शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

--आम्बेडकर ट्रस्ट ने राम जन्म भूमि पर बौद्धों के हक के पक्ष में 1991 में किया था मुकदमा--सुरेंद्र किशोर


डा.बाबा साहब आम्बेडकर की विधवा सविता आम्बेडकर ने
राम जन्म भूमि पर बौद्धों के हक के पक्ष में नब्बे के दशक में 
अभियान चलाया था।
  जन्म भूमि स्थान को बौद्धों को सौंपने की मांग करते हुए डा.बाबा साहब आम्बेडकर फाउंडेशन चैरिटेबल ट्रस्ट ने 1991 में फैजाबाद कोर्ट में याचिका दायर की थी।
पर उस याचिका को कोई प्रचार नहीं मिला।
सन 1992 में बाबरी ढांचे के ध्वस्त होने के बाद सविता आम्बेडकर ने रामजन्म भूमि वाली उस जमीन को हासिल करने के लिए अभियान चलाया था।
  इस साल अयोध्या निवासी विनीत कुमार मौर्या ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है।मौर्य ने अपनी याचिका में यह मांग की है कि राम जन्म भूमि स्थल को बुद्ध विहार घोषित किया जाए।
  उन्होंने दावा किया है कि चार खुदाइयों में मिले अवशेषों से यह साबित होता है कि वह स्थल बौद्धों का रहा  है।
  सुप्रीम कोर्ट ने 13 अन्य अपीलों के साथ मौर्या  की याचिका को भी सुनवाई के लिए मंजूर कर लिया है।
 याद रहे कि दूसरी ओर राम जन्म भूमि आंदोलनकारियों का दावा है कि खुदाइयों से प्राचीन राम मंदिर के अवशेष मिले हैं। 
  जन्म भूमि विवाद को लेकर सन 2010 में इलाहाबाद हाई कोर्ट का निर्णय आया था।
उसी निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील विचाराधीन है।
इलाहाबाद हाई कोर्र्ट के पीठ ने अपने फैसले में कहा है कि उस जमीन को तीन हिस्सों में बांटा जाए।एक हिस्सा निर्मोही अखाड़ा,दूसरा हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड और तीसरा हिस्सा श्रीराम लल्ला विराजमान को मिले।
 याद रहे कि अभी श्रीराम लल्ला टेंट में हैं।
  उधर नब्बे के दशक में सविता आम्बेडकर ने कहा था कि 
हमारे पास इसके ऐतिहासिक और पुरातात्विक प्रमाण हैं।
याद रहे कि सविता आम्बेडकर का सन 2003 में निधन हो गया।
सविता आम्बेडकर ने जिन्हें ‘माई’ या ‘माइसाहब’ के नाम से पुकारा जाता था,अपने दावे के पक्ष में प्राचीन चीनी पर्यटकांे और समकालीन इतिहासकारों को उधृत किया था।
 उनके अनुसार यह जगह शुरू में बौद्धों की थी।ं महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन के 16 वर्ष अयोध्या और उसके आसपास गुजारे थे।
 सविता ने पाली साहित्य का जिक्र करते हुए कहा था कि पाली साहित्य में यह बात कई बार आई है।पाली साहित्य में अयोध्या की जगह साकेत का जिक्र है। 
तब लंदन स्थित आम्बेडकर शताब्दी ट्रस्ट के निदेशक कृष्णा गामरे ने कहा था  कि अगर इसका नतीजा नहीं निकला तो हम सुप्रीम कोर्ट जाएंगे।
फैजाबाद कोर्ट में दाखिल याचिका का क्या हश्र हुआ,यह तो पता नहीं चला,पर विनीत कुमार मौर्या की सुप्रीम कोर्ट में दायर ताजा याचिका पर संभवतः बौद्धों के इस दावे पर भी सुप्रीम कोर्ट देर- सवेर कुछ कहे।याद रहे कि इस सवाल पर आम्बेडकर के कुछ समर्थकों ने नब्बे के दशक में अपने समुदाय में एकजुटता लाने की कोशिश भी की थी।पर समर्थक एकजुट नहीं हो सके थे।   
@ फस्र्टपोस्टहिंदी में 26 नवंबर 2018 को प्रकाशित@


 अमेरिकी अर्थशास्त्री और गणितज्ञ जाॅन फोब्र्स नैश @1928-2015@करीब एक दशक तक  सिजोफ्रेनिया से पीडि़त रहे।उचित इलाज के बाद ठीक भी हो गए।
बाद में उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला।
   यहां कुछ लोग यह सवाल पूछते हैं कि यदि नैश ठीक हो सकते हैं तो फिर बिहार के गौरव डा.वशिष्ठ नारायण सिंह क्यों नहीं ?
इसका जवाब तो विशेषज्ञ ही दे सकते हैं।
पर इस बीच दैनिक ‘जागरण’ के श्रवण कुमार ने  वशिष्ठ बाबू के बारे में यह ताजा खबर दी है,‘धीरे धीरे सामान्य हो रही  महान गणितज्ञ वशिष्ठ बाबू की जिंदगी।’
  नेतरहाट ओल्ड ब्वाॅयज एसोसिएशन को धन्यवाद कि वह  दवा व उनके अन्य खर्चे के लिए वशिष्ठ बाबू को  हर माह 20 हजार रुपए दे रहा है।
वशिष्ठ बाबू ने पांचवी तक की पढ़ाई शाहाबाद जिले के अपने गांव में पूरी की।बाद में वे नेतरहाट आवासीय स्कूल में पढ़े।
उन्होंने 1962 में हायर सेकेंड्री की परीक्षा में पूरे बिहार में टाॅप किया।पटना विश्वविद्यालय के साइंस काॅलेज में दाखिला कराया।

वे इतना कुछ जानते थे कि विश्व विद्यालय ने अपना नियम बदल उनके लिए समय से पहले उनकी परीक्षा आयोजित की।
क्योंकि वर्षों तक उनको कक्षाओं में बैठाकर अकारण उनका समय बर्बाद करना विश्व विद्यालय को भी ठीक नहीं लगा।
अमेरिका में पढ़ाई पूरी करने के बाद वे स्वदेश लौटे ।शादी की।नौकरी की।
पर 1976 में वे सिजोफ्रेनिक हो गए।यानी गणित के सवाल सुलझाते- सुलझाते उनके खुद के दिमाग के तंतु उलझ गए।
तब से उनका इलाज चल रहा है।
बीच में वे 1989 में अचानक गायब हो गए थे।पर 1993 में  सारण जिला स्थित अपनी ससुराल के गांव के पास ही मिले।
  कभी विलक्षण प्रतिभा के धनी और छात्र जीवन में मेरे जैसे लोगों के आदर्श रहे वशिष्ठ बाबू के स्वास्थ्य में सुधार की खबर उत्साहवर्धक हैं
जागरण ने लिखा है कि ‘वशिष्ठ बाबू का डंका नासा तक बजता था।लाखों प्रशंसक थे।मगर आज दुनिया भूल चुकी है उन्हें।वशिष्ठ बाबू पूरी तरह स्वस्थ तो नहीं,पर रिस्पांस कर रहे हैं।
यह सब संभव  हो सका  है ‘नोबा’ के आर्थिक सहयोग व परिवारवालों की अनवरत सेवा से।
छोटे भाई अयोध्या प्र्रसाद,भतीजे मुकेश और राकेश की देखरेख में वशिष्ठ नारायण सामान्य जीवन की ओर लौट रहे हैं।मेरी भी शुभकामना । उनके सामान्य होने के लिए ईश्वर से  प्रार्थना।

--मार्निंग-इवनिंग वाॅक के लिए सड़कों का विकल्प तैयार करना जरूरी-सुरेंद्र किशोर-


  
पटना जिले के दाना पुर के पास एक रिटायर रेलकर्मी सड़क पर टहलने के लिए निकले थे कि अनियंत्रित टैक्टर ने उन्हें टक्कर मार दी।उनकी मौत हो गयी।यह घटना इसी महीने हुई।
उससे पहले गत सितंबर में मोहाली में दो व्यक्ति मार्निंग वाॅक
के लिए निकले थे।कार की चपेट में आकर अपनी जान गंवा बैठे।
कई साल पहले भागल पुर में एक वाहन ने सड़क के किनारे टहल रहे पूर्व विधान सभा अध्यक्ष प्रो.शिवचंद्र झा को धक्का मार दिया जिस कारण उनकी असामयिक मौत हो गयी।
 दरअसल पटना सहित इस देश के अधिकतर शहरों में टहलने की जगह की भारी कमी के कारण लोग बाग सड़कों पर माॅर्निंग और इवनिंग वाॅक करते हैं।
नतीजतन कई बहुमूल्य जानें चली जाती हैं।सड़कों पर टहलने के खिलाफ अभियान चला कर अनेक बहुमूल्य जानों को बचाया जा सकता है।जहां तक मेरी जानकारी है,अभी तक ऐसा कोई अभियान नहीं चला है।
 इस समस्या को लेकर एक से अधिक तरीकों से अभियान चलाने की जरूरत है।
सरकारें संचार माध्यमों के जरिए लोगों को सड़कों पर टहलने से हतोत्साहित करे।
साथ ही शासन बिल्डर्स व डेवलपर्स  को  यथा संभव खेलने -टहलने के स्थान छोड़ने को बाध्य करे। 
अपवादों को छोड़ दें तो अभी तो वे अपनी  एक -एक इंच जमीन बेच देते हैं।
वैसे ग्राहकों को लुभाने के लिए डेवलपर्स अपने नक्शे में पार्क से लेकर स्कूल तक के लिए जगहें दिखा देते हैं।
अपार्टमेंट्स के निचले हिस्से में खाली जगह कुछ और छोड़ देने का प्रावधान होता तो कम से कम महिलाओं के टहलने के लिए जगह उपलब्ध होती।
  पटना तथा अन्य शहरों में सैकड़ों एकड़ सरकारी जमीन पर दबंगों ने कब्जा जमा लिया गया है।यदि शासन उन्हें उनके कब्जे से निकाल कर उन पर पार्क या अन्य जनोपयोगी संस्थान खड़े करता तो लोगबाग सरकार का गुणगान करते।
पर क्या यह कभी हो पाएगा ?  
आम धारणा तो यह है कि जिन दबंगों ने उस जमीन पर दशकों से कब्जा कर रखा है,वे किसी भी सरकार से अधिक ताकतवर लोग हैं।
   --छोटी उम्र में अपराध--
कम उम्र के लड़कों में अपराध की बढ़ती प्रवृति चिंताजनक है।
भागल पुर पुलिस ने सातवीं ,आठवीं  और दसवीं  कक्षाओं में अध्ययनरत  किशारों द्वारा मोटर साइकिल चुराने की घटना उजागर की है।
पुलिस ने अभिभावकों से अपील की है कि वे अपने कम उम्र के लड़कों  की गतिविधियों पर लगातार नजर रखें।
पुलिस का यह कदम सराहनीय है।पर यह काफी नहीं है।
शासन एक और काम कर सकता है।
कम उम्र के जो भी लड़के अपराध की गतिविधियों में शामिल पाए जाएं,उनका विवरण तैयार किया जाना चाहिए।
उनके अभिभावकों का विवरण खास कर।
किस काम में लगे अभिभावकों के बच्चे अपराध की ओर अधिक झुक रहे हैं।
 सरकारी सेवा,ठेकेदारी ,राजनीति या अन्य किस  पेशे में लगे अभिभावकांे के बच्चे अपेक्षाकृत अधिक संख्या में अपराध जगत की गिरफ्त में हैं।
  सरकारी सेवा में से किस सेवा के लोगों को अपने लड़कों को अनुशासित सुसंस्कारित करने का कम समय नहीं ंमिल रहा है।
यदि ऐसे आंकड़े जुटाने के सिलसिले में यदि कोई पैटर्न नजर आ रहा है तो उस खास सेवा के अभिभावकों पर शासन अलग से काम करे।उन्हें बताए कि आप अपनी संतान की गतिविधियों को नियंत्रित करें अन्यथा आपकी सेवा पुस्तिका में यह दर्ज हो सकता है।आपकी नौकरी भी खतरे मेें पड़ सकती है।
आम तौर उदंड बच्चों को कुछ मांओं के लाड़-प्यार का सहारा मिल जाता है।इस कारण भी कुछ बच्चों को अपराध जगत की ओर जाने से रोकने वाला घर में कोई नहीं होता।
ऐसी मांओं को यदि यह खतरा दिखेगा कि बेटे के अपराध के कारण पति की नौकरी खतरे में पड़ सकती है तो शायद लाड़-प्यार की जगह वह अनुशासन का डंडा चलाएगी या चलवाएगी।
अब कहिएगा कि बेटे के अपराध के लिए बाप को सजा क्यों ?
यदि डेंगू के मच्छर के उद्गम स्थल की सफाई नहीं करने वाले परिवार को एक लाख रुपए का जुर्माना भरने का कानून पश्चिम बंगाल में बन सकता है तो  बेटे के अपराध के लिए पिता को किसी न किसी तरह की सजा क्यों नहीं मिल सकती ?
कई ऐसे  परिवार होंगे जिन पर एक लाख रुपए का जुर्माना
 लगने पर उस परिवार के सारे सदस्यों की आथर््िाकी बिगड़ सकती है।यानी उसका नुकसान परिवार के उस सदस्य को भी होगा जिसका सफाई कार्य से कोई संबंध नहीं है।
यानी जब डेंगू के मामले में पूरा परिवार भुगतेगा तो घर में किसी किशोर के अपराधी हो जाने पर उसका अपना परिवार क्यों नहीं भुगते।
 बच्चों को अनुशासित करके उन्हें अच्छे संस्कार देने की जिम्मेदारी परिवार खास कर माता पिता की ही तो है।
 --विरल बीमारियों से ग्रस्त मरीजों का इलाज-- 
विरल बीमारियों से भी इस देश में हजारों लोग ग्रस्त हैं।
हंटर सिंड्रोम नामक एक विरल बीमारी से इस देश में करीब 20 हजार बच्चे पीडि़त हैं।
इस बीमारी के लिए दवा बहुत ही महंगी और इसकी चिकित्सा पद्धति भी थोड़ी  जटिल है।
इसका इलाज नई दिल्ली के एम्स में तो संभव है,पर पटना एम्स में नहीं,जबकि बिहार व झारखंड में भी ऐसी बीमारियों के मरीज हैं।उन्हें इलाज के लिए दिल्ली जाना पड़ता है।चूंकि इलाज लंबा चलता है,इसलिए बिहार तथा आसपास के प्रदेशों के लोगों को दिल्ली में किराए पर मकान लेकर रहना पड़ता है।
  यदि पटना एम्स में विरल रोगों की चिकित्सा के लिए विभाग खुल जाए तो वैसे लोगों को बहुत राहत मिलेगी।
 पटना एम्स में धीरे-धीेरे विभागों की संख्या बढ़ रही है।पर पता नहीं इस बीमारी की ओर एम्स प्रशासन या स्वास्थ्य मंत्रालय  का ध्यान है या नहीं।बिहार और झारखंड सरकारें इस दिशा में पहल करें तो शायद मरीजों की राह आसान हो जाए।    
 -और अंत में-
पश्चिम बंगाल के नगरों-महा नगरों के सार्वजनिक स्थलों पर ठोच कचरा फेंकने वालों पर 50 हजार रुपए तक का जुर्माना लगेगा ।
यदि किसी के घर में जमा पानी में डेंगू मच्छर का लार्वा मिला तो उसे एक लाख रुपए तक जुर्माना देना पड़ सकता है।
इस संबंध में पश्चिम बंगाल विधान सभा ने  हाल में विधेयक पास कर दिया है।
@30 नवंबर 2018 के ‘प्रभात खबर’ -बिहार-में प्रकाशित मेरे काॅलम ‘कानांेेकान’ से@





आज दो बहुत अच्छी सूचनाएं मिलीं।
1.-केंद्रीय खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्री हरसिमरत कौर  
खगडि़या स्थित अधूरे मेगा फूड पार्क का उद्घाटन किए बिना वापस लौट गयीं।
काश ! इस देश के अन्य नेता भी ऐसा ही करते।राजनीतिक लाभ के लिए अधूरी योजनाओं का उद््घाटन करने की इस देश में लंबी परंपरा रही है।ऐसे में कौर का कदम सराहनीय है।
2.-रिपब्लिक टी.वी.के वरीय संपादक प्रकाश सिंह, जिन्होंने साहसी व खोजपूर्ण पत्रकारिता के क्षेत्र में नया कीत्र्तिमान स्थापित किया है, अगले महीने विवाह बंधन में बंधने जा रहे हैं।मेरी अशेष अग्रिम शुभकामनाएं !

बोफर्स सौदा दलाली मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जे.डी.कपूर ने 4 फरवरी 2004 को राजीव गांधी को क्लीन चीट दे दी।अदालत ने हिन्दुजा बंधुओं के खिलाफ आरोपों को भी खारिज कर दिया।
जानकारों के अनुसार हाईकोर्ट ने ठोस सबूतों को अनदेखी करते हुए ऐसा जजमेंट दिया था।
इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की जानी चाहिए थी।
पर तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने अपील की अनुमति सी.बी.आई.को नहीं दी।या यूं कहिए कि अनुमति देने में देर कर दी।
याद रहे कि इस जजमेंट के बाद 22 मई 2004 तक अटल जी प्रधान मंत्री रहे थे।अपील की अनुमति क्यों नहीं दी ?
अपील नहीं करने के लिए और कौन-कौन  जिम्मेदार थे ?
क्या अफसर जिम्मेदार थे ? या राजनीतिक कार्यपालिका ?
इसका जवाब जनता को मिलना चाहिए।
हाल में मोदी सरकार की सी.बी.आई.ने 14 साल विलंब के बाद  इस मामले में अपील की तो सुप्रीम कार्ट ने उस अपील को खारिज कर दिया।हालांकि इसी मामले में एक अन्य याचिका सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है।सुप्रीम कोर्ट उस पर सुनवाई को राजी है।अदालत ने कहा है कि उसी की सुनवाई के समय सी.बी.आई.अपना पक्ष रखे।
यदि 2019 के चुनाव के बाद सुनवाई होगी और तब तक यदि कोई नयी सरकार आ जाएगी तो ‘तोते जी’ का स्वर  बदल जाएगा।हांलाकि बेचारे तोते अभी खुद जाल में फंसे हंै !
अपने देश में भ्रष्टाचार के मामले इसी तरह चलते हैं,घिसटते हैं और लटकते हैं।घिसटते -लटकते  चलते रहते हैं।सरकार बदलने के साथ ही तोते का स्वर बदलता रहता है।
इस बीच कई ‘अपराधी’ यानी आरोपित  मर कर भूत बन चुके होते हैं।इधर यह देश भ्रष्टाचार के मामले में भूत बंगला बनता जा रहा है।
फिर भ्रष्टाचार दूर या कम होने की उम्मीद कोई क्यों करता  है ? 
सी.बी.आई.के शीर्ष के ताजा घृणित प्रकरण को छोड़ दें तो इन दिनों मोदी सरकार की सी.बी.आई.की शक्ति मुकदमे चलाने और उन्हें जारी रखने में लगी हुई है। यदि 2019 में दूसरी सरकार आ गयी तो वह सरकार इन मुकदमों की वापसी में अपना समय लगाएगी जो अभी चल रहे हैं।या फिर जो मुकदमा कोर्ट की  निगरानी में चल रहा होगा,उसे कमजोर करने में समय लगाएगी।जिस तरह अटल सरकार ने बोफर्स केस में अपील नहीं की थी जबकि उसे 5 फरवरी से 21 मई 2004 तक का समय मिला था।
इस देश में ऐसा दशकों से हो रहा है।धन्य है यह देश और इसके पक्ष -विपक्ष के संबधित नेतागण !

गुरुवार, 29 नवंबर 2018

सन 1972 के विधान सभा चुनाव के बाद एक बड़े नेता
 के साथ मैं पटना में घूम रहा था।नेता जी विधान सभा चुनाव जीत कर आए थे।उनकी जीत की खुशी में पटना में तीन जगह घरेलू ‘पार्टी’ रखी गयी थी।
नेता जी ने एक ही दिन में तीनों ‘पाटीर्’ स्वीकार कर ली थी।
तीनों जगह गए।
तीनों जगह खाए।मैं भी साथ था।
़़़़़     मेजबानों ने बारी -बारी से नेता जी को ‘ठूंस -ठंूस’ कर खिलाया।नेता जी मना करते रह गए,मेजबान नहीं माने।
मूर्ख मेजबानों ने उस बहुमूल्य नेता जी के स्वास्थ्य का तनिक  भी ध्यान नहीं रखा।नेता जी भी भोजन भट्ट ही थे।
मुझे लग गया था अति भोजन के कारण यह अच्छा- भला नेता अधिक दिनों तक हमारे बीच नहीं रह सकेगा।वही हुआ।
  उन दिनों तो भोजन के साथ अधिकतर नेता लोग शराब नहीं लेते थे।लोकलाज भी था।आज के तो अधिकतर नेता लेते हैं।सरेआम लेते हैं।कुछ तो दारू पीकर सार्वजनिक समारोहों में भी जाने लगे हैं।मैंने वहां उन्हें लड़खड़ाते देखा है।
उनके साथियों-संगतियों-चमचों में यह हिम्मत नहीं है कि नेता जी को अधिक शराब पीने व अति भोजन करने से रोके।
इस तरह दशकों से मैं देखता रहा हूं कि समाज के लिए बहुमूल्य नेता भी  कम ही उम्र में जानलेवा बीमारियों से ग्रस्त हो रहे हैं और ऊपर जा रहे हैं।अपने प्रशंसकों को बिलखते छोड़।
  अधिक दिन नहीं हुए।
एक जमाना मोरारजी देसाई का भी था।प्रधान मंत्री थे तो मंदिर गुरद्वारा जाते ही थे।
पर,वे कहीं भी प्रसाद नहीं लेते थे।
मोरारजी कहते थे कि मेरे भोजन का समय - आकार-प्रकार तय है।उसमें मैं कोई विचलन नहीं कर सकता हूं।वे करीब सौ साल जिए।
  अरे आज के नेता जी,अपने लिए नहीं तो अपने प्रशंसकों के लिए तो अपना आहार-बिहार ठीक रखिए।रावण ने लक्ष्मण को जो संदेश दिया था,उसे तो याद रखिए।
समान्य आदमी मरता है तो उसके कुटुम्ब रोते हैं।नेता मरता है तो उसका जनता-समाज-वोट बैंक  रोता है।असमय मरता है तो ज्यादा रोते हैं।

  

सोमवार, 26 नवंबर 2018

  नब्बे के दशक में धनबाद के डी.टी.ओ.आॅफिस ने  
एल.टी.टी.ई.के प्रधान वी. प्रभाकरण का ड्राइविंग लाइसेंस बना दिया था।
   19 नवंबर 2018 के दैनिक ‘आज’ ने खबर छापी है कि उत्तर प्रदेश के औरेया में प्रशासन ने अजमल कसाब के नाम जाति प्रमाण पत्र जारी कर दिया।
  यानी अपवादों को छोड़ कर इस देश के सरकारी दफ्तरों में 
पैसों से कोई भी काम करवाया जा सकता है।
  हाल में इस देश की एक जिला अदालत के आॅफिस  में सरेआम घूसखोरी को लेकर एक न्यूज चैनल ने सजीव रिपोर्टिंग की थी।उसके बाद हड़कंप मच गया था।
पर कुछ ही दिनों तक स्थिति बदली नजर आई।अब खबर मिल रही है कि सब कुछ पहले ही जैसा ही हो गया है।
 आखिर इस देश में ऐसा कब तक चलेगा और इसे कौन रोकेगा ?  

 आज कुछ लोग कहते हैं कि देश में ‘आपातकाल’ जैसी स्थिति है।
ऐसा कहने वाले मुख्यतः दो तरह के लोग हैं।एक वैसे जिन लोगों ने न तो आपातकाल देखा है और न भोगा है।उनके किसी परिजन ने भी नहीं भोगा  है।बल्कि उसका लाभ उठाया होगा ।इसलिए चैन से होंगे।
दूसरी तरह के लोग ऐसा कह कर अपनी राजनीति कर रहे हैं।
ऐसा कहने का उन्हें पूरा अधिकार है भले उस कारण कुछ लोग यह समझें कि राजनीति का मतलब ही झूठ होता है।
 1975-77 के आपातकाल का मुख्य हथियार मीडिया पर कठोर सेंसरशिप था।
आज वैसा कहीं नहीं है।
यदि होता भी सोशल मीडिया ने उसे भी अब तक बेमतलब व ध्वस्त कर दिया होता।आज के सोशल मीडिया से नरेंद्र मोदी भी परेशान रहते  हैं।
आपातकाल की प्रधान मंत्री को किसी मीडिया से किसी तरह की परेशानी नहीं थी।
  अब जरा पहले के मीडिया को देखिए।
गैर इमरजेंसी दिनों की बात कह रहा हूं।उन दिनों गोदी मीडिया शब्द का इजाद नहीं हुआ था।पर इंदिरा गांधी के गैर इमरजेंसी राज में इंडियन एक्सप्रेस-स्टेट्समैन-ट्रिब्यून जैसे थोड़े से अखबारों को छोड़ कर बाकी तो गोदी मीडिया ही तो थे।
  दूसरी ओर आज मोदी सरकार के खिलाफ कौन सी ऐसी खबर है जो कही न कहीं छप या आ नहीं जा  रही है ?
चोेर,डाकू और न जाने क्या- क्या बोनस में छप रहा है।
क्या आपातकाल में यह संभव था ?
यदि आज  किसी खबर में दम है,सच्ची खबर है और कहीं नहीं आ पा रही है तो सोशल मीडिया पर तो कोई रोक नहीं है।
खुद सोशल मीडिया से आज कई भाजपा नेता भी परेशान है।हालांकि वे लोग भी उसका लाभ उठा रहे हैं और आरोपों को काउंटर कर रहे हैं।आरोप भी लगा रहे हैं।
सोशल मीडिया का नकारात्मक पक्ष यह है कि उसमें अफवाहों के लिए भी बहुत जगह व गुंजाइश  है।संपादन के प्रावधान के अभाव में ऐसा हो रहा है।कई बार तो लगता है कि यह बंदर के हाथ में नारीयल है।जबकि सोशल मीडिया का बहुत अच्छा इस्तेमाल संभव है।
इसके अलावा आज एन.डी.टी.वी.में कोई न्यूज रोकवाने की स्थिति में कोई सरकार नहीं है।मोदी सरकार भी नहीं।
टेलिग्राफ को भला कौन दबा सकता है ? इंडियन एक्सप्रेस और हिन्दू-फ्रंटलाइन  अपने आप में अब भी मीडिया के बादशाह बने हुए हैं।कुछ अन्य भी होंगे।देश बड़ा है।
इसके अलावा भी कुछ डिजिटन न्यूज पोर्टल हैं ।उनमें से एक पर तो अमित शाह के पुत्र को केस करना पड़ा है।
इसके अलावा मीडिया जगत में कुछ ऐसे दिग्गज आज उपलब्ध हैं जो मोदी जी की भी पहुंच से ऊपर हैं।वहां किसी और की पहुंच हे।यानी, उन्हें प्रभावित नहीं किया जा सकता है।वे अपनी धुन में हैं।अपने एजेंडे हैं।दूसरी ओर मीडिया के कुछ ऐसे दिग्गज भी हैं जहां मोदी की ही पहुंच है।
यह कोई नई बात नहीं है।ऐसा सब दिन रहा है।
अब 1975-77 का इमरजेंसी देख चुके कोई निष्पक्ष व्यक्ति जरा  बताएं कि आज इमरजेंसी की स्थिति है ?
उस इमरजेंसी के बारे में आडवाणी जी ने कहा था कि तब ‘मीडिया से सिर्फ झुकने के लिए कहा गया था,पर वे तो लेट गए थे।’
आज के हालात को इमरजेंसी बताना इंदिरा जी की कठोर इमरजेंसी का अपमान करना हुआ।
साथ ही, इमरजेंसी के उन भुक्तभोगियों की पीड़ा को हल्का दिखाना और उनके  जले पर नमक छिड़कना भी हुआ। 
इमरजेंसी के दिनों में अखबार वाले अपनी -अपनी खबर की काॅपियां लेकर पी.आई.बी.आॅफिस में हर शाम हाजिर होते थे।
अफसर जो पास करते थे,वही छपता था।
आज ऐसा हो रहा है क्या ? 

रविवार, 25 नवंबर 2018

 जिन लोगों को लगता है कि सी.बी.आई.में पहली बार इतनी बड़ी गिरावट आई है,वे 1975 के ललित नारायण मिश्र हत्या कांड से संबंधित मामले का सांगोपांग अध्ययन कर लें।
   मिश्र जी रेल मंत्री थे जब उनकी हत्या हुई थी।पर सी.बी.आई.ने उस कांड को भी ऐसा मोड़ दे दिया था कि असली अपराधी साफ बच निकले थे।
 जिन आनंदमार्गियों को पकड़ कर सी.बी.आई.सजा दिलवाई उनके बारे में मिश्र जी के परिजन ने क्या कहा ?
  ललित नारायण मिश्र के अनुज डा.जगन्नाथ मिश्र और पुत्र विजय कुमार मिश्र ने अदालत में कहा कि आनंद मार्गियों से ललित बाबू की कभी कोई दुश्मनी नहीं रही।

शनिवार, 24 नवंबर 2018

क्या वोट लोलुपता और घूस लोलुपता के कारण कोई पीढ़ी आत्म हत्या पर भी उतारू हो सकती  है ?
 याद रहे कि इस देश में प्रदूषण फैलाने वाले अनेक लोग घूस देकर बच जा रहे हैं।उधर पंजाब -हरियाणा के किसानों पर कार्रवाई नहीं हो रही है क्योंकि वहां सत्ताधारी दल समझ रहे हैं कि इससे हमारे वोटर  भाग जाएंगे।यानी, प्राण  जाए तो जाए,पर वोट न जाए !
ताजा आंकड़ों के अनुसार नई दिल्ली दुनिया के सर्वाधिक दस 
प्रदूषित नगरों में एक है।यह तब है जब नई दिल्ली में देश के सर्वाधिक ताकतवर लोग बसते हैं -हर क्षेत्र के ताकतवर।
 हाल में यह खबर आई कि प्रदूषण के कारण नई दिल्ली के लोगों की आयु 10 साल कम हो गयी है।यह हत्या है या आत्म हत्या या दोनों ? इसके लिए कौन -कौन लोग जिम्मेदार हैं ?
 अबोध बच्चों के स्वास्थ्य पर कैसा असर पड़ रहा है,इस संबंध में आंकड़ा अभी मुझे उपलब्ध नहीं है।
जाहिर है कि हम अगली पीढि़यों को भी बर्बाद कर रहे हैं।भारी प्रदूषण से विकलांग और अस्वस्थ शिशु पैदा होंगे,यह आशंका भी है।
 अब देखिए कि प्रदूषण के मुख्य स्त्रोत क्या -क्या हैं।
हरियाणा-पंजाब के किसान अपनी फसलें काटने के  बाद बचे हुए भाग को खेतोंं में ही जला देते हैं।इससे दिल्ली सहित बड़े भूभाग में भारी प्रदूषण फैलता है।सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एन.जी.टी.की ओर से ऐसा करने पर रोक है।
पर सरकारें इस रोक को सख्ती से लागू नहीं करती।सवाल वोट का जो है।
प्रकारातंर से यह आत्म हत्या है या नहीं ?
दिल्ली -नई दिल्ली में चिमनी के धुएं से भारी प्रदूषण है।
इसे क्यों नहीं रोका जाता ?
यहां भी सवाल घूसखोरी का है।यही हाल भारी प्रदूषण फैलाने वाले नए-पुराने वाहनों का है।
भारी निर्माणों के कारण भी खूब धूल उड़ती रहती है।
अब भला भारी निर्माताओं में घूस देने की क्षमता कोई कम है ?किसी अफसर को घूस लेने से रोकने की शक्ति रखने वाले सत्तासीन लोग भी मौन हैं।क्या मुफ्त में मौन हैं ?
दिल्ली जैसी हालत देश के अन्य कई हिस्सों की भी है।पर जब दिल्ली के सर्वाधिक ताकतवर लोग वोट व घूस के सामने लाचार हैं तो कम ताकतवर लोगों की क्या बात की जाए ?
घूस व वोट के अलावा कोई अन्य कारण हो तो जरूर बताइए।अपना ज्ञानवर्धन कर लूंगा।
यह सिस्टम की विफलता का सबसे बड़ा  प्रमाण है जहां लोग  ‘आत्म हत्या’ के लिए भी मजबूर हो जाएं।घूसखोर,वोटलोलुप  और उनके परिजन भी तो अपनी आयु दस साल कम कर रहे हैं !
यदि इस स्थिति से देश को उबारने  का वायदा करके कोई तानाशाह मसीहा देश का कल शासक बन जाए तो आप किसे दोष देंगे ?@24 नवंबर 2018@

अटल बिहारी वाजपेयी का नाम आम तौर पर सम्मान के साथ  लिया जाता है।
 उनके दत्तक परिवार ने भी अटल जी के सम्मान के अनुकूल ही काम किया है।
खबर आई है कि वाजपेयी परिवार सरकारी सुविधाएं नहीं लेगा।यह खबर रोज -रोज गंदी होती राजनीति के बीच  साफ हवा के झोंके की तरह है।
हकदार न होने के बावजूद नाजायज तरीके से सरकारी साधनों पर कब्जा जमाने व जमाए रखने की जिस देश के नेताओं में होड़ मची हो,वहां वाजपेयी परिवार ने आदर्श उपस्थित किया है।
लगता है कि अटल जी ने दत्तक परिवार को अच्छा संस्कार दिया था।

शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

झारखंड के खाद्य आपूत्र्ति मंत्री सरयू राय ने मुख्य सचिव को लिखा है कि लालू प्रसाद को किसी सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल में भर्ती कराना चाहिए ताकि उनका इलाज बेहतर हो सके।
   सरयू राय की पहल सराहनीय है।
आपका किसी से राजनीतिक तथा अन्य सवालों पर मतभेद हो सकता है।उन सवालों का हल राजनीति और कानून में खोजते रहिए।
पर, मेरी भी यह राय रही है कि लालू प्रसाद जैसे किसी बड़े नेता को समुचित इलाज के अभाव में कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए।
लाखों लोग लालू की ओर उम्मीद भरी नजरों से देखते हैं।लोकतंत्र में लोगों का अधिक महत्व है।
 मुझे याद है।सत्तर के दशक में ललित नारायण मिश्र ने बिहार के अपने सबसे बड़े राजनीतिक विरोधी नेता के पुत्र के इलाज के लिए आर्थिक मदद की थी।बिना मांगे मदद की थी।
विरोधी नेता अत्यंत ईमानदार थे और वे अपने साधनों से अपने पुत्र का विदेश में इलाज नहीं करा सकते थे। 
@23 नवंबर 2018@

वेतन जरूर बढ़े, पर राज्य की आय ब़ढ़ाने में भी मदद करें विधायक-सुरेंद्र किशोर



बिहार मंत्रिमंडल ने विधायकों के लिए वेतन,भत्ते  तथा अन्य सुविधाओं में वृद्धि के प्रस्ताव को मंजूरी दी है।
पूर्व विधायकों की पेंशन राशि भी बढ़ेगी।
पर साथ-साथ यह उम्मीद की जाती है कि विधायक गण राज्य सरकार की आय बढ़ाने में भी तो अब कुछ अधिक मदद करें ! 
टिकाऊ संरचना के निर्माण के मामले में भी वे शासन को अपनी  बहुमूल्य सलाह दें। जरूरत पड़ने पर उस काम में व्यावहारिक सहयोग भी  दें।यदि ऐसा हुआ तो इनकी वेतन वृद्धि पर समाज के अन्य हलकों में विरोध के स्वर नहीं उठेंगे।आय बढ़ाते जाइए।साथ ही अपने लिए सुविधाएं भी लेते जाइए।
यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि  विधायक गण यह शुभ कार्य नहीं करते।कुछ जन सेवी विधायक तो करते ही रहते हैं।पर समय के साथ कुछ और करने की जरूरत महसूस की जाती है।
इस गरीब राज्य में इस बात की अधिक जरूरत है कि राजस्व की चोरी रोकी जाए।साथ ही विकास और कल्याण के लिए आवंटित पैसों में से ‘लीकेज’  कम से कम हो।
यदि विधायक इस मामले में सतर्क रहें तो कोई माई का लाल उन पैसों का बाल बांका नहीं कर सकता।विधायक अपने क्षेत्र के बहुत प्रभावशाली व्यक्ति होते हैं।वे भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों को आसानी से गोलबंद कर सकते हैं।
कई बार राज्य सरकार यह शिकायत करती है कि कई बड़े सरकारी अफसर भ्रष्टाचार पर काबू पाने में राज्य सरकार की मदद नहीं करते। विधायक गण इस मामले में सतर्क रहें तो सरकारी अफसर भी इस काम में सहयोगी होने को मजबूर हो सकते हैं। 
 साठ-सत्तर के दशकों में प्रतिपक्ष के कई विधायक गण  सरकारी धन की लूट के खिलाफ यदाकदा आंदोलन रत हो जाते हैं।
अब तो ऐसे मुद्दों पर कम ही जन आंदोलन होते हैं। 
--वेतन वृद्धि के पक्ष में थे आम्बेडकर--  
 डा.बी.आर.आम्बेडकर चाहते थे कि इस देश के मंत्रियों को पर्याप्त वेतन मिले ।तभी प्रतिभाएं इस पद के लिए सामने  आएंगी।उन्होंने बम्बई विधान सभा में सन 1937 में अपने भाषण में यह बात कही थी।
 तब वे बम्बई लेजिस्लेटीव एसेम्बली के सदस्य थे।
आम्बेडकर जब मंत्रियों की बात करते थे तो यह मानकर चला जाए कि उनका आशय विधायकों से भी था।
हालांकि जन प्रतिनिधियों के वेतन के सवाल पर हमेशा ही इस देश में मतभेद रहा है।
    इस विषय में एक पक्ष यह कहता है कि  आम लोगों की औसत आय के अनुपात में ही जन प्रतिनिधियों के वेतन-भत्ते  तय होने चाहिए।दूसरा पक्ष यह कहता है कि काम और पद की जरूरतों के अनुसार वेतन तय होने चाहिए।
   नब्बे के दशक में ए.के.राय ने सांसदों -विधायकों के लिए धुआंधार वेतन-भत्ते में बढ़ोत्तरी की प्रवृति की तीखी आलोचना की थी।धनबाद से सांसद रहे माक्र्सवादी मजदूर नेता ए.के. राय ने लिखा था कि ‘जब देश आजाद हुआ था,उस समय औसत आय के मामले में बिहार को देश में पांचवां स्थान प्राप्त था।अभी बिहार इस मामले में देश में 26 वें स्थान पर है।उस समय देश के अन्य राज्यों की तरह ही यहां के विधायकों को भी सीमित सुविधाएं प्राप्त थीं।इसके बाद जैसे -जैसे बिहार की आम जनता की आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती गई,वैसे-वैसे यहां केे विधायकों की स्थिति और बेहतर होती गई। इस माहौल में विधायकों के लिए वेतन बढाना जनता के घाव पर नमक छिड़कने जैसा है।’
   डा.आम्बेडकर के भाषण और ए.के. राय के लेख से अलग एक बीच का रास्ता भी है।
 विधायक  सरकार की आय बढ़ाने में मदद करें।जहां -तहां जारी राजस्व चोरी को रोकने में मदद करके भी वे अपनी भूमिका निभा सकते हैं।राज्य की आय बढ़े तो  साथ -साथ विधायकों व अन्य लोगों के भी वेतन और सुविधाओं में भी वृद्धि हो।
 सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी सरकार ने यह घोषणा की थी कि काले धन का पता बताने वालों को इनाम दिया जाएगा।
चंद्र शेखर ने पता बता दिया था।चंद्र शेखर जी को लाखों रुपए इनाम के रूप में मिले थे।
निजी कंपनियां आखिर क्या करती हैं ?अपनी आय के अनुपात में ही अपने कर्मचारियों के वेतन-भत्ते  तय करती हैं।एक सरकार ही है जो अपनी आय का ध्यान रखे बिना  कई  काम करती रहती है।उनमें विधायकों-सांसदों की वेतन वृद्धि भी शामिल है। 
  --तटरक्षक दल की मजबूती जरूरी--   
सन 1993 में आतंकवादियों ने भारी मात्रा में विस्फोटकों का तस्करी के जरिए आयात किया और मुम्बई को दहला दिया।
उसी समय  हमारे तटरक्षक दल की कमजोरी सामने आ 
गयी  थी।यहां तक कि पुलिस और कस्टम अफसरों की मिलीभगत भी।मुम्बई विस्फोट कांड मुुकदमे में सजा पाने वालों में पुलिस उप निरीक्षक वी.के.पाटील और एडीशनल कस्टम कमिश्नर एस.एन.थापा भी थे।
  इनकी आतंकियों से सांठगांठ थी।
2008 में ताज होटल तथा अन्य स्थानों पर हमला करने वाले भी तटरक्षक दल की कमजोरी का लाभ उठा कर मुम्बई में घुस आए थे।
 2008 के बाद ही केंद्र सरकार ने तटरक्षक दल को सुदृढ़ करने व सूचना तंत्र विकसित करने के अपने निर्णय की घोषणा की थी।
पर वर्षों तक कुछ नहीं हुआ।बहाना पैसे की कमी।
इस मामले में मौजूदा मोदी सरकार की  भी अपने कार्यकाल के अंतिम साल में नींद खुली है।
योजना बनी है कि करीब दो लाख करोड़ रुपए की लागत से अगले पंद्रह साल में तटरक्षक दल का आधुनीकीकरण करना है।एक सौ विमान और 190 समुद्री जहाज तटरक्षक दल को मिलेंगे।
 पर सवाल है कि 1993 से ही सरकारें क्यों सोयी हुई थीं ?
दरअसल खतरों से घिरे इस देश की सुरक्षा को लेकर हमारी सरकारें जितनी लापारवाह रही हेैं,उतना शायद ही कोई दूसरा देश रहा हो।
    --सुरक्षा, स्वास्थ्य व शिक्षा--
गरीब देश में आम गरीबों के लिए स्वास्थ्य व शिक्षा का प्रबंध सरकार ही कर सकती है।
आंतरिक व बाह्य सुरक्षा की जिम्मेदारी भी
सरकार की ही है।पर हमारी सरकारें अक्सर आर्थिक संसाधनों की कमी का रोना रोती रहती है।
 दूसरी ओर टैक्स वसूली में भारी कोताही होती  है ।क्योंकि सरकारी तंत्र भ्रष्ट है।भ्रष्टों को  सबक देने लायक सजा सरकार न तो दे पाती है और न ही अदालतों से दिला पाती है।हम छोटे- बड़े बाजारों -नगरों में रोज ही भारी टैक्स चोरी होते देखते हैं।पर वह चोरी सिर्फ संंबंधित अफसरों को नजर नहीं आती। 
  --सरपंच संस्था का मजबूतीकरण-
ग्राम पंचायतों की सरपंच संस्था को मजबूत कर दिया जाए तो 
गांवों के कई  छोटे -मोटे झगड़ों का निपटारा संभव है।
 सरपंचों को कुछ सिविल और आपराधिक मामलों की सुनवाई के अधिकार भी दिए गए हैं। कितने सरपंच  उन शक्तियों का इस्तेमाल कर पा रहे हैं ? उन शक्तियों के इस्तेमाल के लिए जो संसाधन चाहिए,उनमें से कितने उनके पास उपलब्ध हैं ?
उनके यहां कितनी शिकायतें आ रही हैं ?
निपटारे की गति क्या है ?
इन सब मामलों की समीक्षा करके उनकी वाजिब जरूरतों की पूत्र्ति से खुद सरकार के दूसरे अंगों को ही लाभ होगा।पुुलिस पर दबाव कम होगा।
छोटे-मोटे झगड़े विकराल रूप लेने से बच जाएंगे।विकराल रूप लेने पर अस्पतालों  और कचहरियों के काम भी बढ़ जाते हैं।सरपंच संस्था के और भी मजबूतीकरण के लिए मौजूदा पंचायत कानून में कुछ संशोधन की जरूरत हो तो वह किया जाना उपयोगी होगा। 
    --और अंत में--
कौन नहीं जानता कि कश्मीर को भारत से अलग करने के लिए पाकिस्तान दशकों से इस देश के खिलाफ अघोषित युद्ध लड़ रहा है।
पाक इस उद्देश्य से कश्मीर तथा इस देश के विभिन्न हिस्सों में आतंकी भेजता रहता है।उन आतंकियों को मदद करने वाले लोग इस देश में भी मौजूद हैं।
उनमें कुछ पत्थरबाज हैं तो कुछ बयानबाज।पर जब भारतीय सेना उन हमलावरों पर कार्रवाई करती है तो हमारे ही कुछ लोग मानवाधिकार हनन का सवाल उठा देते हैं।
हर बार सेना को सफाई देनी पड़ती है।क्या किसी युद्ध में चाहे वह घोषित हो या अघोषित, मानवाधिकार का सवाल उठाना उचित है ?
@---कानोंकान-प्रभात खबर-बिहार-23 नवंबर 2018@



गुरुवार, 22 नवंबर 2018

 सासंदों को रिश्वत देकर लोक सभा में किसी अल्पमत सरकार को बहुमत में बदला जा सकता है।
हमारे देश के पक्ष -विपक्ष के नेताओं ने यह गुंजाइश बनाए रखी है।
इस गुंजाइश को खत्म कर देने का अवसर आया था,पर उसका  किसी दल ने उस अवसर का उपयोग नहीं किया।
 नब्बे के दशक में झामुमो के कुछ सांसदों को रिश्वत देकर बदले में  उनका समर्थन लेकर पी.वी.नरसिंहराव की अल्पमत सरकार को गिरने से बचा लिया गया था।रिश्वत के पैसे सांसदों के बैंकों खातों में पाए गए थे।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘संविधान के अनुच्छेद -105 के तहत सांसदों को ऐसा करने की विशेष छूट है। यानी संसद में दिए गए भाषण या वोट पर किसी भी सांसद के खिलाफ किसी भी अदालत में कोई कार्यवाही नहीं हो सकती।’
 सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय आए कई दशक बीत गए।
इस बीच प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से लगभग सभी प्रमुख दल केंद्र की सत्ता में रहे।
पर किसी दल ने इस विशेष छूट को समाप्त करने के लिए संविधान में संशोधन की  कोई पहल नहीं की।
  जिस तरह इस देश के आयकर ट्रिब्यूनल ने कहा था कि बोफर्स में मिले दलाली के पैसों पर आयकर बनता है,उसी तरह दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा था कि झामुमो सांसदों को मिले 1.76 करोड़ रुपए की रिश्वत की रकम पर आयकर बनता है।
 पर इस देश के नियम -कानून-संविधान की विडंबना यह है कि रिश्वत पर आयकर तो बनता है,पर रिश्वत के स्त्रोत को बंद करने के लिए  किसी दल या नेता का कोई  कत्र्तव्य नहीं बनता।
 कैसे बनेगा ?
यदि 2019 में किसी गठबंधन को यदि बहुमत में कमी रह गयी तो संविधान का अनुच्छेद-105 उसके काम जो आएगा ! जिस तरह नरसिंह को काम आया और सुप्रीम कोर्ट सब कुछ जानते हुए भी मूक दर्शक बना रहा।क्योंकि इस देश के संविधान के अनुच्छेद-105 ने उसके हाथ बांध दिए हैं।
@22 नवंबर 2018@

सी.बी.आई.बनाम सी.बी.आई.मुकदमे में विभिन्न पक्षों की ओर 
बड़े -बड़े  नामी वकील उपस्थित हो रहे हैं ।उनकी  प्रति दिन की न्यूनत्तम फीस 5 लाख रुपए बताई जाती हैं।
  यदि इन सी.बी.आई.अफसरों ने अब तक करोड़ों रुपए इकट्ठे नहीं भी किए होंगे तो अब तो इन वकीलों की फीस देने के लिए तो उन्हें ‘चंदा’ मांगना ही पड़ सकता है।
 हां, यदि इन वकीलों ने अपनी फीस माफ कर दी हो तब तो बात ही और है।

 बिहार विधान परिषद के स्मोकिंग रूम को कभी जीवंत बनाए रखने वाले कमलनाथ सिंह ठाकुर नहीं रहे।
 हाजिर जवाबी और अपनी विनोद प्रियता के लिए चर्चित प्रतिभाशाली कमलनाथ जी के निधन की खबर मैंने सिर्फ एक अखबार में देखी।
कभी पत्रकारों की सूचनाओं के प्रमुख स्त्रोत रहे ठाकुर जी के निधन की खबर इस तरह आज सुबह कम ही लोगों तक पहुंच सकी ।
  वैसे कई बार यही हाल उन खबरों का भी होता है जब अपने जमाने के किसी नामी-गिरामी व प्रभावशाली पत्रकार या संपादक का निधन होता है।
  विधान परिषद के सदस्य व ‘ममता गावे गीत’ फिल्म के कलाकार रहे कमलनाथ जी सुदर्शन व्यक्तित्व के धनी थे।
दरभंगा महाराज शुभेश्वर सिंह के करीबी रहे कमलनाथ जी कभी डा.जगन्नाथ मिश्र के भी प्रियपात्र थे।हालांकि बाद के दिनों में वैसा संबंध उनसे नहीं रहा।
एक बार स्मोकिंग रूम में कमलनाथ जी और इंद्र कुमार जी के बीच रोचक संवाद चल रहा था।
विधान परिषद के सदस्य रहे इंद्र कुमार कर्पूरी ठाकुर के उतने ही करीबी थे जितने जगन्नाथ जी के कमलनाथ।
इंद्र कुमार जी ने कहा कि ‘कमलनाथ जी, आप भी जगन्नाथ जी के बहुत करीबी रहे और मैं कर्पूरी जी के।पर न तो जगन्नाथ जी ने आपको मंत्री बनाया और न ही कर्पूरी जी ने मुझे।’
इस पर हाजिरजवाब व विनोदी कमलनाथ जी ने कहा कि ‘बना देता तो राज्य का बंटाधार ही न हो जाता !’ इस टिप्पणी पर पूरा हाॅल ठहाकों में डूब गया।
कमलनाथ जी में खुद का मजाक उड़ाने की भी क्षमता थी।इसलिए भी उनके पास बैठना कई लोगों को अच्छा लगता था।
  कमलनाथ जी से मेरी लंबी बातें हुआ करती थीं।उनकी प्रतिभा देख कर मुझे कभी-कभी लगता था कि जनहित में उसका उपयोग कम ही हो पाया । 
@21 नवंबर 2018@

  

मंगलवार, 20 नवंबर 2018

 फिक्की की ओर से जारी एक हालिया रपट में कहा गया है कि देश में अवैध और नकली उत्पादों के समानांतर कारोबार से उद्योगों को हर साल हजारों करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा है।
इससे न सिर्फ लाखों नौकरियां छिन रही हैं बल्कि सरकार को भी राजस्व का भारी नुकसान हो रहा है।
  अब सवाल है कि जब सरकारों को इसकी चिंता नहीं है तो उद्योग जगत ही अपने फायदे में कुछ कदम क्यों नहीं उठाता ?
उद्योग जगत ‘कारपोरेट सोशल रिस्पाॅल्सबलिटी’ के फंड में से अपने पेशेवर खुफिया तंत्र विकसित करे।सरकार से अनुमति लेकर वह स्टिंग आपरेशन भी चलाए।जिन उद्योगपतियों के पास मीडिया है,वे उन पर इसे चलवाएं।
 उस खुफिया तंत्र व मीडिया  की मदद से नक्कालों को पकड़कर सरकार के सामने खड़ा किए जाने से सरकार को भी शर्म आएगी।लोकलाज में मजबूर होगी।
  कुछ साल पहले हमारीे संसद ने अपने 11 सदस्यों की सदस्यता समाप्त कर दी थी।
 क्योंकि वे सांसद  घूस लेते कैमरे पर पकड़े गए थे।कैमरे पर पकड़ लिए जाने पर लोकलाज में संसद से लेकर कई   कार्रवाई करने को मजबूर हो जाते हैं। 
    

 1967 के दिसंबर की बात है।गया में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का राष्ट्रीय सम्मेलन हो रहा था।
एक नेता मंच से जोरदार भाषण कर रहे थे।मैंने एक पुराने कार्यकत्र्ता से  पूछा कि ‘ये कौन हैं ?’
उस नेता ने मुस्कराते हुए कहा कि ‘नहीं जानते ?
ये पानी से सीधे बिजली निकाल लेते हैं।’
कैसे भाई ?
कार्यकत्र्ता ने कहा कि इनके चुनाव क्षेत्र में तो सिंचाई का भरपूर इंतजाम कांग्रेसी सरकार ने कर रखा है।फिर किस आधार पर आलोचना करते ? 1962 में लोक सभा का चुनाव लड़ रहे थे।
इन्होंने अपनी सभाओं में यह कहना शुरू किया कि ‘ अरे भाई आपके खेतांे में भरपूर उपज इसलिए नहीं हो पा रही है क्योंकि इस पानी की तो सारी ऊर्जा  सरकार ने पहले ही निकाल ली है।अब इस पानी में ताकत तो रही नहीं।’
 नेता जी चुनाव जीत  गए थे।
वे हालांकि मझोले कद के नेता थे,फिर भी मैंने ‘पानी से बिजली निकालने’ के गुण के कारण तब उनका भी आॅटोग्राफ  ले लिया था।वह अब भी मेरे पास है। 

   राजस्थान के पूर्व मुख्य मंत्री अशोक गहलोत ने हाल में उस बिजली-पानी प्रकरण की चर्चा कर दी।पर हां,लगता है कि  गहलोत जी ने पात्र बदल दिया।
गहलोत जी ने कह दिया कि ‘जनसंघ के नेता कहा करते थे कि ‘जब पानी से बिजली ही निकाल ली जाएगी तो वह सिंचाई के लिए उपयोगी नहीं रहेगी।‘
संभव है कि  जनसंघ के किसी नेता ने भी यही बात कही हो ।पर दरअसल साठ -सत्तर के दशक में उस सोशलिस्ट नेता को ही ऐसी टिप्पणी करने का श्रेय मिला था।उसकी चर्चा देश भर में हुई थी।
 कुछ महीने पहले भी मैंने फेसबुक पर उसकी चर्चा उस नेता का नाम लिए बिना की थी।
 उस पर दिल्ली के एक पुराने व्यक्ति व मेरे फेसबुक मित्र ने उनका नाम भी लिख दिया था।मैं जान बूझकर इस बार भी नाम नहीं लिख रहा हूं।
 यदि गहलोत जी ने ताजा चुनाव को देखते हुए सोशलिस्ट के बदले जनसंघी कह  दिया हो तो भी कोई बात नहीं।ऐसा होता रहता है।चुनाव के दौरान तो और भी अधिक।
प्रधान मंत्री ने भी तो हाल में सीतराम केसरी को  दलित बता दिया था। 
@नवंबर 2018@  

सोमवार, 19 नवंबर 2018

इंदिरा गांधी की वसीयत : वरुण के हितों की सुरक्षा राजीव-सोनिया की जिम्मेदारी थी

इंदिरा गांधी के जन्मदिन पर विशेष

सुरेंद्र किशोर 

--------------------- 
इंदिरा गांधी ने लिखा था कि ‘मैं यह देख कर खुश हूं कि राजीव और सोनिया फिरोज वरुण को उतना ही प्यार करते हैं जितना अपने खुद के बच्चों को। मुझे पक्का भरोसा है कि जहां तक संभव होगा, वे हर तरह से वरुण के हितों की रक्षा करेंगे।’

यह बात पूर्व प्रधानमंत्री ने अपनी वसीयत में दर्ज की है। वह वसीयत 4 मई, 1981 को लिखी गयी थी। उसके गवाह थे एम.वी. राजन और माखनलाल। इंदिरा गांधी ने यह भी लिखा है कि ‘संजय गांधी की जायदाद में मेरा जो शेयर है, मेरी इच्छा है कि वह फिरोज वरुण को मिले। इन बच्चों के बालिग होने तक यह संपत्ति ट्रस्ट के पास रहे जिसके प्रबंधक राजीव और सोनिया रहें।’


इंदिरा गांधी की वसीयत में अन्य परिजन की चर्चा मौजूद है सिवा मेनका गांधी के। फिरोज वरुण का तो उन्होंने पूरा ध्यान रखा, पर अपने छोटे पुत्र संजय की विधवा के लिए उनके पास देने को कुछ नहीं था। याद रहे कि संजय के निधन के बाद मेनका का संबंध इंदिरा जी से बहुत ही खराब हो गया था।


इंदिरा जी के जीवनकाल में मेनका ने अपना एक राजनीतिक संगठन भी बना लिया था-संजय विचार मंच।

ऐतिहासिक वसीयत में इंदिरा गांधी ने यह भी लिखा है कि 1947 में हमारे पास जितनी संपत्ति थी, आज उससे कम है। याद रहे कि इस बीच उन्होंने जवाहर लाल नेहरू स्मारक ट्रस्ट को इलाहाबाद का अपना ‘आनंद भवन’ दान कर दिया था।

वसीयत के अनुसार मेहरौली के पास के निजी फार्म हाउस राहुल और प्रियंका को मिले। वसीयत के अनुसार हिस्सेदारी दोनों बच्चों की बराबर -बराबर रहेगी। उन्होंने पुस्तकों की कॉपी राइट भी तीन हिस्सों में बांट दिए, तीनों बच्चों के नाम। यानी प्रियंका, राहुल और वरुण के नाम।


वसीयत के अनुसार जेवर इंदिरा जी ने प्रियंका को दिए। पर शेयर, सिक्युरिटी व यूनिट को तीनों बच्चों में बांटे। पुरातन सामग्री जो पुरातत्व विभाग में निबंधित हैं, वे प्रियंका को मिलेंगी।


इंदिरा जी ने अपनी वसीयत में लिखा कि मेरे सारे निजी पेपर्स राहुल को मिलेंगे। बहुमूल्य व दुर्लभ पुस्तकें राहुल और प्रियंका को मिलेंगी। कुछ अन्य सामग्री के बारे में भी वसीयत में जिक्र है।


प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लिखा कि तीनों बच्चों के नाम की गयी संपत्ति, ट्रस्ट के तहत रहेगी क्योंकि बच्चे अभी वयस्क नहीं हैं। ट्रस्ट के प्रबंधक राजीव होंगे। यदि किसी कारणवश राजीव प्रबंधक नहीं रहे तो सोनिया प्रबंधक बनेगी।


यह भी मान लिया गया कि इस वसीयत के जरिए भी इंदिरा जी ने अघोषित रूप में राजीव और उनके पुत्र राहुल को ही अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी भी नामजद कर दिया न कि वरुण को। वैसे भी 1980 में संजय गांधी के असामयिक निधन के थोड़े ही दिनों बाद मेनका गांधी इंदिरा गांधी के आवास से बाहर हो गयी थीं। या यूं कहिए कि कर दी गयी थीं। 


संजय गांधी की जायदाद जो भी रही हो, पर खुद इंदिरा गांधी की जायदाद ऐसी नहीं थी जिसपर अंगुली उठाई जा सके। इंदिरा जी का यह कहना भी महत्वपूर्ण है कि 1947 की अपेक्षा उनके परिवार की संपत्ति घटी जबकि वे लंबे समय तक सत्ता में रहे।


उनके जीवनकाल में भी किसी विरोधी नेता ने उनकी आय से अधिक संपत्ति का कोई मामला उठाया हो, यह हमें याद नहीं। हां, एक दूसरे प्रकार की शिकायत जरूर रही। अपने प्रधानमंत्रित्व काल में सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ उन्हें जितना कठोर होना चाहिए था, उतना नहीं हुर्इं। कई लोगों की ऐसी ही शिकायत जवाहरलाल नेहरू से भी रही।


फिर भी नेहरू - गांधी परिवार की 1981 तक की निजी संपत्ति को देखकर और आज के पक्ष-विपक्ष के अनेक नेताओं से उसकी तुलना करके देखने पर लगता है कि वे राजनीति के ‘संत’ थे। हालांकि इस शब्द का इस्तेमाल खुद इंदिरा गांधी ने अपने पिता के लिए किया था-‘मेरे पिता संत थे। पर मैं तो पॉलिटिशियन हूं।’


(मेरा यह लेख 19 नवंबर, 2018 को फस्र्टपोस्ट हिंदी में प्रकाशित)

अगले चुनावों में कौन जीतेगा?

पूर्ण तो कोई भी नहीं है। न व्यक्ति, न पार्टी, न नेता और न विचारधारा। न मैं और न आप ! कुछ लोग इससे अलग समझ रहे हों तो उनसे मेरी कोई बहस नहीं है। समझने की उन्हें पूरी आजादी है। अपने देश में अपवादों को छोड़कर हर चुनाव में अधिकतर मतदातागण कम नुकसानदेह और अपेक्षाकृत अधिक जन कल्याणकारी दलों व नेताओं को ही चुनते रहे हैं। ध्यान रहे, अधिकतर मतदातागण, सारे मतदाता नहीं। पर अधिकतर मतदातागण ही निर्णायक होते हैं।

इन दिनों हर कोई यही सवाल पूछ रहा है, ‘अगले चुनावों में कौन जीतेगा? जवाब यह है कि अगले विधानसभा व लोकसभा के चुनाव में भी सामान्यतः वही होने जा रहा है।

शनिवार, 17 नवंबर 2018

जवाहरलाल जी को मानव ही रहने दीजिए

जो जवाहरलाल नेहरू 1950 में राज गोपालाचारी और 1957 में डॉ. राधाकृष्णन को राष्ट्रपति नहीं बनवा सके, उन्हें देश को लोकतंत्र देने का श्रेय शशि थरूर दे रहे हैं! अरे भई, जवाहरलाल जी को मानव ही रहने दीजिए। महामानव बनाने की कोशिश मत कीजिए।

उनका आजादी की लड़ाई में बहुत बड़ा योगदान था। वे बड़े नेता थे, पर सब कुछ वही नहीं थे। कांग्रेस में अन्य कई बड़े नेताओं की भी चलती थी। लोकतंत्र एक सामूहिक प्रयास के कारण आया और कायम रहा। इस देश का मन मिजाज भी लोकतंत्र वाला ही है।

एक व्यक्ति को सारा श्रेय दीजिएगा तो राजनीति के विघ्नसंतोषी लोग नेहरू के वास्तविक योगदान को भी कम करके दिखाने लगेंगे। और न जाने उनके बारे में क्या-क्या कहानियां गढ़ने और नई पीढ़ी को बताने लगेंगे।

शुक्रवार, 16 नवंबर 2018


--डी.जे. से बड़ों व स्मार्ट फोन से बच्चों को बचा लेने की गंभीर समस्या--
कुछ साल पहले  पटना के एक नामी होटल में आयोजित एक पारिवारिक समारोह में जाने का अवसर मिला।
बड़े हाॅल के दरवाजे पर पहुंचने ही वाला था।पर, उससे पहले ही हाॅल में बज रहे  डी.जे.का इतना अधिक कानफाड़ू शोर सुनाई पड़ने लगा कि मैं समारोह में शामिल हुए बिना लौट आया।
  वहां से तो बच गया।पर अब तो डी.जे.का चलन गांव-गांव हो गया है।
  कहां- कहां बचिएगा ?
जानकारांे के अनुसार 85 डेसिबल या उससे अधिक आवाज सुनने पर कान को स्थायी तौर पर क्षति पहुंचने की आशंका रहती है।
पर डी.जे.की आवाज आम तौर पर सौ डेसिबल से भी अधिक 
रहती है।
आम तौर छोटे -छोटे धार्मिक व पारिवारिक समारोहों  में भी नौजवान डी.जे.मंगवा लेते हैं।
चूंकि गांवों में भी अभिभावकों का आम तौर पर अपने घर के युवकों पर कोई कंट्रोल नहीं रहा,इसलिए वे मनमानी करते रहते  हैं, नतीजों की परवाह किए बिना।उन्हें तो बुरे नतीजों कव कोई पूर्वानुमान ही नहीं है।
नियमतः 55 से 75 डेसिबल आवाज वाले लाउड स्पीकर या डी.जे. बजाने की सरकारी अनुमति है।
पर अदालतों के सख्त आदेशों के बावजूद तेज आवाज पर आम तौर पर कहीं कोई रोक नहीं ।यदि तेज लाउड स्पीकर या डी.जे. यदि धार्मिक स्थलों से  बजाया जा रहा हो तब तो स्थानीय पुलिस भी भयवश कोई कार्रवाई नहीं करती।
कई जगहों में तो तेज आवाज के कारण न तो रातों में नींद है और न ही दिन में चैन।ऐसे पीडि़तों को तेज शोर के राक्षस से बचाने वाला आज कोई नहीं।
  यही हाल बच्चों के हाथों में पड़े स्मार्ट फोन का है।
इसने महामारी का रूप धारण कर लिया है।अधिकतर परिवारों में यह देखा जाता है कि एक तरफ माएं स्मार्ट फोन लेकर बैठी हैं तो दूसरी तरफ उनके बच्चे।
इसके अनेक कुपरिणाम सामने आ रहे हैं।और भी आएंगे।
‘आॅक्सीजन’ के विनोद सिंह ‘चीनी छोड़ो’अभियान चलाते  हैं।उनका अभियान अच्छा है।कुछ अन्य समाजसेवी लोग कुछ अन्य तरह के लाभकारी अभियान चलाते रहते हैं। 
ऐसे  स्वयंसेवी संगठनों को स्मार्ट फोन और डी.जे.को लेकर भी कोई अभियान शुरू कर देना चाहिए।अन्यथा, बाद में देर हो चुकी होगी।  
--प्रदूषण की समस्या का एक समाधान
यह भी--
वायु प्रदूषण के मामले में पटना अब दिल्ली का मुकाबला करने लगा है।
 इस देश की कुछ समस्याएं जानलेवा हैं।फिर भी सरकारें उनके समाधान के लिए कड़े कदम नहीं उठातीं।
यह भारत जैसे ‘नरम राज्य’ में अधिक देखा जाता है।भीषण प्रदूषण की समस्या उन्हीं में से एक है।
 जब दिल्ली के हुक्मरानों को इस समस्या का समाधान नहीं सूझ रहा है तो बिहार की बात क्या करें ?
हालांकि दिल्ली के लिए दो ठोस प्रस्ताव एक बार फिर सामने आए हंै।
सारे गैर सी.एन.जी.वाहनों पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव है। दूसरा प्रस्ताव यह है कि एक बार फिर आॅड-इभन यानी सम -विषम संख्या वाले वाहनों को बारी -बारी से सड़कों पर चलाने की छूट दी जाए।
पर साथ ही  यह भी सलाह दी जा रही है कि इस बार महिला चालकों व दो पहिया वाहनों को कोई छूट न दी जाए।
देखना है कि इसे लागू किया जा सकेगा या नहीं।
पहले तो पूरे देश में एक खास अदालती आदेश को लागू करना चाहिए ।वह  15 साल से अधिक पुराने वाहनों को लेकर है।उन्हें अविलंब सड़कों से बाहर कर दिया जाना चाहिए।
जब सरकारें यह काम भी नहीं कर पा रही है तो और भला क्या संभव है ?
 --पी.एम.सी.एच.शहर के भीतर ही क्यों ?--
इस महीने एक खुशखबरी आई।मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने घोषणा की पटना मेडिकल काॅलेज अस्पताल को विश्व स्तर का अस्पताल बनाया जाएगा।
54 सौ करोड़ रुपए की लागत से उसका उन्नयन किया जाएगा।उसमें अब 5 हजार बेड होंगे।
 बिहार के लिए इससे बेहतर खबर और क्या हो सकती है ?
पर क्या अब यह समय नहीं आ गया है कि पटना मेडिकल काॅलेज अस्पताल के उस उन्नत संस्करण का निर्माण  मुख्य नगर से बाहर कहीं हो।
पटना में प्रदूषण कम करने की दिशा में वह एक जरूरी कदम होगा।
पटना एम्स भी तो मुख्य नगर से दूर ही है।
एम्स के आसपास न सिर्फ आबादी बढ़ रही है बल्कि नये- नये निजी अस्पताल भी खोले जाने का प्रस्ताव है।इससे भी मुख्य नगर पर से आबादी का बोझ घटेगा।प्रदूषण कम होगा।
भूजल संकट कम होगा।सड़कों से वाहनों का बोझ कम होगा। 
    -- ऐसे तैयार होंगे योग्य शिक्षक--
प्रधान मंत्री विद्यालक्ष्मी योजना के तहत पढ़ाई के लिए 
10 से 20 लाख रुपए तक के कर्ज की सुविधा केंद्र सरकार ने मुहैया की है।
 नौकरी लगने पर कर्ज वापस कर देना पड़ेगा।
यह एक अच्छी योजना है।
इस देश में पैसों के अभाव में  प्रतिभाशाली छात्र आगे नहीं पढ़ पाते।
पर, इस योजना में एक संशोधन की जरूरत है।
इस देश में इन दिनों योग्य शिक्षकों की भारी कमी है।यह कमी लगभग हर स्तर पर है।मेडिकल काॅलेजों से लेकर सामान्य काॅलेजों में भी योग्य शिक्षकों की कमी पड़ रही है।
   विद्यालक्ष्मी योजना के तहत कर्ज लेकर शिक्षक की नौकरी करने वालों को यह कर्ज लौटाना न पड़े,ऐसी व्यवस्था केंद्र सरकार को करनी चाहिए।
 1963 में भारत सरकार ने ऐसी ही एक छात्रवृत्ति योजना शुरू की थी।उसका नाम था राष्ट्रीय ऋण स्काॅलरशीप योजना।उसे भी नौकरी के बाद 
लौटा देना था।पर उसमें एक ढील दी गयी थी।जो लोग शिक्षक की नौकरी करेंगे ,उन्हें वह ऋण नहीं लौटाना था। केंद्र सरकार ने ही ऐसा  प्रावधान कर रखा था।
अच्छे शिक्षकों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए वह प्रावधान किया गया था।
याद रहे कि वह ऋण स्काॅलरशीप उन्हें ही मिल पाता था जिन्हें मैट्रिक में कम से कम 60 प्रतिशत अंक आए हों।
उन दिनों 60 प्रतिशत अंक वाले भी प्रतिभाशाली छात्र होते  थे।  
  --भूली बिसरी याद--
आजादी की लड़ाई के दिनों जवाहर लाल नेहरू चाहते थे कि 
जय प्रकाश नारायण उनके घर में उनके साथ ही रहें।
इस संबंध में 30 अप्रैल 1930 को जेल से जवाहर लाल नेहरू ने अपने पिता मोतीलाल नेहरू को लिखा कि ‘यह भी संभव है कि जय प्रकाश और प्रभावती मेरे ऊपर वाले पुराने कमरों में रहें।उनसे सलाह की जा सकती है।उनके लिए यह अधिक सुविधाजनक एवं सस्ता होगा।वे हर महीने 25 से 30 रुपए किराया दे सकते हैं।जहां तक रसोई घर का संबंध है,पुराने रसाई घर के बगल का छोटा कमरा उन्हें दिया जा सकता है।’
जेपी के बारे में नेहरू जी ने महात्मा गांधी को 1931 में  लिखा कि ‘जे.पी.वहां खुश नहीं हैं।अनिश्चितता और आधारहीनता महसूस कर रहे हैं।नहीं लगता कि बिरला के साथ काम करने में उनकी कोई रूचि है।’
 बिरला जी के यहां काम करने की पृष्ठभूमि कुछ इस प्रकार बनी थी।
जेपी जब अमेरिका से पढ़कर लौटे तो प्रभावती जी ने गांधी जी से बात की।गांधी जी ने जी.डी.बिरला से बात की।
जेपी को फिलहाल तीन सौ रुपए माहवारी की कोई नौकरी चाहिए थी।
बिरला जी ने गांधी जी से कहा कि हमारे पास 300 रुपए माहवार वाला एक ही पद खाली है।वह है मेरे निजी सचिव का पद।
यदि जेपी राजी हों तो मैं तैयार हूं।जेपी राजी हो गए।पर वहां उनका मन नहीं लग रहा था।उसी की चर्चा नेहरू जी ने अपने पत्र में की।
    --और अंत में--
केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल प्रत्येक घटक दल से कम से कम 
एक कैबिनेट मंत्री रहें तो राजनीतिक प्रबंधन में गठबंधन को सुविधा हो सकती है।
 उम्मीद है कि 2019 के चुनाव के बाद सत्ता में आने वाला गठबंधन इस पर ध्यान देगा।
अभी तो कुछ घटक दलों के नेताओं को राज्य मंत्री पद पर ही संतोष करना पड़ता है। 
@ 16 नवंबर 2018 को प्रभात खबर-बिहार-में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से@

 2017 में निर्णय आने के बाद सी.बी.आई.ने कहा था कि
विशेष जज ने दस्तावेजी सबूतों को भी नजरअंदाज किया
और मौखिक गवाही पर भरोसा किया।
सी.बी.आई.ने वकील को दोषी नहीं ठहराया था।
वकील तो कोर्ट में वही करता है जो उसका मुवक्किल करने के लिए समय -समय पर कहता है।
क्या आपको लोअर कोर्ट के ऐसे निर्णय में कोई कमी महसूस नहीं होती ?
याद रहे कि इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने प्रथम द्रष्ट्वा घोटाला मान कर 122 लाइसेंस रद कर दिए थे और जुर्माना भी लगाया था।
 धारा -165 का इस्तेमाल करने में किसी वकील की कोई भूमिका नहीं होती।@16 नवंबर 18@

गुरुवार, 15 नवंबर 2018

चुनाव प्रचार के दौरान इन दिनों कुछ लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि ‘आखिर 2 जी घोटाले में  क्या मिला ?
2 जी मामले में कोर्ट ने आरोपितों को तो दोषमुक्त कर दिया।’
पर कम ही लोगों को यह मालूम है कि 2 जी का मामला अब भी दिल्ली हाई कोर्ट में विचाराधीन है।
सी.बी.आई.ने लोअर कोर्ट के जजमेंट के खिलाफ अपील कर रखी है।यानी 2 जी केस समाप्त नहीं हुआ है।हां, 2019 में यदि राजग विरोधी सरकार बन गयी तो उसे समाप्त किया जा सकता है।  
2 जी घोटाले से संबंधित मुकदमे की जानकारी संक्षेप में--
 2 जी. स्पैक्ट्रम घोटाला मुकदमे में ए.राजा और कनिमोझी को दोषमुक्त करते हुए दिल्ली स्थित विशेष सी.बी.आई. जज ओ.पी.सैनी ने 2017 में  कहा था कि कलाइनगर टी.वी.को कथित रिश्वत के रूप में शाहिद बलवा की कंपनी डी.बी.ग्रूप द्वारा 200 करोड़ रुपए देने के मामले मेंं अभियोजन पक्ष ने किसी गवाह से जिरह तक नहीं की।
कोई सवाल नहीं किया।याद रहे कि उस  टीवी कंपनी का मालिकाना करूणानिधि परिवार से जुड़ा है।
मान लिया कि कोई सवाल नहीं किया ।क्योंकि शायद मनमोहन सरकार के कवर्यकाल में  सी.बी.आई. के वकील को ऐसा करने की अनुमति नहीं रही होगी।
पर, खुद जज साहब के लिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम में ऐसे ही मौके के लिए  धारा -165 का प्रावधान किया गया है।आश्चर्य है कि  धारा -165 में प्रदत्त अपने अधिकार का सैनी साहब ने इस्तेमाल क्यों नहीं किया।
 संभवतः इस सवाल पर अब हाई कोर्ट में विचार होगा कि 
 जज ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा -165 में  मिली शक्ति का उपयोग क्यों नहीं किया जबकि उनके पास  यह सूचना थी कि
इस घोटाले में 200 करोड़ रुपए की रिश्वत देने का आरोप लगा हैै ?
इस केस का यह सबसे प्रमुख सवाल है।
  उक्त धारा के अनुसार- ‘न्यायाधीश सुसंगत तथ्यों का पता चलाने के लिए या उनका उचित सबूत अभिप्राप्त करने के लिए ,किसी भी रूप में किसी भी समय, किसी भी साक्षी या पक्षकारों से, किसी भी सुसंगत या विसंगत तथ्य के बारे में कोई भी प्रश्न, जो वह चाहे पूछ सकेगा तथा किसी भी दस्तावेज या चीज को पेश करने का आदेश दे सकेगा और न तो पक्षकार और न उनके अभिकत्र्ता हकदार होंगे कि वे किसी भी ऐसे प्रश्न या आदेश के प्रति कोई भी आक्षेप करंे , न ऐसे किसी भी प्रश्न  के  प्रत्युत्तर में दिए गए किसी भी उत्तर पर किसी भी साक्षी की न्यायालय की इजाजत के बिना प्रति परीक्षा करने के हकदार होंगें।’


सुविधा के अनुसार ही भगवान राम को भी समझ लिया

पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने कहा है कि भगवान राम भी नहीं चाहेंगे कि किसी विवादास्पद स्थल पर उनका मंदिर बने। यानी, श्री सिंह ने अपनी राजनीतिक सुविधा के अनुसार ही भगवान राम को भी समझ लिया है।

भगवान राम का यही मानस होता तो वे सीता जी को लंका में ही छोड़ दिए होते। पर नहीं। उन्होंने खुद की और अपने भाई की जान जोखिम में डालकर सीता को वापस लाया। यानी अपना हक फिर से हासिल किया।


जो लोग यह मानते हैं कि राम मंदिर को ध्वस्त करके बाबरी मस्जिद बनी थी, स्वाभाविक है कि वे लोग वही काम करेंगे जो काम खुद राम ने किया था। जिन लोगों को घ्वस्त मंदिर पर बाबरी मस्जिद निर्माण की घटना पर शक हो, वे काशी की ज्ञानवापी मस्जिद की एक झलक गुगल पर देख लें।


वैसे तो अभी सबको सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का इंतजार करना चाहिए, पर उससे पहले ही दोनों पक्षों के बयान आ रहे हैं तो मैं भी इस छोटी टिप्पणी से खुद को नहीं रोक सका।


पहले की एक मशहूर कहावत है--’लव और वार में
सब कुछ जायज है।’
अब इसे ऐसे बदल लीजिए-‘लव, वार और पालिटिक्स में सब कुछ जायज है।’

एक जानकारी के अनुसार सिर्फ पटना में
24 सौ कोचिंग संस्थान चल रहे हैं।
पूरे बिहार का कोई 
समेकित आंकड़ा अभी नहीं मिला है।
इतनी संख्या में कोचिंग संस्थानों की जरूरत आखिर क्यों पड़ती है ? इस बात  पर नीति निर्धारक  विचार करें । 

मंगलवार, 13 नवंबर 2018

इन दिनों चुनावों के लिए टिकट बांटने के दौर चल रहे हैं।
2019 के लोक सभा चुनाव से पहले तो ऐसे दौर व्यापक तौर पर चलेंगे।
  आए दिन खबर आती रही है कि फलां नेता को अपनी पार्टी ने टिकट नहीं दिया तो वे दूसरे दल के उम्मीदवार बन गए।
हां, इस बीच कुछ नेता टिकट कट जाने के बावजूद अपने ही दल में बने भी रहे।
  कोई स्वयंसेवी संगठन एक काम करे।
वह अगले लोक सभा चुनाव की प्रक्रिया समाप्त हो जाने के बाद एक समारोह करे।उस समारोह में उन नेताओं को सार्वजनिक रूप से सम्मानित करे जिन्होंने टिकट कट जाने के बावजूद दल बदल नहीं किया।
हर चुनाव के बाद ऐसा होना चाहिए।
इससे दो बातें होंगी।एक तो लाॅयल पार्टी नेताआंे -कार्यकत्र्ताओं को बढ़ावा मिलेगा।
पर, ऐसे किसी सम्मान समारोह के बाद दूसरी ओर दल बदल  चुके नेतागण खुद अपने बारे में और लोगबाग उनके बारे में क्या सोचेंगे ?
आप खुद सोच कर देख लीजिए !

1.-दाना पुर के डी.आर.एम.आर.पी.ठाकुर ने पटना रेलवे
जंक्शन के सात टी.सी.को निलंबित करने का आदेश दे दिया है।
गत रविवार को डी.आर. एम. के औचक निरीक्षण के दौरान ये टिकट कलेक्टर्स अपनी ड्यूटी से गायब पाए गए थे।
2.-भारत सरकार के गैर आई.ए.एस.संयुक्त सचिव समय पर आॅफिस आ जाते हैं।
आई.ए.एस.संयुक्त सचिवों पर ऐसा कोई ‘आरोप’ नहीं है।
याद रहे कि 400 संयुक्त सचिवों में से गैर आई.ए.एस.संयुक्त सचिवों की संख्या बढ़कर अब 200 तक पहुंच चुकी  है।
2014 से पहले गैर आई.ए.एस.संयुक्त सचिवों की संख्या 10 प्रतिशत ही थी।
3.-यह बात छिपी नहीं है कि बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों के अनेक शिक्षक बिना काम किए वेतन ले रहे हैं।अधिकतर सरकारी डाक्टर प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों में जाने की जहमत नहीं उठाते।
4.-इसी साल फरवरी में यह खबर आई थी कि पटना जिले के 200 पुलिसकर्मी एक साल से ड्यूटी पर नहीं आ रहे हैं फिर भी उनका वेतन बनता जा रहा है।
5.-ऐसी घटनाओं की खबरें अक्सर आती रहती हैंं।
इस मामलें में इस देश के शासन की स्थिति बिगड़ती ही जा रही है।
-----------------------------
यदि बहुत बिगड़ गयी तो आखिर एक दिन उसका क्या नतीजा होगा ?
ऐसे मामले को लेकर जर्मनी की एक कहानी मैंने बहुत 
पहले कहीं पढ़ी या सुनी थी।यदि गलत हो तो जानकार मुझे सही कर देंगे।सही हो या गलत पर यह कहानी तार्किक तो लगती है। 
हिटलर-पूर्व जर्मनी में टे्रन के ड्रायवर किसी भी स्टेशन पर कभी भी ट्रेन रोक कर स्टेशन मास्टर के साथ बैठकर ताश खेलने लगते थे।यात्री गण भगवान भरोसे ! 
तानाशाह हिटलर जब सत्ता में आया तो उसने औचक निरीक्षण के दौरान कुछ ताश खेलते ड्रायवरों को वहीं गोली मार दी।
उसके बाद हर  ड्रायवर को लगने लगा कि हिटलर हाथ में रिवाल्वर लिए मेरी पीठ पर खड़ा है।
  ईश्वर न करे कि इस देश में कभी ऐसी नौबत आए।यहां अधिकतर लोगों का मिजाज लोकतांत्रिक बन चुका है।इसलिए शायद नौबत नहीं ही आएगी।
पर पावर-पोजिशन में बैठे हमारे ही अनेक लोग उसकी पृष्ठभूमि तैयार करने में तो कोई कमी नहीं छोड़ रहे है !
इस कामचोरी की समस्या को भीषण सरकारी भ्रष्टाचार के कोढ़ से जोड़कर देखिए ! देश की कैसी तस्वीर बनती है ?
हालांकि देश के सिस्टम में शामिल कई लोग ईमानदार भी हैं।पर वे कई बार बेबस लगते हैं।



1.-बिक्रेता सब्जियों की ताजगी बरकरार रखने अथवा उनके परिरक्षण के लिए उन्हें कीटनाशकों में डूबोते हैं।
तेलों और मिठाइयों में वर्जित पदार्थों की मिलावट की जाती है।
2.-सब्जियों और दूसरे खाद्य पदार्थ को धोना फायदेमंद है।लेकिन पकाने से विषैले अवशेष बिरले ही खत्म होते हैं।निगले जाने के बाद छोटी आंत कीटनाशकों को सोख लेती हैं।
3.-शरीर भर में फैले बसायुक्त उत्तक इन कीटनाशकों को जमा कर लेते हैं।इनसे दिल,दिमाग,गुर्दे और जिगर सरीखे अहम अंगों को नुकसान पहुंच सकता है।
--इंडिया टूडे हिंदी-15 जून, 1989
4.-कई साल पहले भारत की  संसद में यह कहा गया कि अमेरिका की अपेक्षा हमारे देश में तैयार हो रहे कोल्ड ड्रिंक में 
रासायनिक कीटनाशक दवाओं का प्रतिशत काफी अधिक है ।इस पर  सरकार ने कह दिया कि यहां कुछ अधिक की अनुमति है।
5.-यह तब की बात है जब प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी  थे।पटना हवाई अड्डे पर  जो बोतलबंद पानी उन्हें परोसा जाने वाला था,वह अशुद्ध पाया गया था।ऐसी ही घटना  मनमोहन सिंह के साथ कानपुर में हुई थी जब वे प्रधान मंत्री के रूप में वहां यात्रा पर गए थे।
यानी प्रधान मंत्री भी नहीं बच पा रहे हैं।
  हाल की खबर है कि इस देश में बिक रहे 85  प्रतिशत दूध मिलावटी है।जितने दूध का उत्पादन नहीं है,उससे अधिक की आपूत्र्ति हो रही है।  
6.-सवाल है कि इस देश में अन्य कौन सा खाद्य व भोज्य पदार्थ कितना शुद्ध है ?
यह जानलेवा समस्या बहुत पुरानी है।
विभिन्न सरकारें लोक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए क्या -क्या करती हंै ? कितने दोषियों को हर साल सजा हो पाती है ?
मिलावट का यह कारोबार जारी रहा तो कुछ दशकों के बाद हमारे यहां कितने स्वस्थ व कितने अपंग बच्चे पैदा होंगे ?
पीढि़यों के साथ इस  खिलवाड़ को आप क्या कहेंगे ?क्या सबके मूल मंे भष्टाचार नहीं है ?   



सोमवार, 12 नवंबर 2018

आज के ‘टेलिग्राफ’ में प्रकाशित एक खबर के अनुसार धुबरी 
@असम@और फुलबाड़ी@मेघालय@ के बीच ब्रह्मपुत्र नद पर 20 किलोमीटर लंबा पुल बनने जा रहा है। धुबरी जिले के प्रशासन ने पहुंच पथ के लिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू भी कर दी है।
 इतनी दूर की यह  खबर मेरे लिए महत्वपूर्ण कैसे हो गयी ?
दरअसल मैं इमरजेंसी में फुलबाड़ी में कई महीनों तक अज्ञातवास में था।
इस खबर के साथ वहां की अनेक बातें व यादें एक साथ दिमाग में कौंध गयीं।
 मैंने तब फकीरा ग्राम रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से उतर कर 
 धुबरी के लिए बस पकड़ी थी।
धुबरी में स्टीमर पर सवार होकर फुलबाड़ी गया था।घंटों लगे थे।कई बार तो पता नहीं चल रहा था कि स्टीमर नद की लंबाई में चल रहा है या चैड़ाई में।
स्टीमर के मालिक सोन पुर @बिहार@के ही बाबू साहब थे।उनका स्टाफ भोजपुरी में बातें कर रहे थे।पर मैं अपना परिचय नहीं दे सकता था।
खैर, मैं फुलबाड़ी में महीनों रहा।हर सप्ताह मैं कठिन यात्रा तय करके फुलबाड़ी से धुबरी पहुंचता था-दिनमान और ब्लिट्ज खरीदने।
 आश्चर्य है कि तब से अब तक यानी 42 साल में किसी शासक को यह नहीं सूझा कि धुबरी के पास पुल बनाना जरूरी है।
 लगता तो नहीं कि मैं अब फिर कभी वहां जा पाऊंगा।पर जा पाता तो पुल बन जाने के बाद यह देखना दिलचस्प होता कि एक पिछड़े इलाके में पुल के पहले और पुल के बाद की स्थिति में कितना व क्या फर्क आता है।   

पति-पत्नी यदि आपस में लड़ना चाहें तो उन्हें सुबह से शाम तक इसके लिए दर्जनों बहाने मिल जाएंगे।
  पर,यदि अपनी  और अपने परिवार की तरक्की के लिए शांतिपूर्वक रह कर अपने काम में लगे रहना चाहें तो वे दिन भर में इसके लिए कई उपाय खोज ले सकते हैं।
  टी.वी.धारावाहिक देख कर बड़े होते छोटे बच्चे भी कई बार यह बता देते हैं कि उनके लड़ते-झगड़ते माता-पिता में से कौन कब गलती पर होता  है।
   बेहतर हो कि कभी अपने बच्चे को ही पंच बना कर झगड़ा शांत कर लेेने का बहाना ढूंढ़ लिया जाए।
  मैं यह दावा नहीं करता कि 45 साल के दाम्पत्य जीवन में हम कभी लड़े नहीं।पर हां, इसकी नौबत कभी नहीं आई कि पत्नी ने कहा कि मैं मैके चली जाऊंगा या मैंने कहा हो कि मैं घर छोड़कर चला जाऊंगा।
  हां, अघोषित समझौते के तहत हमने एक उपाय जरूर किया।मैं गुस्से में रहा तो पत्नी मौन हो गयीं और पत्नी गुस्से में रहीं तो मैं शांत रहा।

शनिवार, 10 नवंबर 2018

--राजनीति में वंशवाद की कमजोरियों में उलझ गया है चैटाला परिवार--



 किसी भी राजनीतिक परिवार में उत्तराधिकार की लड़ाई कठिन व दिलचस्प होती है।पर, यदि वह ‘युद्ध’ किसी हरियाणवी परिवार में हो तो उसमें महाभारत का पुट होना स्वाभाविक है।
इंडियन नेशनल लोक दल के सुप्रीमो  व पूर्व मुख्य मंत्री ओम प्रकाश चैटाला इन दिनों  इसी परेशानी से जूझ रहे हैं।
 उन्होंने अपने पुत्र अभय चैटाला को अपना उत्तराधिकारी बनाने का निर्णय  कर लिया।पर अजय चैटाला के पुत्र द्वय अपने दादा का आदेश नहीं मान रहे हैं।याद रहे कि ओम प्रकाश जी के एक  पुत्र अजय चैटाला अपने पिता ओम प्रकाश चाटाला के साथ सजा काट रहे हैं।
पर अजय का कहना है कि ‘इंडियन नेशनल लोक दल न तो मेरे बाप की पार्टी है और न ही किसी और के बाप की।’
 अजय ने महाभारत शैली में यह भी कहा है कि ‘अब याचना नहीं,रण होगा,जीवन या मरण होगा।’ 
यह कार्यकत्र्ताओं की पार्टी है,वही निर्णय  करंेगे।अजय गुट के कार्यकत्र्ताओं की बैठक होने वाली है।जेल से पेरोल पर निकल कर अजय चैटाला अपने पुत्र की मदद में जुट गए हैं।
  इस बीच अजय के पुत्र ने भाजपा नेता व केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत से भी संपर्क साधा है।
 यानी हरियाणा के राजनीतिक समीकरण के बदलने के भी संकेत मिल रहे हैं।
  याद रहे कि  अभय सिंह चैटाला हरियाणा विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता है।अजय चैटाला के पुत्र दुष्यंत चैटाला सांसद हैं।
दुष्यंत के छोटे भाई दिग्विजय चैटाला पार्टी के छात्र संगठन के प्रमुख थे।अब नहीं हैं।
दुष्यंत के साथ -साथ दिग्विजय को भी  ओम प्रकाश चैटाला के दल ने इसी माह अपनी पार्टी से निकाल दिया । 
दुष्यंत कहते हैं कि मेरे पिता ने 40 साल तक पार्टी की सेवा की है।
गत 7 अक्तूबर को दुष्यंत चैटाला के समर्थकों ने पार्टी रैली में अभय के भाषण के दौरान उपद्रव किया था।उस कारण उन्हें निलंबित किया गया था।उनके भाई दिग्विजय के खिलाफ भी पार्टी ने कार्रवाई की थी।
  इस बीच एक बार फिर मेल जोल की कोशिश भी हो रही है।पर समझौता कठिन माना जा रहा है।
देवीलाल द्वारा खड़ी की गयी इस पार्टी का हरियाणा में अच्छा- खासा जनाधार रहा है।पर लगता है कि पारिवारिक झगड़े का लाभ अगले चुनाव में भाजपा या कांग्रेस को मिल सकता है।
राजनीति में वंशवाद की कई बुराइयां हैं।पर उत्तराधिकार की समस्या को हल कर पाना किसी भी सुप्रीमो के लिए सबसे कठिन काम होता है।
ऐसे झगड़े में कई बार कुछ दल अपने मूल उद्देश्य से भटक जाते हैं। सर्वाधिक नुकसान उन आम लोगों को होता है जो लोग ऐसे दलों से अपने भले की बड़ी उम्मीद लगाए बैठे होते हैं।
वंशवाद जो न कराए ! 
   ---स्ट्रीट फूड बेहतर--
लोक स्वास्थ्य विशेषज्ञ के अनुसार सड़क और गलियों में ठेले
पर  बिक रहे आहार अपेक्षाकृत बेहतर हैं।
उनका तर्क है कि ऐसे आहार बासी नहीं होते।रोज बनते हैं,रोज बिक जाते हैं।इसके विपरीत कई बड़ेे होटलों के फ्रिज में एक -दो दिनों से रखे आहार दुबारा गर्म करके खिलाए जाते हैं।वे स्वास्थ्य के लिए हानिकर होते हैं।
   विशेषज्ञ की यह राय तो स्ट्रीट वेंडर को खुश कर देने वाली  है।
पर उन ठेले वालों की भी कुछ जिम्मेदारियां बनती हैं।वे आम तौर से साफ-सफाई पर ध्यान नहीं देते।अपवादों की बात और है।
उन्हें चाहिए कि वे आहार बनाने और बत्र्तन धोने में गंदे पानी का इस्तेमाल न करें।
यदि वे सड़े आलू समोसे में न डालें,तो उनका बड़ा नाम होगा।आदि.... आदि....।
   --राष्ट्र कवि दिनकर के लिए--
राष्ट्रकवि राम धारी सिंह दिनकर की स्मृति में सिमरिया में 
अगले माह एक सप्ताह का कार्यक्रम प्रस्तावित है।
 उस अवसर पर बेगूसराय जिले
के उस गांव में राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री के कार्यक्रमों की स्वीकृति लेने की कोशिश भी की जा रही है।
यहां मिल रही खबर के अनुसार उस कोशिश में
केंद्रीय राज्य मंत्री गिरिराज सिंह के अलावा कुछ अन्य दलों के  कुछ नेता भी लगे हुए हैं। 
देखना है कि वे नेता सफल हो पाते हैं या नहीं।वैसे दिनकर के महत्व को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी भी स्वीकार करते  हैं।
 -- आठ साल पहले की वह खुली चिट्ठी-- 
जनवरी, 2011 में विप्रो के अजीम प्रेम जी और महेंद्रा ग्रूप के के. महेंद्र सहित इस देश की 14 प्रमुख हस्तियों ने एक खुली चिट्ठी लिखी थी।
चिट्ठी इस देश के नेताओं के नाम थी।
चिट्ठी में कहा गया था कि वे भ्रष्टाचार पर काबू पाएं और 
जांच एजेंसियों को स्वायत्त बनाएं।
वह चिट्ठी जिन चर्चित हस्तियों की ओर से लिखी गई थी,उनमें जमशेद गोदरेज,अनु आगा,दीपक पारीख,अशोक गांगुली,विमल जालान और बी.एन.श्रीकृष्णा शामिल थे।
  अब सवाल यह है कि इन हस्तियों  की नजर में  भ्रष्टाचार के मामले में देश की आज हालत कैसी है ?
क्या ये हस्तियां ताजा हालात पर भी कोई टिप्पणी करेंगी  ?
हालांकि यह महत्वपूर्ण है कि इस बीच उन लोगों ने तो कोई अगली चिट््ठी लिखी और न कोई बैठक की।कम से कम ऐसी कोई खबर सार्वजनिक नहीं हुई है।  
     -भूली बिसरी याद-
अयोध्या और श्रीराम की चर्चा के बीच कामिल बुल्के को याद करना भी अप्रासंगिक नहीं होगा।
  बेल्जियम में सन 1909 में जन्मे फादर कामिल बुल्के ने इलाहाबाद विश्व विद्यालय से ‘राम कथा उत्पत्ति व विकास’ विषय पर पीएच.डी.किया था।
खास बात यह है कि उनका शोध पत्र हिंदी में था।ऐसा पहली बार हुआ।इसके लिए इलाहाबाद विश्व विद्यालय के तत्कालीन वी.सी.डा.अमरनाथ झा ने नियम बदल दिया था।
‘बाबा बुल्के’की जिद थी कि ‘मैं अपनी थिसिस हिंदी में ही तैयार करूंगा।’ उससे पहले यह नियम था कि सारे शोध पत्र अंग्रेजी में ही देने होंगे। 
तब किसी ने कहा था कि बुल्के साहब राम कथा संबंधित समस्त सामग्री के विश्व कोष हैं।
इसाई धर्म का प्रचार करने भारत आने के बाद उन्हंे यह देख कर दुःख हुआ कि यहां के पढ़े -लिखे लोग भी अपनी सांस्कृतिक परंपराओं से अनजान थे।
 खुद फादर कामिल बुल्के सन 1950 में भारत के नागरिक बन गए और यहां के समाज में रच -बस गए।
 वे अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, लैटिन, ग्रीक भाषाओं में सहज थे। उनका संस्कृत पर पूरा अधिकार था।
उनका तैयार किया हुआ अंग्रेजी -हिंदी कोश प्रामणिक है जो मेरे टेबल पर भी रहता है।
उन्होंने कई अन्य पुस्तकें भी लिखीं।
सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर चुके कामिल बुल्के ने सन 1930 में जेसुइट मिशन में दीक्षा ली थी।
वे रांची के सेंट जेवियर काॅलेज में संस्कृत और हिंदी पढ़ाते थे। उन्हें 1974 में पद्म भूषण सम्मान भी मिला था।
उनका सन 1982 में निधन हो गया।
राम कथा के एक विदेशी शोध कत्र्ता को  याद करना अपने आप में एक खास अनुभव है। 
बुल्के साहब इलाहाबाद के चर्चित साहित्यिक समूह ‘परिमल’ के सदस्य थे और धर्मवीर भारती को वे गुरु भाई कहते थे ।भारती जी  बाद में धर्मयुग के संपादक बने थे। 
    -और अंत में-
कौन सी विद्या कहां काम आ जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। एक भारतीय की ज्योतिष विद्या पाकिस्तानी जेलों में काम आ गई।
पाकिस्तानी जेल में 27 साल बिता कर स्वदेश लौटे रूप लाल का संस्मरण मैं पढ़ रहा था।पाकिस्तानी सुरक्षा कर्मियों ने जासूसी के आरोप में सन 1974
में उन्हें गिरफ्तार कर लिया था। 
 रूप लाल के  अनुसार, ‘ मैं वहां जेल में कैदियों की हस्त रेखाएं पढ़कर उनका भविष्य बताता था।उसके बदले वे मुझे कुछ पैसे देते थे।उन पैसों के जरिए  मैं जेल के बाहर से धार्मिक पुस्तकें मंगाता था।इसके लिए जेल कर्मियों को रिश्वत देनी पड़ती थी।चलिए,इस मामले में भारत और पाकिस्तान का एक ही हाल है।यहां भी जेल कर्मियों को रिश्वत देकर आप कुछ भी बाहर से मंगवा सकते हैं, ऐसी
 खबरें अक्सर छपती रहती हैं।  
@9 नवंबर 2018 को प्रभात खबर-बिहार में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से@
    

गुरुवार, 8 नवंबर 2018

 3 नवंबर, 2018 को अपने फेसबुक वाॅल पर देश के वरीय पत्रकार शम्भू नाथ शुक्ल ने लिखा कि ‘
‘मेरे संपर्क में जितने भी हिंदी पत्रकार आए,उनमें से सबसे ज्यादा गंभीर,डेड आॅनेस्ट,विचारवान और विचार धारा के प्रति दृढ पत्रकार एक ही मिले।
वे हैं पटना के श्री सुरेंद्र किशोर।
कोई शंकालु सवाल उठा सकता है कि ‘आप क्या ईमानदार नहीं हो ?’
तो मेरा जवाब होगा-‘कत्तई नहीं,क्योंकि मुझे मौका ही नहीं मिला।इसलिए मैं ‘न जुरे तो महात्यागी’ का तमगा नहीं लेना चाहता।’
खैर, असली बात यह है कि 73 वर्षीय पटना के इस ‘सिंह’ ने लिखा था कि जाड़े भर नथुनों में नहाने के पूर्व सरसों का तेल डालने वाले को जुकाम नहीं होता।साथ ही नाभि पर भी यही तेल लगाना चाहिए।
आज से मैंने यही प्रयोग शुरू कर दिया है।सुरेंद्र जी का अनुभव काम का होगा।सुरेंद्र जी की ईमानदारी पर फिर लिखूंगा।’
सुरेंद्र किशोर का जवाब--
 शुक्ल जी, आपकी एक पंक्ति मेरे लिए ‘भारत रत्न’ के समान है।
मैंने पत्रकारीय जीवन में कई न्यूज ब्रेक किए।मेरी रपटों पर बारी-बारी से तीन बार संसद भी स्थगित हो चुकी है।
पर, मुझे पत्रकारिता का कोई पुरस्कार नहीं मिला।हालांकि नहीं मिला,कहना सही नहीं होगा ।दरअसल  मैंने  लिया नहीं ।
 मैंने कई बार प्रांतीय व राष्ट्रीय पुरस्कार के आॅफर को विनम्रतापूर्वक  अस्वीकार कर दिया।
मुझे उसी पुरस्कार की प्रतीक्षा थी जो आप जैसे बड़े पत्रकार ने एक लाइन में मुझे दे दिया।
मेरा हमेशा यह मानना रहा है कि किसी पत्रकार का सबसे बड़ा पुरस्कार यही है कि उसके बारे में आम पाठक क्या राय रखते हैं।‘खास पाठकों’ की मैं चिंता नहीं करता।खास पाठकों को हर पत्रकार  संतुष्ट नहीं कर सकता।दरअसल  मैं देश- संविधान-कानून-सदाचार को किसी भी विचारधारा की अपेक्षा अधिक तरजीह देता हूं।
  पर, आपसे मेरी एक विनती है।आपने अपने  पोस्ट की  अंतिम लाइन में जो अपनी योजना बताई है,उसे टाल दीजिए।किसी व्यक्ति के बारे में उसके निधन के बाद ही ऐसी बातंें लिखी जानी चाहिए जो आप मेरे बारे में लिखना चाहते हैं।अन्यथा, मुझे लेने के देने पड़ सकते हंै।
अधिक लिखने पर कुछ लोग मेरे बारे में ऐसी -ऐसी नकारात्मक बातों का आविष्कार  कर देंगे जिनका मुझे भी पता नहीं होगा।जीवन काल में समकालीनों में ईष्र्या-द्वेष-प्रतियोगिता अधिक रहती है।निधन के बाद भी रहती है,पर काफी कम।
निधन के बाद आप लिखेंगे तो कम से कम मेरे रिश्तेदार-मित्र-परिजन-बाल -बच्चे यह तो जान पाएंगे कि मैं किसी काम का आदमी तो था !
  अभी लिखेंगे तो कुछ लोग यह भी समझ सकते हैं कि ऐसे लेखन से मुझे कोई पद पाने में सुविधा होगी।हालांकि हकीकत यह है कि सिर्फ ईमानदारी का गुण पद पाने के लिए अब कोई अर्हता नहीं है। 
  



1999 में मैंने एक छोटी कार खरीदने के लिए पटना में एक बैंक से लोन लिया।
बैंक ने मेरी जमीन का कागज गिरवी रख लिया।
मेरे गारंटर ने मेरे लिए  एफ.डी.गिरवी रखी। 
  मैं हर महीने किस्त जमा कर ही रहा था कि एक दिन हमें वकील से नोटिस मिल गयी।आरोप था कि मैंने समय पर किस्त जमा नहीं की।
गारंटर को अधिक बुरा लगा।
मैंने बैंक मैनेजर को पत्र लिखा।कहा कि माफी मांगिए अन्यथा मैं आप पर केस करूंगा।उसने माफी मांगी।
 आज जब मैं देख रहा हूं कि लाखों करोड़ रुपए लोन लेकर बड़े- बड़े लोग डिफाॅल्टर हो रहे हैं और बैंक उनके नाम तक जाहिर करने के लिए तैयार नहीं हैं।
वास्तव में इस देश में दो तरह के ‘कानून’ हैं।

आज मेरे घर तीन बहनें लक्ष्मी,समृद्धि और शांति
आई थीं।वे मेरे फेसबुक फें्रड के पते पूछ रही थीं।
मैंने आप सबके पते उन्हें बता दिए। 
@7 नवंबर 2018@