शुक्रवार, 29 मार्च 2019

देश में एक साथ लोक सभा व विधान सभा चुनाव की जरूरत-सुरेंद्र किशोर


जब-जब चुनाव आता है, कई लोगों को एक साथ चुनाव की जरूरत महसूस होने लगती है।
दरअसल चुनाव के दौरान विकास व कल्याण के  कामकाज बाधित हो जाते हैं।
अधिक चुनाव यानी कामकाज में अधिक बाधा और
 अधिक खर्च--सरकारी और गैर सरकारी।
 अधिक खर्च यानी काले धन का अधिक इस्तेमाल।
2018 में कई राज्य विधान सभाओं के  चुनाव हुए।
उससे पहले 2017 में 7 और 2016 में 5 राज्यों में चुनाव हुए थे।
बिहार और दिल्ली में अगले साल चुनाव होंगे।
इस साल लोक सभा का चुनाव हो रहा है।
  1967 तक लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव साथ- साथ होते थे।
कई बार यह मांग उठी कि एक बार फिर वैसा ही होना चाहिए।पर इस काम में अधिकतर राजनीतिक दलों व नेताओं के स्वार्थ बाधक रहे हैं। 
-महा गठबंधन की महा फिसलन-
भाजपा को हराने के ‘बड़े उद्देश्य’ के साथ महा गठबंधन की नींव पड़ी थी।
लगता था कि बिहार में राजग के सामने यह बड़ी चुनौती बन कर खड़ा होगा।
पर इन पंक्तियों के लिखते समय तक महा गठबंधन के कुछ नेताओं ने अपने समर्थकों को निराश ही किया है।
तालमेल में कमी का दोष कोई राजद को भले दे, किन्तु 
अनेक राजनीतिक पे्रक्षकों को यह लग रहा है कि कांग्रेस में त्याग की अधिक  कमी है।दोस्ती का मूल आधार त्याग होता है।चाहे वह दो व्यक्तियों की दोस्ती हो या दो संगठनों की। 
 कांग्रेस की मूल ताकत के अनुपात में राजद ने उसके लिए 
वाजिब संख्या में सीटें छोड़ी हैं।
पर लगता है कि कांग्रेस 2015 के विधान सभा चुनाव नतीजे को भूल नहीं पा रही है।
उसे तब 243 में से 27 सीटें मिल गयी थीं।पर उसे यह सफलता राजद-जदयू की उदारता के कारण मिली थी न कि उसकी अपनी राजनीतिक ताकत के कारण।
  कांग्रेस की असली ताकत के कुछ नमूने इस प्रकार हैं।
उसे बिहार विधान सभा के 2005 के चुनाव में 9 सीटें मिलीं।सन 2010 के विधान सभा चुनाव में 4 सीटें मिलीं।
2014 के लोक सभा चुनाव में बिहार में कांग्रेस को 40 में से मात्र दो सीटें ही मिल सकीं।
  --राष्ट्रीय स्तर पर मोदी विरोध-
2014 के लोक सभा चुनाव के बाद से ही गैर राजग दलों के नेतागण यह कहते रहे कि नरेंद्र मोदी सरकार से देश को मुक्त कराना अत्यंत बहुत आवश्यक है।
उसके लिए वे तरह -तरह के नारे गढ़ते रहे और उपाय भी करते रहे।
लोकतंत्र में यह कोई अजूबी बात नहीं है।
पर, इस बार प्रतिपक्ष में सरकार विरोध की जितनी तीव्रता  रही है,उतनी पहले कभी नहीं।
 पर जब मोदी को हटाने  का अवसर आया तो प्रतिपक्षी दल  देश भर में ‘एक के खिलाफ एक’ को चुनाव में खड़ा करने में विफल रहे।
 कारण है गैर राजग खेमे में प्रधान मंत्री पद के अनेक उम्मीदवारों की उपस्थिति।
 वे अपने- अपने दल के अधिक से अधिक सांसद चाहते हैं ताकि प्रधान मंत्री बनने में  उन्हें सुविधा हो।
वे  यह बात भूल गए कि  मोदी देश के लिए  खतरा है।उन्हें सिर्फ अपनी ‘भावी कुर्सी’ याद रही। 
     --टी.एन.शेषण की धमक !--
1994 में वैशाली लोक सभा का उप चुनाव हो रहा था।
चुनाव आयोग ने लाइसेंसी हथियार को जब्त करने का निदेश दिया।
  चुनाव आयुक्त टी.एन.शेषण के नाम की तब ऐसी धमक थी कि वैशाली के निर्वाची अधिकारी ने भी अपनी लाइसेंसी बन्दूक जमा करा दी।ऐसा संभवतः पहली बार हुआ था।
  तत्कालीन मुख्य मंत्री लालू प्रसाद भी चुनाव सभा के समय का पूरा  ध्यान रखते थे।वे अपने लोगों से कहते थे कि आठ बजे से पहले सभा खत्म हो जानी चाहिए।जल्दी जाना है ।नहीं तो टी.एन.शेषण साहब बैठे हैं। 
   -और अंत में-
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एस.कृष्णमूत्र्ति ने हाल में क्षुब्ध 
होकर कहा  कि बेहतर हो कि आदर्श चुनाव आचार संहिता को समाप्त ही कर दिया जाए।क्योंकि कोई भी दल इसका पालन नहीं कर रहा है।
@29 मार्च, 2019 को प्रभात खबर-बिहार-में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से@ 

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