बात -बात में हो जाती है लोकतंत्र की हत्या !!!!
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‘‘लोकतंत्र की हत्या हो गई।’’
हमारे देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जब थोड़ी भी गड़बड़ी होती है तो तपाक से यही बात कह दी जाती है।
यानी हमारे यहां बार -बार लोकतंत्र की हत्या होती रहती है।
लोकतंत्र फिर से अपने -आप जीवित कैसे हो जाता है ?
कटा सिर कैसे जुड़ जाता है ?
मानो लोकतंत्र न हो,दंतकथाओं का फीनिक्स पक्षी हो !
कथाओं में फीनिक्स पक्षी तो खुद को जला लेता है और खुद ही फिर से जीवित भी हो जाता है।
क्या अपना लोकतंत्र वैसा ही है ?
अरे भई, किसी भी मामूली भटकाव पर शब्दों के चयन में सावधानी बरतें।
हत्या के बदले किसी अन्य शब्द का इस्तेमाल किया जा सकता है।
अघोषित ‘आज स्कूल आॅफ जर्नलिज्म’ के संपादक नए पत्रकारों से कहा करते थे कि कुछ शब्दों को कुछ खास अवसरों के लिए बचा कर रखिए।
विशेषण का इस्तेमाल तो कम से कम कीजिए।
किसी के निधन या किसी घटना पर जल्दी ‘पेज हेडिंग’ यानी पूरे पेज की हेडिंग मत लगाइए।
पर क्या कीजिएगा ?
हमारे यहां तो ‘अतिशयोक्ति अलंकार’ के इस्तेमाल की पुरानी परपंरा है।
दंत कथाओं में भगवान परशुराम इस धरती को 21 बार क्षत्रिय विहीन कर चुके थे।
समझ में नहीं आता कि यदि एक बार विहीन कर ही दिए थे तो दूसरी बार क्षत्रिय कहां से आ गए ?
पर यहां तो तीसरी-चैथी से लेकर 21 वीं बार तक आ गए।
27 नवंबर 2019
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