जवाहर लाल नेहरू ने 1959 में लिखा था कि @इन्दिरा गांधी का@‘ इस वक्त कांग्रेस अध्यक्ष बनना मुफीद भी हो सकता है।’ ......कुछ नई हवा की जरूरत है।....यह न इन्दु के लिए मुनासिब या इनसाफ की बात होगी कि उसका नाम पेश हो।’
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प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू और पूर्व केंद्रीय मंत्री
महावीर त्यागी के बीच ऐतिहासिक पत्र व्यवहार
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प्रिय महावीर,
तुम्हारा 31 जनवरी का खत मुझे आज मिला।उसको मैंने गौर से पढ़ा।अपनी निसबत तो,जाहिर है,मेरे लिए मुश्किल है कोई माकूल राय रखना।
कोई भी अपनी निसबत ठीक राय नहीं दे सकता।जाहिर है कि यदि मुझमें खूबियां हैं तो कमजोरियां भी हैं,और शायद इस उम्र में उनसे बरी न हो सकूं।
हो सकता है कि मैं लोगों की बातों से धोखे मेंे पड़ जाता हूं और लोग खुली बात मुझसे नहीं करते।
लेकिन शायद तुम्हारा यह कहना सही न हो कि मेरे पास दरबारी लोग आते हैं या रहते हैं।
मेरे यहां कभी भी दरबार नहीं लगा।
और न मैं इस ढंग को पसंद करता हूं।
तुमने इंदिरा के बारे में लिखा है,उन पहलुओं पर मैंने काफी गौर किया है।मुझे तो ख्याल भ्ी नहीं था कि उसका नाम कांग्रेस की अध्यक्षता के लिए पेश होगा।नागपुर कांग्रेस के आखिरी दिन मैंने कुछ लोगों से सुना कि उसके नाम का चर्चा है।कुछ लोग दक्षिण के प्रदेशों से नाम पेश कर रहे हैं।उस रोज शाम को यह बात मेरे सामने पेश हुई।
मुझसे अलग नहीं,बल्कि एक कमेटी में कही गई जिसमें हमारे कुछ नेता अलग -अलग सूबों के मौजूद थे।
मैं शुरू में खामोश रहा और सुनता रहा।फिर मैंने अपनी राय दी,जिसमें मैंने सब पहलुओं को सामने रखा और यह भी कहा कि यह न इन्दु के लिए और न मेरे लिए मुनासिब या इन्साफ की बात होगी कि उसका नाम पेश हो।
इसके साथ मैंने यह भी कहा कि उसके चुने जाने से कुछ फायदे भी नजर आते हैं ,खास कर नाग पुर कांग्रेस के फैसलों के बाद जबकि कुछ नई हवा की जरूरत है।मैंने मुनासिब न समझा कि मैं इस मामले में कोई दखल दूं।
मैं जानता था कि इन्दिरा इससे परेशान होगी।
फिर कुछ लोग इंन्दिरा के पास गए।मैंने बाद में सुना कि उसने जोरों से इनकार किया।बहस हुई।उस पर काफी दबाव डाला गया।
तब उसने कहा कि अगर आप सब लोग इतना जोर डालते हैं
मुझ पर ,तो मेरे लिए मुश्किल हो जाता है इनकार करना।
हालांकि यह मेरे लिए बड़ी मुसीबत होगी।
लोग उठ आए।कोई एक आध घंटे के बाद फिर वह परेशान होकर उनके पास गई और कहा कि मेरी तबियत इसको कबूल नहीं करती।फिर मुखतलिफ तरफ से दबाव पड़े ,और आखिर में वह राजी हो गई।
मैंने मुनासिब न समझा दखल देना।
जो बातें तुमने लिखी हैं,वह जाहिर हैं।लेकिन मेरा यह भी ख्याल है कि बहुत तरह से उसका इस वक्त कांग्रेस अध्यक्ष बनना मुफीद भी हो सकता है ।
खतरे भी जाहिर हैं।जहां तक मुमकिन है मैंने इस सवाल को
कोशिश की सोचने की अपने रिश्ते वगैरा को भूलकर।
तुमने लिखा है कि मेरी वजह से संसदीय पार्टी दबी रहती है और दिल खोल कर बोल नहीं सकती।इसकी निसबत मैं क्या करूं ?
मैं चाहता हूं कि वह दिल खोल कर बोलें और मैं भी दिल खोल कर बोलूं।
हमारे सामने जो इस वक्त सवाल हैं,उन पर सफाई से बातें होनी चाहिए।और मैंने कोशिश की है कि हमारे साथी मेम्बरान अपनी राय दिया करें।तो क्या मुझे हक नहीं है कि मैं भी अपनी राय दूं उसी सफाई से ?
हमारे सामने मुश्किल सवाल हैं।लेकिन मेरी राय में हिन्दुस्तान का भविष्य अच्छा है।मैं उससे घबराता नहीं।
तुम्हारा,
1 फरवरी, 1959 जवाहर लाल नेहरू