ऐसे आ सकते हैं कांग्रेस के अच्छे दिन -- सुरेंद्र किशोर--
जीवन भर कांग्रेस के विरोधी रहे समाजवादी नेता मधु लिमये ने अपने आखिरी दिनों में कहा था कि ‘सुधरी हुई कांग्रेस
ही विविधताओं से भरे इस देश को बेहतर ढंग से चला सकती है।’
गैर कांग्रेसी दलों की खिचड़ी सरकारों के कामों को नजदीक से देखने के बाद लिमये इस नतीजे पर पहुंचे थे।
उनका था कि मध्यमार्गी पार्टी कांग्रेस के कार्यकत्र्ता देश भर में हैं। वह सभी समुदायों को भरसक अपने साथ बांध कर रख सकती है।
यह गुण न तो क्षेत्रीय दलों में है और न ही भाजपा में।’
यदि मधु लिमये का यह सपना पूरा नहीं हुआ तो इसके लिए और कोई नहीं बल्कि कांग्रेस ही अधिक जिम्मेवार है।
अब देश को चलाने की बात कौन कहे,कांग्रेस पार्टी में प्रतिपक्ष को चलाने की भी क्षमता नहीं बची।प्रतिपक्षी दल इससे दूर भाग रहे हैं।उधर इस बीच भाजपा ने राष्ट्रीय स्तर पर ‘सबका साथ सबका विकास’ करने की कोशिश की है।
देश और स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि भाजपा के मुकाबले स्वस्थ व मजबूत प्रतिपक्ष नहीं है।अपवादों को छोड़ दें तो अधिकतर क्षेत्रीय दल घोर जातिवाद,वंशवाद और पैसावाद के आरोपों से सने हैं।
कुछ अपवादों को छोड़ दें तो क्षेत्रीय दल भी कांग्रेस को अपने साथ लेने को तैयार नहीं हैं।ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि उन्हें कांग्रेस एक कमजोर पार्टी नजर आ रही है।उन्हें कांग्रेस मददगार के बदले बोझ लग रही है।
यहां तक कि जिन उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस कभी काफी ताकतवर थी,वहां भी क्षेत्रीय दलों के सामने वह निरीह बन चुकी है।
पर कांग्रेस की निरीहता के लिए आखिर कौन जिम्मेवार है ?
खुद कांग्रेस ही अधिक जिम्मेदार रही है।फिर से ताकतवर बनने के लिए उसे ही खुद को बदलना होगा।पर क्या बदलने की ताकत भी कांग्रेस में अब बची हुई है ?
कई बार अपनी ताकत न भी हो तो सत्ताधारी दल की विफलताओं का लाभ प्रतिपक्ष को मिल जाता है।पर,उस लाभ को बनाए रखने के लिए तो खुद ही प्रयास करना पड़ता है।
2014 में केंद्र में राजग के सत्ता में आने के लिए खुद राजग या नरेंद्र मोदी को 40 प्रतिशत ही श्रेय जाता है।बाकी 60 प्रतिशत लाभ तो उन्हें मन मोहन सरकार की विफलताओं के कारण मिला।
यहां तक कि हाल में मध्य प्रदेश,छत्तीस गढ़ और राजस्थान विधान सभा चुनावों में कांग्रेस को मिली सफलता के पीछे भी भाजपा सरकारों की विफलताएं ही अधिक थीं।
इस पृष्ठभूमि में मौजूदा लोक सभा चुनाव के बाद शायद कांग्रेस नेतृत्व को आत्म निरीक्षण करने का अवसर मिल सकता है ,यदि वह चाहे।देश में स्वस्थ लोकतंत्र के विकास के लिए उसे ऐसा करना ही चाहिए।
बेहतर तो यह होता कि एक खास परिवार के बदले कुछ समझदार, राष्ट्रहित चिंतक व ईमानदार कांग्रेसियों की वर्किंग कमेटी, पार्टी को निदेशित करती।
इस बीच कांग्रेस के लिए यह जान लेना जरूरी है कि 1984 के बाद से ही कांग्रेस लगातार निरीह क्यों होती चली गई।
हालांकि उसका बीजारोपण पहले ही हो चुका था।
यदि कांग्रेस ने सबका साथ लेकर सबके विकास की चिंता आजादी के बाद से ही की होती तो आज उसे यह दिन नहीं देखना पड़ता।
आज के अधिकतर जाति आधारित क्षेत्रीय दल इस बहाने खड़े हुए और ताकतवर बने क्योंकि कांग्रेस ने उनकी जातियों के साथ न्याय नहीं किया।
न्याय का सबसे बड़ा आधार आरक्षण हो सकता था।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-340 में सामाजिक न्याय का प्रावधान भी किया गया।
पर, कांग्रेस ने लगातार उसका विरोध किया।
1990 में जब वी.पी.सिंह सरकार ने मंडल आरक्षण लागू किया तो कांग्रेस ने कई बहाने बना कर उसका विरोध कर दिया।
यानी समर्थन नहीं किया।
राम मंदिर पर भी कांग्रेस की ढुलमुल नीति के चलते कांग्रेस का जन समर्थन काफी घट गया।
उसके बाद कभी उसे लोक सभा में बहुमत नहीं मिल सका।
उससे पहले की पृष्ठभूमि यह थी कि आजादी के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार में जब -जब कांग्रेस को विधान सभाओं में पूर्ण बहुमत मिला,उसने सिर्फ सवर्णों को ही मख्य मंत्री बनाया।जबकि, ये राज्य पिछड़ा बहुल हैं।
कांग्रेस के पास पिछड़ों में शालीन नेता उपलब्ध भी थे जिन्हें वह आगे बढ़ा सकती थी।
पर जब इन राज्यों में राजनीति की बागडोर गैर कांग्रेसी ताकतों के हाथों में चली गई तो उसने शालीनता-अशालीनता का ध्यान रखे बिना पिछड़ों के बीच से ऐसे नेताओं को उभारा जो ‘पिछड़ों के साथ हुए अन्याय का सूद सहित बदला’ ले सकें।
हालांकि उससे राजनीति बदतर हुई।पर इसे रोकने के लिए कोई कर भी क्या सकता था ?
अब स्थिति यह है कि कांग्रेस के पास उत्तर प्रदेश में 6 दशमलव 2 प्रतिशत और बिहार में अपना 6 दशमलव 7 प्रतिशत वोट बच गए हैं।
इन सबके बावजूद मन मोहन सरकार ने दस साल तक
कुछ ऐसे-ऐसे विवादास्पद काम भी किए जिनसे भाजपा व खासकर नरेंद्र मोदी को राजनीतिक लाभ मिला।हालांकि उनके कुछ काम अच्छे भी थे।
2014 के लोक सभा चुनाव में हार के बाद गठित ए.के. एंटोनी कमेटी ने अपनी रपट में महत्वपूर्ण बात कही थी।उन्होंने कहा था कि ‘कांग्रेस की धर्म निरपेक्षता पर से लोगों का विश्वास उठ रहा है और
वे मानते हैं कि कांग्रेस अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण में लगी हुई है।’
एंटोनी की रपट के अलावा कांग्रेस के कमजोर होने में उन घोटालों -महा घोटालों की खबरों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिनको लेकर मन मोहन सरकार पर गंभीर आरोप लगाए जाते रहे।
इन दो तत्वांे के संबंध में अपनी राह बदल कर कांग्रेस भाजपा को अब भी कमजोर कर सकती है।पर फिलहाल इसके संकेत नहीं मिल रहे हैं।
2019 के लोक सभा चुनाव के बाद शायद कांग्रेस इन मुद्दों पर वह एक बार चिंतन करे।
हालांकि हाल के भारत -पाक द्वंद्व और बालकोट प्रकरण के बाद कई प्रमुख कांग्रेसी नेताओं के जिस तरह के बयान आए हैं,उनसे तो यही लगता है कि कांग्रेेस अपनी पिछली गलतियों से कोई सबक लेने को तैयार नहीं है।
उत्तर प्रदेश में तो सपा-बसपा ने कांग्रेस को पूरी तरह अलग -थलग कर ही दिया,पर बिहार में राजद ने कुछ सीटें जरूर कांग्रेस के लिए छोड़ी हंै।शायद उस उपकार का बदला राजद चुका रहा है जो कांग्रेस ने सन 1999 और सन 2000 में ‘जंगल राज’ का समर्थन करके राजद पर किया था।
कांग्रेस ने 1999 में राष्ट्रपति शासन का राज्य सभा में विरोध करके भंग राबड़ी सरकार को वापस करवा दिया था।
साथ ही सन 2000 के विधान सभा चुनाव में जब राजद को बहुमत नहीं मिला तो कांग्रेस ने राजद से मिलकर सरकार बना ली।
पर इसी के साथ कांग्रेस की एक ऐसी पार्टी की छवि बन गयी जो राजद की छवि से बहुत अलग नहीं थी।
उसका भारी नुकसान कांग्रेस को हुआ।
कांग्रेस यह कहती रही कि ‘साम्प्रदायिक तत्वों को सत्ता में आने से रोकने के लिए’ हम लालू- राबड़ी सरकार को बाहर-भीतर से समर्थन देते हैं।
पर, इस विधि से कांग्रेस न तो भाजपा को सत्ता में आने से रोक सकी और न ही अपनी खुद की राजनीतिक ताकत ही बनाए रख सकी।
इन सबके बावजूद अब से भी यदि कांग्रेस कव राष्ट्रीय नेतृत्व घोटालों -महा घोटालों के प्रति खुद में नफरत पैदा करे और स्वस्थ व संतुलित धर्म निरपेक्षता की राह पर चले तो एक बार फिर कांग्रेस के अच्छे दिन आ ही सकते हैं।
@26 मार्च 2019 के ‘प्रभात खबर’ में प्रकाशित@
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