गुरुवार, 28 मार्च 2019

दुर्दम्य व दुर्धर्ष रमणिका का गुप्त निधन 
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अपनी शत्र्तों पर जीने वाली बहादुर महिला रमणिका गुप्त नहीं रहीं।
उनका जन्म 1930 में पंजाब में हुआ था।
वह बिहार विधान परिषद और विधान सभा की बारी -बारी से सदस्य रहीं।
पर उनका यह पूरा परिचय नहीं है।
वह इसके अलावा भी बहुत कुछ थीं।पूरे जीवन लीक से हटकर चलीं।
वे लेखन और मजदूर आंदोलन के क्षेत्र में भी रहीं। 
अभी उनके ही लिखे कुछ वाक्य यहां प्रस्तुत हैं,
‘औरत यदि खुदसर हो,पंजाबी भाषा में कहूं ‘आपहुदरी’-तो उसकी मुखालिफत लाजिमी है और अगर राजनीति में हो और वह लता बनकर नहीं बल्कि पेड़ या खूंटा बनकर तो उसे हिला देने की तरकीबें, झकझोर देने के ढंग ,उखाड़ फेंकने के प्रयास इन्तहा पर पहुंच जाते हैं।
अगर वह ट्रेड यूनियन में हो, वह भी सफेदपोशों की यूनियन में नहीं बल्कि स्वयं वर्गहीन होकर खांटी खटने वाली ब्लू कालर कोयला मजदूरों के बीच रह कर उन्हें संगठित कर आंदोलित करने का दम रखती हो, तब तो युद्ध और प्रेम में हर चीज जायज है का फार्मूला लागू करने में सहयोगी,सहभागी -यहां तक कि मित्र और प्रशंसक भी देर नहीं लगाते-दुश्मनों का तो कहना ही क्या ! .....तब ऐसी औरत के खिलाफ बहुत सी कनफुसियां, अफवाहें ,चटपटी प्रणय कथाएं ,झूठे -सच्चे किस्से हवा में तैरने लगते है।’
  ये वाक्य उनकी आत्म कथा के पहले खंड ‘हादसे’ से लिए गए हैं।इसके अलावा भी उन्होंने बहुत कुछ लिखा है।उन्होंने बिहार के कई बड़े नेताओं की ‘करतूतें’ खोल कर रख दी हैं।
राजेंद्र यादव ने रमणिका की आत्म कथा को ‘सपनों ,संघर्ष और साहस की कहानी बताते हुए लिखा है कि यह कहानी बीसवीं सदी के भारत का वह इतिहास है जिसे मुख्य धारा के इतिहासकारों ने बहुत महत्व नहीं दिया और जिसे खेतों -खलिहानों और खदानों में रमणिका ने अपने यौवन और प्रौढ़ ़उम्र के कागजों पर लिखा है।‘

   

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