सोमवार, 11 मार्च 2019

-मतदान का प्रतिशत बढ़ाने से बढ़ेगी लोकतंत्र की सार्थकता-सुरेंद्र किशोर-


सन 2014 के लोक सभा चुनाव में बिहार में करीब 44 प्रतिशत मतदातागण बूथों पर नहीं पहुंचे थे।यानी मतदान का प्रतिशत 56 ही रहा था।
ऐसा नहीं कि उन्हें वहां पहुंचने से रोक दिया गया था।
बल्कि वे अपनी मर्जी से नहीं गए।
क्या इस बार मतदान का प्रतिशत बढ़ेगा ?
उम्मीद तो की ही जानी चाहिए।क्योंकि बिहार राजनीतिक रूप से अत्यंत जागरूक प्रदेश है।
इतने ही जागरूक प्रदेश पश्चिम बंगाल में पिछले लोक सभा चुनाव में 82 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट डाले थे।अच्छे काम के लिए किसी से स्पद्र्धा  करने में कोई हर्ज नहीं।
  अन्य राज्यों के साथ- साथ बिहार में भी अगले चुनाव नतीजे को लेकर अभी से अटकलें लगाई जा रही हैं।
इस चुनाव में नरेंद्र मोदी केंद्र में हैं।कोई मोदी जी को जितवाना चाहता है तो कई अन्य लोग उन्हें सत्ता से हटाना चाहते हंै।ठीक ही है।यही तो लोकतंत्र है।
बिहारी समाज भी इस सवाल पर दो हिस्सों में बंट गया है।
यदि आप हराना चाहते हैं तौभी आपको मतदान केंद्र पर जाना ही चाहिए।जितवाने की इच्छा रखने वालों की तो प्रतिष्ठा का सवाल है।
  इसलिए ऐसा हो कि जो 44 प्रतिशत लोग पिछली बार मतदान केंद्रों पर नहीं पहुंच सके थे ,वे इस बार जरूर पहुंचे।
लोकतंत्र के प्रेमियों की इसमें बड़ी जिम्मेवारी बनती है।
--निपुण चालकों को ही मिले ड्राइविंग लाइसेंस--
मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने गत साल औरंगाबाद में ड्राइविंग ट्रेनिंग एंड ट्राफिक रिसर्च संस्थान का समारम्भ किया।
सड़क सुरक्षा की दिशा में यह  सराहनीय पहल है।
  पर बड़ी समस्या यह है कि जिन्हें ड्रायविंग लाइसेंस दिए जा रहे हैं ,उनमें अधिकतर निपुण चालक नहीं हैं।यह समस्या तो पूरे देश में है,पर बिहार में कुछ अधिक ही है।यहां भी  गैर जिम्मेदार अभिभावक अपने नाबालिग  संतान को ,जिनके पास ड्राइविंग लाइसेंस भी नहीं होता ,अपनी गाड़ी दे देते हैं।वे किशोर वय  कई बार में भीषण दुर्घटनाएं कर देते हैं।
 हाल में दिल्ली में चार आॅटोमेटेड टेस्ट ड्राइविंग सेंटर खोले गए हैं।
उनमें 20 तरह की ड्राइविंग स्किल की जांच होगी।
जांच की वीडियो रिकाॅर्डिंग करायी जाएगी।
मुझे मालूम नहीं कि बिहार में ऐसी व्यवस्था है या नहीं।क्या राज्य सरकार इस दिशा में सोच रही है ?
बिहार में  नए लाइसेंस देने से पहले ऐसी जांच होनी चाहिए। साथ -साथ पुराने लाइसेंसधारियों की निपुणता की भी जांच होनी चाहिए।
 चालकों को  यह भी शिक्षा दी जाए कि वे सड़कों पर अनावश्यक हाॅर्न न बजाएं।
  यदि कोई अभिभावक अपने लाइसेंस रहित परिजन को सड़क पर चलाने के लिए अपनी गाड़ी दे दे तो उस अभिभावक का ड्राइविंग लाइसेंस रद होना चाहिए।पता नहीं ,पहले से ऐसा कोई नियम है या नहीं !  
    --ये ‘गोदी मीडिया’ क्या है !--
पत्रकारिता की एक बुनियादी नैतिकता है।
यदि मीडिया किसी नेता पर आरोप लगाती है तो उस आरोप के संबंध में उस नेता का भी पक्ष आरोपों के साथ -साथ ही दे दिया जाना चाहिए।
 यदि एकतरफा उस आरोप के प्रचारित होने से प्रतिद्वंद्वी नेता को राजनीतिक लाभ मिलता है तो ऐसा प्रचार करने वाली  मीडिया को ‘गोदी मीडिया’ कहा जा सकता है।
 यह बात सभी पक्षों की मीडिया पर लागू होती है।
ऐसी पक्षधरता चाहे मोदी की, की जाए या मोदी विरोधियों की,
 दोनों पक्षधर मीडिया को गोदी मीडिया ही कहना न्यायोचित होगा।
हां, गोदी मीडिया के इस ताजा दौर में इस देश में मीडिया का एक हिस्सा ऐसा भी है जिसका अपना कोई एजेंडा नहीं।
  कुछ पुराने लोग यह सवाल करते हैं कि इस देश में  ‘गोदी मीडिया’ कब नहीं थी ?
  वैसे भी चुनावों का इतिहास बताता है कि मीडिया का चुनाव नतीजे पर बहुत ही कम असर पड़ता रहा  है।
 यदि असर पड़ता होता तो 1995 के बिहार विधान सभा चुनाव में लालू प्रसाद के दल को बहुमत नहीं मिलता।
इसी तरह इंदिरा गांधी को 1971 के लोक सभा चुनाव में जीत हासिल नहीं होती।
--घोटालों से जुड़ी खबरों के स्त्रोत-- 
राफेल खरीद से संबंधित फाइल की चोरी हो गई।उसके आधार पर एक अखबार ने खबर छापी।
अखबार कह रहा है कि हम खबर के स्त्रोत के बारे में किसी को कुछ भी नहीं बताएंगे।
 ठीक ही है।
महत्वपूर्ण सवाल यह नहीं है कि चोरी की फाइल के आधार पर किसी ने खबर क्यों छापी।सवाल यह है कि उस फाइल को पढ़ने पर कोई आरोप बनता है या नहीं।यह देखना अब सुप्रीम कोर्ट के जिम्मे है।
  खैर इस बहाने इस तरह की दो अन्य कहानियां याद आ गईं।
बोफर्स घोटाले को लेकर तत्कालीन केंद्र सरकार के खिलाफ जारी अभियान में शामिल एक व्यक्ति को उससे संबंधित सरकारी फाइल की जेरोक्स  काॅपी मिल गई।
 जब सवाल पूछा गया तो उस व्यक्ति ने कहा कि न्यूजपेपर्स हाॅकर  सुबह -सुबह अखबारों के साथ उस कागज को भी मेरे दरवाजे पर फेंक गया।
  अस्सी के दशक में पटना हाईकोर्ट में पटना अरबन कोआपरेटिव बैंक घोटाले से संबंधित मामले की सुनवाई हो रही थी।
लोकहित याचिकाकत्र्ता शिवनंदन पासवान ने एक सरकारी फाइल की जेराॅक्स  काॅपी अदालत में पेश कर दी थी।
बचाव प़क्ष के वकील ने सवाल उठाया,यह सरकारी कागज आपको कहां से मिला ?
  याचिकाकत्र्ता के वकील ने कहा कि एक कौआ अपनी चोंच में एक कागज लटकाए याचिकाकत्र्ता के  मकान की छत के ऊपर उड़ रहा था।संयोगवश वह कागज  छत पर गिर गया। 
       --भूली बिसरी याद--
29 फरवरी, 2004 के अखबार में एक खबर छपी थी जिसका 
शीर्षक सनसनीखेज था--
‘परिवार का पेट भरने के लिए विधायकी छोड़ी।’
 है न सनसनीखेज ! एक नजर में इस खबर पर संभवतः कुछ लोगों को विश्वास ही न हो।
 पूरे परिवार के लिए सात पुश्त का इंतजाम करने के लिए अनेक लोग विधायक या सासंद बनना चाहते हैं, उस देश में ऐसी अनहोनी बात !
यह तो विचित्र किन्तु सत्य हैं !
कहानी पश्चिम बंगाल की है।
सी.पी.एम.की विधायक ज्योत्स्ना सिंह ने जब विधायिकी छोड़ी तो उन्होंने यही कारण बताया कि सरकारी नौकरी करने के लिए मैंने ऐसा किया।क्योंकि विधायक के रूप में मुझे इतने पैसे नहीं मिल सकते जिससे  परिवार का पेट भर सकूं।
कम्युनिस्ट दलों में आम तौर पर लोग ईमानदार होते हैं।पर यह तो ईमानदारी की पराकाष्ठा है।
26 फरवरी 2004 को पश्चिम बंगाल विधान सभा की सदस्यता से इस्तीफा देने के बाद कहा कि मैं अपने बेहद गरीब परिचवार के पेट पालने के लिए नौकरी करने के लिए  विधान सभा की सदस्यता छोड़ रही हूं।
वह बर्दवान जिले के खांडाघोष निर्वाचन क्षेत्र से चुनी गई थीं।
उनके परिवार में दोनों भाई बेरोजगार हैं।
 ज्योत्स्ना ने राज्य सरकार में विकास परियोजना सर्वेक्षक के पद पर ज्वाइन किया।
 जिस देश बड़ी-बड़ी नौकरियां छोड़ कर विधायक और सांसद का चुनाव लड़ने की होड़ लगी रहती है।वहां कोई मामूली नौकरी के लिए विधायिकी छोड़ दे,यह अचंभित करने वाली सुखद खबर है।
 पर, इसका श्रेय उस वाम सरकार को भी मिलना चाहिए जिसने जायज -नाजायज तरीके से अधिक से अधिक धन बटोरने की छूट-सुविधा तब वहां के विधायकों नहीं दी थी।
खुद पूर्व मुख्य मंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य कोलकाता के पाम एवेन्यू मंे दो बेड रूम के फ्लैट में रहते हैं।वे करीब एक दशक तक मुख्य मंत्री रहे।
       --और अंत में-
पंचायतों के चुनाव दलगत आधार पर कराए जाने की सलाह सही है।
दरअसल अभी पंचायतों के लिए निर्वाचित प्रतिनिधियों पर कोई अंकुश नहीं है।उन्हें अच्छे काम करने की भी पूरी छूट है जितनी छूट विवादास्पद काम करने की।
यदि वे किसी दल से जुड़े होंगे तो ,उस दल का कुछ अंकुश तो उन पर रहेगा।
उन्हें दल के कारण भी वोट मिलेगा तो साथ ही डर इस बात का भी रहेगा कि अगली बार टिकट कट भी सकता है।
@कानोंकान-प्रभात खबर-बिहार-8 मार्च 2019@

  
  

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