमेंट देने में यह अनुच्छेद सुप्रीम कोर्ट के पीठ को काम आया है।
विविधता वाले  और तरह-तरह की आकांक्षाओं-इच्छाओं से भरे इस देश में ऐसे अनुच्छेद की अनिवार्यता संविधान निर्माताओं ने पहले ही समझ ली थी।


यह केवल भारत जैसे स्वाभाविक रूप से धर्म निरपेक्ष देश में ही संभव है कि देश की 80 प्रतिशत बहुसंख्यक आबादी अपनी आस्था के केंद्र पर निर्णय के लिए 70 वर्षों तक प्रतीक्षा कर सकती है।
  धार्मिक सहिष्णुता पर भारत को भाषण देने वाले पश्चिमी देशों को खुद अपने अतीत पर गौर करना चाहिए।
                         -----  मिन्हाज मर्चेंट 

शनिवार, 9 नवंबर 2019

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय किसी की हार या किसी की जीत नहीं है।
यह निर्णय इस देश की एकता-अखंडता के पक्ष में हैं।
गंगा-जमुनी संस्कृति के हक में है।
 राम का मंदिर बनेगा तो वह मर्यादा पुरूषोत्तम का मंदिर होगा।
जिन्होंने धोबी के कहने पर पत्नी को घर से दूर कर दिया था।
जिन्होंने शबरी के बेर खाए थे।
यानी वे बिना किसी भेदभाव के अपनी  प्रजा को समान नजर से देखते थे। 
मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार-योगी सरकार को चाहिए कि वे न सिर्फ मस्जिद के लिए पांच एकड़ अच्छी जमीन का शीघ्र प्रबंध करें बल्कि अल्पसंख्यकों की आर्थिक समस्याओं को भी हल करने की दिशा में ठोस पहल करें।
 उसे तुष्टिकरण मानने की अपनी पुरानी नीति छोड़ें।
 उम्मीद है कि इस निर्णय के बाद अब किसी भी पक्ष के अतिवादी तत्वों को ‘राजनीति’ करने का कोई अवसर आम जनता नहीं देगी।



शुक्रवार, 8 नवंबर 2019

नदी घाट के लिए तरसती बड़ी आबादी
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घाट पर तीखी ढलान के कारण इस साल भी मेरे गांव में
छठव्रतियों को भारी असुविधा हुई।
बिहार के सारण जिले के दरिया पुर अंचल के भरहा पुर गांव के निकट एक छोटी नदी बहती है।
कुछ साल पहले उस नदी के किनारे सुरक्षा बांध बना दिया गया।बांध ऊंचा है। 
बांध में तीखी ढलान है।
बांध बनने से पहले छठ करने में कोई खास दिक्कत नहीं थी।
क्योंकि तब ढलान तीखी नहीं थी।
  इस बिगाड़ दिए गए घाट को सुधार देने का कत्र्तव्य भी शासन का ही बनता है।
पर, आज कितने शासक अपने कत्र्तव्यों के प्रति जागरूक हैं ?
बचपन से ही उस घाट को देखता रहा हूं।
आसपास के गांवों के लोग भी वहां छठ करने आते रहे  हंै।
  इस बीच ग्रामीणों ने कुछ जन प्रतिनिधियों से संपर्क करके उनसे उनके फंड से घाट बनवाने का आग्रह किया।
पर यह काम नहीं हुआ।
दरअसल हमारा वह इलाका मिलीजुली आबादी वाला है।
अपवादों को छोड़ कर आम तौर पर जन प्रतिनिधि
किसी खास जाति -समुदाय की बड़ी आबादी वाले गांवों में ही अपने फंड के जरिए विकास  कामों को प्राथमिकता देते हैं ताकि थोड़ी लागत में ही थोक वोट संग्रह की गुंजाइश बन जाए।
पता नहीं, आम लोगों की खास जरुरतों पर कब ध्यान दिया जाएगा ?  

औरंगजेब ने जहांआरा को शाहजहां के साथ कैदखाने में रहने की इजाजत दे दी थी।
अंग्रेजों ने भी जेल में डा.लोहिया को जय प्रकाश नारायण के साथ रहने की अनुमति दी थी।
पर, इमरजेंसी में किसी मनपसंद राजनीतिक कैदी को जय प्रकाश नारायण के साथ रहने की इजाजत इंदिरा गांधी सरकार ने नहीं दी। --सु.कि.

गुरुवार, 7 नवंबर 2019

 दोहरा मापदंड
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राजस्थान के मुख्य मंत्री अशोक गहलोत ने नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी सोसायटी से डा.कर्ण सिंह तथा अन्य कांग्रेसियों के निकाले जाने पर तीखी प्रतिक्रिया जाहिर की है।
इससे पहले खुद गहलोत साहब ने राजस्थान में सत्ता संभालते ही पहले से जारी जेपी सेनानी पेंशन को बंद कर दिया।
मध्य प्रदेश में कमलनाथ ने भी यही काम किया।
  यदि गहलोत को जय प्रकाश नारायण का नाम अच्छा नहीं लगता तो भाजपाइयों को नेहरू मेमोरियल में सिर्फ कांग्रेसियों का जमावड़ा अच्छा नहीं लगता।
30 एकड़ भूमि में स्थित नेहरू स्मारक यानी तीन मूत्र्ति भवन में यदि नेहरू सहित सभी पूर्व प्रधान मंत्रियों की स्मृतियां सहेजी जाएं तो देश के अधिकतर लोगों को अच्छा लगेगा।
पर, नेहरू-इंदिरा परिवार और कांग्रेस चाहते हैं कि 30 एकड़ पर सिर्फ एक ही परिवार का बौद्धिक कब्जा रहे।
  सत्ता में जो आएगा,वह अपनी नीतियों -रणनीतियों के अनुसार ही तो काम करेगा।
    

बोफर्स में दलाली की खबर अंततः सच साबित हुई
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मंगलवार को आयकर विभाग ने मुम्बई स्थित विन चड्ढ़ा के फ्लैट को 12 करोड ़2 लाख रुपए में नीलाम कर दिया।
बोफर्स दलाल दिवंगत विन चड्ढ़ा के परिजन ने इस नीलामी का विरोध तक नहीं किया।
आयकार न्यायाधीकरण ने 2010 में ही कह दिया था कि बोफर्स की दलाली के मद में 41 करोड़ रुपए क्वात्रोचि और विन चड्ढ़ा को मिले थे।
उस पर भारत सरकार का आयकर बनता है।
आयकर महकमे ने सूद के साथ विन चड्ढ़ा पर 224 करोड़ रुपए का दावा ठोका था।
इस आयकर की वसूली के लिए मन मोहन सरकार ने दस साल में कुछ नहीं किया।
यहां तक कि उस सरकार ने बोफर्स से संबंधित मुकदमे को सुप्रीम कोर्ट में पहुंचने तक नहीं दिया।
पर मोदी सरकार ने कदम उठाया और नीलामी भी हो गई।
  इस नीलामी के साथ यह  प्रचार गलत निकला कि बोफर्स सौदे में कोई दलाली नहीं ली गई थी।
याद रहे कि राजीव गांधी की सरकार के लोग लगातार क्वात्रोचि और विन चड्ढ़ा का बचाव करते रहे।मतदाताओं ने
राजीव गांधी व उनके समर्थकों की बातों पर अविश्वास किया।नतीजतन 1989 के लोस चुनाव में कांग्रेस हार गई। 

  

बुधवार, 6 नवंबर 2019

   जैसी समस्या,वैसा उपाय
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गुजरात आतंक विरोधी विधेयक, 2015 को अंततः राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई।
 इस संबंध में विधेयक गुजरात विधान सभा ने पहली बार 2004 में पास किया था।
 पर, राष्ट्रपति ने उसको अपनी मंजूरी नहीं दी।
यानी, मन मोहन सिंह सरकार ने अपने शासनकाल में उसकी मंजूरी के लिए राष्ट्रपति से सिफारिश नहीं की।
  दुनिया के जिन -जिन देशों को आतंक की मार झेलनी पड़ रही है,उन देशों ने जरुरत के अनुसार अपने यहां कानून कड़े किए।
पर उसके विपरीत 2004 में मन मोहन सरकार के सत्ता में आने के बाद पहले से बने कड़े व कारगर कानून पोटा को समाप्त कर दिया गया।
   गुजरात विधान सभा ने 2004 में पारित इस विधेयक को 2015 में संशोधित रूप से पास किया।
  आतंकियों खासकर जेहादी आतंकियों के नए -नए 
खूंखार कारनामों  को देखते हुए गुजरात के इस कानून में जो प्रावधान किया गया है,उसके अनुसार  टेलिफोन पर हुई बातचीत को वैध साक्ष्य माना जाएगा।
आतंकवादियों के खिलाफ मुकदमांे की सुनवाई के लिए विशेष अदालतों का गठन होगा।
साथ ही, विशेष लोक अभियोजक बहाल होंगे।
संगठित अपराध के जरिए एकत्र संपत्ति की जब्ती हो सकेगी।
ऐसी संपत्ति के ट्रांसफर को रद भी किया जा सकेगा।
आशंका है कि इस देश में सक्रिय  आतंकवादियों के पक्षधर इस कानून को अदालत में चुनौती देंगे।
पर उम्मीद की जाती है कि सुप्रीम कोर्ट देशहित में ही निर्णय करेगा।
साथ ही, सरकार को चाहिए कि वह सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय को बदलने की गुहार करे जिसके तहत आरोपी की अनुमति के बगैर उसके नार्को व डी.एन.ए.टेस्ट की मनाही है।