सोमवार, 25 नवंबर 2019

स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनियों से नई पीढ़ी परिचित हो
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बिहार विधान परिषद के पूर्व सभापति बाबू देवशरण सिंह के जीवन और राजनीति पर आधारित पुस्तक ‘क्रांतिकारी गांधीवादी देवशरण सिंह’ आई है।
 ऐसे नेताओं के बारे में नई पीढ़ी को अवगत कराना जरूरी भी है।
नई पीढ़ी आज की राजनीति का जो स्वरूप देख रही है,उससे अलग बातें स्वतंत्रता सेनानियों की जीवन गाथाओं से जानेगी।
  याद रहे कि आजादी की लड़ाई में जो लोग कूदे थे,उनका लक्ष्य सत्ता, धाक और धनोपार्जन नहीं था।
आज अपवादों को छोड़कर बस यही तो राजनीति है।
 यह और बात है कि आजादी मिलने के बाद कई स्वतंत्रता सेनानियों ने भी अपने चाल,चरित्र और चिंतन में परिवत्र्तन कर लिए थे।
   फिर भी उनके संघर्ष व त्याग की कहानियां आज के लोग पढ़ें,ऐसी व्यवस्था होनी ही चाहिए।
  जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद  डा.राम मनोहर लोहिया ने कहा था,
‘‘1947 से पहले के नेहरू को मेरा सलाम।’’
  हाल में शिवानंद तिवारी ने अपने यशस्वी पिता की एक ऐसी तस्वीर फेसबुक पर पोस्ट की,जिसे पहली बार नई पीढ़ी ने देखा।
  उस पोस्ट पर मुझे तिवारी जी की याद आई।
तिवारी जी उन थोड़े से नेताओं में थे जिनके जीवन में आखिर तक संयम कायम रहा।
तिवारी जी की जीवनी साहित्यकार राम दयाल पांडेय ने लिखी थी।
पर, संभवतः उसका अगला संस्करण नहीं छपा।
छपना चाहिए।
उनके बारे में कुछ बातें मुझे सहसा याद आ गईं।   
गोदी मीडिया और क्रोनी कैप्टलिज्म तब भी था।
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बात तब की है जब 
बिहार में जेपी आंदोलन चल रहा था।
एक नारा यह भी था,
‘जयप्रकाश बोल रहा है,इंदिरा शासन डोल रहा था।’
पटना के मजहरूल पथ के एक होटल में बिहार के पूर्व गृह मंत्री रामानंद 
तिवारी का प्रेस कांफ्रेंस चल रहा था।
मैं भी उस प्रेस कांफ्रंेस में था।
एक बड़े नामी-प्रभावशाली संवाददाता ने सवाल किया।
‘तिवारी जी, आप ब्राह्मण होकर भी इंदिरा जी के खिलाफ
क्यों आंदोलन कर रहे हैं ?’
तिवारी जी का जवाब था--‘बाचा, तू खाली पतरकारिता कर।
राजनीति मत कर।’
तिवारी जी अपने से छोटी उम्र के लोगों को कई बार बाचा कह कर संबोधित करते थे।बाचा यानी बच्चा।
1969 में बिहार में समाजवादियों ने बड़ा भूमि आंदोलन चलाया था।
बड़े नेताओं के नेतृत्व में हदबंदी से फाजिल जमीन पर दखल करके उसे भूमिहीनों में बांटने  की कोशिश हुई थी।
तिवारी जी ने इसी सिलसिले में
चम्पारण में एक पूंजीपति के फार्म पर हल चलाया।
भूमिपति के लठैतों ने निहत्थे आंदोलनकारियों पर जानलेवा हमला किया।
हलवाहा रोगी महतो की हत्या कर दी गई।
तिवारी जी को भी बुरी तरह घायल कर दिया गया।
नतीजतन वे महीनों  तक अस्पताल में थे।
 रोगी महतो की हत्या का मुकदमा चलने लगा।
1972 की बात है।
जब उस पूंजीपति के कानून की गिरफ्त आने की नौबत आई तो उसने सोशलिस्ट पार्टी के एक विधायक को पटा कर 
तिवारी जी के यहां भेजा।
संयोग से मैं भी आर.ब्लाॅक स्थित तिवारी जी के आवास पर मौजूद था।
विधायक ने कहा कि ‘बाबा,चम्पारण वाले केस में समझौता कर लिया जाना चाहिए।’
 यह सुनते ही तिवारी जी ने डपटते हुए कहा कि ‘तू जा समझौता कर ल। रोगी महतो के लाश पर हम समझौता ना करब।’
यह कह कर तिवारी जी रोने लगे।
संभवतः उनको लगा था कि हमारी पार्टी का एक विधायक भी खरीद लिया गया।
ऐसे और इन जैसे अन्य नेताओं की जीवन गाथाओं से नई पीढ़ी को अवगत कराना ही चाहिए।
उससे पता चलेगा कि  राजनीति यही नहीं होती है जो आज हो रही है।
आज क्या है ?
अपवादों को छोड़कर अधिकतर लोग सत्ता,धाक, पैसा और वंश को आगे बढ़ाने के लिए राजनीति में हैं।
इससे लोकतंत्र का स्वरूप बिगड़ता जा रहा है।
24 नवंबर 2019




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