बुधवार, 20 नवंबर 2019


  दुख ही जीवन की कथा रही
       सुरेंद्र किशोर  
अमेरिकी अर्थशास्त्री और गणितज्ञ जाॅन फोब्र्स नैश @1928-2015@करीब एक दशक तक  सिजोफ्रेनिया से पीडि़त रहे।उचित इलाज के बाद ठीक भी हो गए थे।
बाद में उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला।
   यहां के कुछ लोग यह सवाल पूछते रहे  कि यदि नैश ठीक हो सकते हैं तो फिर बिहार के गौरव डा.वशिष्ठ नारायण सिंह क्यों नहीं ?
इसका जवाब यही हो सकता है कि भारत न तो अमेरिका है और न ही यहां की सरकारें अमरीका जैसी हैं।न ही नेतागण।
  दरअसल अद्भुत प्रतिभा के धनी रहे गणितज्ञ डा.सिंह के साथ विडंबना रही कि बीमार होने के बाद वे लगातार तरह -तरह की उपेक्षा के शिकार रहे।
पारिवारिक, सामाजिक और सरकारी उपेक्षा।
ऐसी प्रतिभा किसी अन्य देश में होती तो उसे  दुनिया की सर्वोत्तम चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराई जाती,जैसी चिकित्सा सुविधा नैश को मिली थी।
ऐसी प्रतिभा की भी उपेक्षा तो शायद हमारे सिस्टम की भी देन है।
14 नवंबर, 2019 की सुबह जब डा.वशिष्ठ नारायण सिंह की तबियत बिगड़ी तो उन्हें पटना मेडिकल काॅलेज अस्पताल ले जाया गया।
वहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया।
उनके निधन के बाद उनके परिजन ने शव गांव ले जाने के लिए जब अस्पताल से एम्बुलेंस की मांग की तो पांच हजार रुपए देने को कहा गया।
बाद में सरकारी अधिकारियों के हस्तक्षेप से वाहन का प्रबंध करके उन्हें गांव भिजवाया गया।
सत्तर के दशक में मानसिक रूप से बीमार हो जाने के साथ ही वशिष्ठ नारायण सिंह  की पत्नी वंदना सिंह ने उन्हें तलाक दे दिया।
  1944 में बिहार के  भोजपुर जिले के गांव बसंत पुर में जन्मे वशिष्ठ नारायण सिंह को उनके जीवन के प्रारंभिक साल में तो खूब प्रसिद्धि मिली।
उनकी अद्भुत प्रतिभा से पहले पूरा बिहार और बाद में बाहर के लोग चमत्कृत थे।
पर,जब सिजोफ्रेनिया के कारण कुछ करने लायक नहीं रहे तो उनके कांस्टेबल पिता लाल बहादुर सिंह ने कहा था कि ‘मेरा तो सोना का जहाज डूब गया।’
उसी दुख के साथ वे गुजर गए।वशिष्ठ जी के भाई व बहनोई ने उनकी देखभाल की।   
 हमलोग तो अद्भुत प्रतिभा के धनी गणितज्ञ वशिष्ठ बाबू के जमाने के छात्र थे और उनसे मिले बिना भी उनसे प्रेरित होते थे।
उन दिनों राज्य भर की  शिक्षण संस्थाओं में वशिष्ठ जी की यदाकदा चर्चा होती रहती थी।शिक्षकगण उनका नाम लेकर छात्रों को प्रेरित करते थे।वे बिहार के गांवों में भी दंतकथा के पात्र थे।
  हों भी क्यों नहीं  ?
उनके लिए पटना विश्व विद्यालय ने पहली बार नियम बदल कर जल्दी -जल्दी उन्हंे एम.एससी.करवा दी थी।
उन्होंने 1962 में हायर सेकेंड्री परीक्षा पास की थी।प्रतिष्ठित नेतरहाट स्कूल में पढ़ेे वशिष्ठ जी बिहार बोर्ड के टाॅपर थे।
पर जब पटना साइंस काॅलेज में दाखिला लिया तो शिक्षकों ने पाया कि ये तो ऊंची कक्षाओं के विषयों में भी पारंगत हैं।
वे कक्षाओं में शिक्षक से ऐेसे -ऐसे सवाल करते थे जिनसे 
शिक्षक भी अचंभित हो जाते थे।
वशिष्ठ जी को पटना साइंस काॅलेज के प्राचार्य नागेंद्र नाथ और कुलपति जैकब से मिलवाया गया।
जांच के बाद उन्होंेने पाया कि वशिष्ठ को एम.एससी.कराने के लिए 5 साल का लंबा समय  लगाना निरर्थक है।
समय से पहले ऊंचे क्लास की परीक्षा में बैठाने के लिए पटना विश्व विद्यालय के नियम में परिवत्र्तन किया गया।
नतीजतन वे 1965 में ही एम.एससी.कर गए।
इस बीच वर्कले  विश्व विद्यालय के गणितज्ञ जाॅन एल.केली एक सेमिनार के सिलसिले में पटना आए थे।
पटना साइंस काॅलेज के प्रिंसिपल नासु नागेंद्र नाथ ने
वशिष्ठ नारायण सिंह को केली से मिलवाया।
केली ने जब वशिष्ठ नारायण सिंह की प्रतिभा देखी- जानी तो वे उन्हें अमेरिका ले गए।
 वहां 1969 में तो उन्होंने  पीएच.डी.कर ली।
उन्होंने कुछ समय के लिए ‘नासा’ के लिए भी काम किया।
 चर्चा थी कि वशिष्ठ  आइंस्टीन की सापेक्षता थ्योरी को चुनौती दे रहे थे।यह भी चर्चा रही कि केली उन्हें अपना दामाद बनाना चाहते थे।पर वशिष्ठ के भारतीय पिता इस शादी के खिलाफ थे।वशिष्ठ आज्ञाकारी पुत्र थे।
1973 में वशिष्ठ जी की शादी भोज पुर के ही पास के सारण जिले के खलपुरा गांव के डा.दीपनारायण सिंह की पुत्री वंदना से हुई।
अमेरिका से लौटने के बाद उन्होंने आई.आई.टी.कानपुर,टी.आई.एफ.आर.मुम्बई और इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट, कोलकाता में बारी-बारी से काम किया। संस्थान में अनेक शोधार्थी वशिष्ठ नारायण सिंह से मार्ग दर्शन ले रहे थे।
पर कुछ ही साल बाद उनके दिमाग के तंतु उलझ गए यानी वे सिजोफं्रेनिया के मरीज हो गए।
जिनके ज्ञान से ‘नासा’ ने अंतरिक्ष मिशन को आगे बढ़ाया,वह अपने गांव में वर्षों तक  गुमनामी में जीते रहे थे ।बीच -बीच में रांची और बंगलुरू में उनका इलाज भी चला।
पर लोगों की यह आम धारणा थी कि सरकार को उनका बेहतर इलाज कराना चाहिए था।
 1989 में एक ट्रेन यात्रा के दौरान वशिष्ठ जी अपने भाई से बिछुड़ गए थे । लगातार चार साल तक  गायब रहे।
  1993 में नाटकीय ढंग से वे अपनी सुसराल के पास के गांव में पाए गए।
उन्हें उनके गांव बसंत पुर के युवकों ने पहचान लिया था।
 हाल के वर्षों में ‘नोवा’ ने वशिष्ठ जी  के  पटना में रहने की व्यवस्था कर दी थी।
 नोवा यानी नेतरहाट के पूर्ववर्ती छात्रों का संगठन।इसके सदस्य बड़े -बड़े पदों पर रहे हैं।
वशिष्ठ जी का उदाहरण इस बात की जरुरत बताता है कि  ऐसी प्रतिभाओं के लिए सरकार पेंशन का प्रावधान करे।

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