‘आज सांसद व विधायक बनने लिए ही लोग किसी दल में शामिल हो जाते है।’
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दैनिक हिन्दुस्तान@19 मार्च 2019@ से बातचीत में बिहार के तीन बार मुख्य मंत्री रहे पूर्व केंदीय मंत्री डा.जगन्नाथ मिश्र ने सार्वजनिक रूप से यह स्वीकारा है कि ‘आज प्रतिबद्धता नहीं,पारिश्रमिक पर मिलते हैं कार्यकत्र्ता।’
खुद डा.मिश्र ने लंबे समय तक बिहार की राजनीति व सरकार को अपनी मुट्ठी में रखा था।
पर,उन्होंने यह नहीं बताया कि ऐसी स्थिति आने से रोकने के लिए खुद उन्होंने क्या प्रयास किया ? या फिर इस स्थिति के लिए वे खुद और उनका परिवार कितना जिम्मेवार रहा है ।
जीवन की संध्या बेला में उन्हें अब पूरी बात बोल ही देनी चाहिए।
यदि बोलेंगे तो आज की पीढ़ी उनका उपकार मानेगी।साथ ही, आज के नेता सावधान होकर सही रास्ते पर चलेंगे।
बिहार के ही एक अन्य नेता ,जो इन दिनों कानूनी परेशानी में हैं,व्यक्तिगत बातचीत में इसी तरह की अधूरी बात बोलने लगे हैं।वे इन दिनों उन पत्रकारों की भूरी- भूरी प्रशंसा कर रहे हैं जिन्हें वे कभी चुन-चुन कर गालियां दिया करते थे।
कतिपय संपादकों को उन्होंने नौकरी से निकलवाया भी था।
पर, अब उसी की तारीफ करने का क्या मतलब है ?
शायद उन्हें अब यह लग रहा होगा कि यदि उन पत्रकारों के लेखन पर पहले ध्यान दिया होता और खुद में सुधार लाया होता तो उनकी आज यह दुर्गत नहीं होती।
खैर, ऐसे नेताओं का इस राज्य व यहां की राजनीति पर बड़ा उपकार होगा ,यदि वे पूरी बात लोगों को बताएंगे कि किन -किन गलतियों के कारण राज्य की और खुद उनकी ऐसी दुर्दशा हुई।ताकि आगे के नेतागण खास कर सत्ताधारी नेतागण उससे सबक ले सकें।
खैर, यह तो उन पर है कि वे बताते हैं या नहीं।लोगबाग तो जानते ही हैं।पर अब तक जितना बताया,उसके लिए उन्हें धन्यवाद ! शुक्रिया !
पर जो बातें उन लोगों ने नहीं बताई है ,उसे संक्षेप में बताने की मैं कोशिश कर रहा हूं।
आज मुफ्त काम करने के लिए राजनीतिक कार्यकत्र्ता इसलिए नहीं मिल रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उस काम से समाज का भला कम और नेताओं का व्यक्तिगत और पारिवारिक भला ही अधिक होने वाला है।
पहले कार्यकत्र्ता मिल जाते थे ।क्योंकि हर दल में कुछ ऐसे शीर्ष नेता होते थे जिनके निजी जीवन भी प्रेरणादायक थे।वे अपने लिए, अपने परिवार और अपनी जाति के लिए नहीं बल्कि पूरे समाज के लिए काम करते थे।
हालांकि थोड़े से संगठनों में कार्यकत्र्ता अब भी मिल ही जाते
हैं।
पर,आज आम राजनीति का क्या हाल है ?वही हाल है जो ‘डाक्टर साहब’ ने बताया।
जातीय-साम्प्रदायिक वोट बैंक पर आधारित अनेक राजनीतिक दल व्यापारियों के कारखाने की तरह चलाए जा रहे हैं।जिस तरह व्यापारी जब बूढ़ा होता है तो अपना कारखाना अपनी संतान को सौंप देता है,उसी तरह इस देश-प्रदेश के कई राजनीतिक दल एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपे जा रहे हैं।
यहां तक कि सांसदों और विधायकों की सीटें भी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को स्थानांतरित हो रही हंै।इस बीच राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं के लिए जगह है कहां ?
सांसद- विधायक फंड के ठेकेदार से लेकर दैनिक मजदूर तक कार्यकत्र्ता बने ही हुए हैं।फिर भला जरूरत क्या है असली राजनीत कार्यकत्र्ताओं की ?
तमाम बुराइयों के बावजूद सांसद-विधायक फंड इसीलिए तो समाप्त नहीं किए जा रहे हैं।
दूसरी ओर अधिकतर सांसदों,विधायकों तथा सत्तासीनों की निजी संपत्ति उसी तरह दिन दूनी रात चैगुनी बढ़ रही है जिस तरह व्यापारियों की बढ़ती जाती है।
अपवादों की बात और है।पर अपवादों से न तो राजनीति को चलना है और न ही देश को।
अल्ला जाने क्या होगा आगे ! !
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