बुधवार, 6 नवंबर 2019

   जैसी समस्या,वैसा उपाय
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गुजरात आतंक विरोधी विधेयक, 2015 को अंततः राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई।
 इस संबंध में विधेयक गुजरात विधान सभा ने पहली बार 2004 में पास किया था।
 पर, राष्ट्रपति ने उसको अपनी मंजूरी नहीं दी।
यानी, मन मोहन सिंह सरकार ने अपने शासनकाल में उसकी मंजूरी के लिए राष्ट्रपति से सिफारिश नहीं की।
  दुनिया के जिन -जिन देशों को आतंक की मार झेलनी पड़ रही है,उन देशों ने जरुरत के अनुसार अपने यहां कानून कड़े किए।
पर उसके विपरीत 2004 में मन मोहन सरकार के सत्ता में आने के बाद पहले से बने कड़े व कारगर कानून पोटा को समाप्त कर दिया गया।
   गुजरात विधान सभा ने 2004 में पारित इस विधेयक को 2015 में संशोधित रूप से पास किया।
  आतंकियों खासकर जेहादी आतंकियों के नए -नए 
खूंखार कारनामों  को देखते हुए गुजरात के इस कानून में जो प्रावधान किया गया है,उसके अनुसार  टेलिफोन पर हुई बातचीत को वैध साक्ष्य माना जाएगा।
आतंकवादियों के खिलाफ मुकदमांे की सुनवाई के लिए विशेष अदालतों का गठन होगा।
साथ ही, विशेष लोक अभियोजक बहाल होंगे।
संगठित अपराध के जरिए एकत्र संपत्ति की जब्ती हो सकेगी।
ऐसी संपत्ति के ट्रांसफर को रद भी किया जा सकेगा।
आशंका है कि इस देश में सक्रिय  आतंकवादियों के पक्षधर इस कानून को अदालत में चुनौती देंगे।
पर उम्मीद की जाती है कि सुप्रीम कोर्ट देशहित में ही निर्णय करेगा।
साथ ही, सरकार को चाहिए कि वह सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय को बदलने की गुहार करे जिसके तहत आरोपी की अनुमति के बगैर उसके नार्को व डी.एन.ए.टेस्ट की मनाही है। 

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