शनिवार, 2 मार्च 2019


-दलीय पदाधिकारी बनाने से पहले पात्रता की जांच करा लें नेतागण-
  भाजपा ने अपने अल्पसंख्यक मोर्चा के प्रादेशिक उपाध्यक्ष असगर मस्तान को अंततः पार्टी से निकाल दिया।
पर सवाल है कि ऐसे विवादास्पद व्यक्तियों को राजनीतिक दल पदाधिकारी बनाते ही क्यों हैं ?
अनेक विवादास्पद लोग अपने काले कारनामों को जारी रखने के लिए किसी न किसी दल का कवच पहन लेते हैं।
ऐसे लोगों को ‘सम्मानित’ करने के मामले में भाजपा अकेली पार्टी नहीं है।
सदस्यों की संख्या बढ़ाने के लिए किसी को भी पार्टी का सदस्य बना दो और दलीय पदाधिकारी बनाने से पहले उसकी पात्रता का कोई ध्यान न रखो ,अधिकतर दलों का यही चलन हो गया है।
कई मामलों में जब माफिया,बलात्कारी  और हत्यारों को लोक सभा -विधान सभा का उम्मीदवार बना दिया जाता हो तो दलीय पदाधिकारी के चरित्र की चिंता भला कौन करता है !
हां ,यह और बात है कि इससे राजनीति के प्रति आम लोगों की धारण कुछ और खराब होती चली जाती है।भले वे मजबूरी में इन्हीं में से किसी न किसी दल  को वोट दे दें।
कई बार  आम लोगों के सामने विकल्प सीमित हो जाते हैं।
 सदस्य व पदाधिकारी बनाने के मामले में अन्य दलों को कम्युनिस्ट पार्टियों से सीखना चाहिए।उनके यहां ऐसा करने की गुंजाइश बहुत कम है।अपवादों की बात और है। 
  याद रहे कि भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा के प्रादेशिक उपाध्यक्ष तांत्रिक असगर मस्तान के यहां से पिछले दिन भारी मात्रा में आपत्तिजनक सामग्री मिली।
हथियारों में 40 तलवारें भी थीं।
इतनी संख्या में तलवारों की भला क्या जरूरत थी ?
असगर तो नेपाल भाग गया,पर उसके यहां बरामद भारी धन राशि जब्त कर ली गई।
 बुधवार को खबर आई कि एक करोड़ 50 लाख रुपए बरामद किए गए।पर आज की खबर है कि 67 लाख रुपए पाए गए।
पता नहीं, सच्चाई क्या है !
पर सवाल दूसरा है कि किसी को दलीय पदाधिकारी बनाने से पहले राजनीतिक दल उसके बारे में थोड़ी जांच- पड़ताल क्यों नहीं कर लेते ?ऐसा करना पार्टी की प्रतिष्ठा के साथ -साथ स्वस्थ लोक़तंत्र के लिए भी जरूरी है।
 --अगली लोक सभा में कितने बाहुबली-
   सन 2004 के लोक सभा चुनाव में 125 ऐसे उम्मीदवारों की विजय हुई थी जिनके खिलाफ तरह -तरह के मुकदमे चल रहे थे।
संभव है कि इन मुकदमों में से कुछ मुकदमे उनके राजनीतिक आंदोलनों के कारण हुए हों।पर इनमें से अधिकतर सांसदों के
खिलाफ गंभीर प्रकृति के अपराधों से संबंधित आरोप थे।
  2009 के लोक सभा चुनाव में ऐसे सांसदों की संख्या बढ़कर 157 हो गई।सन 1996 में यह संख्या सिर्फ 40 थी।
2014 के लोक सभा चुनाव में यह संख्या और भी बढ़ गई।
निवत्र्तमान लोक सभा के 180 सदस्यों के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं।
 अगला चुनाव इसी साल होना है।देखना है कि यह संख्या इस बार बढ़ती है या घटती है।
यह तो राजनीतिक दलों पर निर्भर है कि वे ऐसे लोगों की संख्या संसद में बढ़ाना चाहते हैं या घटाना चाहते हैं।
--कुछ दिलचस्प आंकड़ें-
निवत्र्तमान लोक सभा के 26 सदस्य ऐसे हैं जो सात या अधिक बार चुने गए ।
इनमें से 3 सदस्य नौ बार चुने गए।उनमें कमल नाथ भी शामिल हैं जो अब मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री हैं।
ऐसे दो अन्य सदस्य हैं बासुदेव आचार्य और एम.एच.गवित। 
9 सदस्य आठ बार चुने गए।
14 सदस्य 7 बार चुने जा चुके हैं।
अभी यह आंकड़ा उपलब्ध नहीं है कि इनमें से कितने सदस्य ऐसे हैं जो कभी चुनाव नहीं हारे।
हां, दिवंगत जगजीवन राम वैसे सांसदों में शामिल थे जो कभी नहीं हारे।
पता नहीं, इनमें से कितने नेता अगली बार चुनाव लड़ेंगे और कितने जीतेंगे।
--भूली बिसरी याद--
पाकिस्तान के साथ तनावपूर्ण माहौल पर कल कांग्रेस सहित 21 प्रतिपक्षी दलों ने कहा कि ‘इसमें राजनीतिक लक्ष्यों की पूत्र्ति का कोई स्थान नहीं हो सकता है।सरकार सैनिक शहादतों का राजनीतिकरण न करे।’
पर, सवाल है कि खुद कांग्रेस ने 1971-72 में क्या किया था ?
उन दिनांे तो लोगों ने देखा कि किस तरह कांग्रेस ने सैनिकों की  शहादत को वोट में बदला था।
यहां तक कि उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष  के विरोध के बावजूद वहां भी विधान सभा का समय से पहले चुनाव करवा दिया गया था।
ताकि, राष्ट्रभक्ति की भावना का चुनावी लाभ जल्द से जल्द उठाया जा सके।समय बीत न जाए और भावना कमजोर न हो जाए !
 वैसे भी युद्ध में किसी दल की सरकार जीतती है तो उसका चुनावी लाभ तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी को मिलता ही है।
द्वितीय विश्व युद्ध में विजय के बाद विंस्टन चर्चिल की पार्टी जरूर इसका अपवाद साबित हुई थी।
यदि इंदिरा गांधी ने बंगला देश युद्ध मंे विजय का 1972 के विधान सभाओं के चुनाव में जान बूझकर योजनाबद्ध ढंग से इस्तेमाल नहीं भी किया होता तौभी उसका लाभ उन्हें मिलता।
  क्योंकि तब यह आम धारणा थी कि उन्होंने  उचित अवसर पर देश हित में समुचित साहस का परिचय दिया था।
  पर,युद्ध में विजय का चुनावी लाभ सार्वजनिक रूप से उठाने की कोशिश का लोभ उन्होंने  संवरण नहीं किया था।
अभी जो भारत-पाकिस्तान के बीच द्वंद्व चल रहा है,उसका नतीजा यदि अंततः भारत के पक्ष में सकारात्मक हुआ तो उसका चुनावी लाभ भी नरेंद्र मोदी को मिलेगा ही,चाहे मोदी  उसका लाभ उठाने की कोशिश करेंं या नहीं।
पर कांग्रेस चाहती है कि सारा श्रेय भारतीय सेना को मिले और नरेद्र मोदी को उसका कोई चुनावी लाभ न मिले।
  इस पृष्ठभूमि में 1972 की घटना को याद कर लेना मौजूं होगा।
1971 में पूर्वी पाकिस्तान को लेकर भारत-पाक युद्ध हुआ था।
पाक सेना को 16 दिसंबर, 1971 को सरेंडर करना पड़ा।
उस पर देश-विदेश में इंदिरा सरकार की काफी वाहवाही हुई।
अटल बिहारी वाजपेयी ने सार्वजनिक रूप से इंदिरा गांधी को बधाई दी।
अटल जैसी उदारता आज के प्रतिपक्ष में नहीं है।
1972 के प्रारंभ में देश के कई राज्यों में एक साथ विधान सभाओं के चुनाव हुए थे।उस चुनाव से ठीक पहले प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने मतदाताओं के नाम अलग से एक चिट्ठी प्रसारित की थी।वह कई भाषाओं में अनुदित की गयी।
  उस चिट्ठी में लिखा गया था कि ‘ देशवासियों की एकता और उच्च आदर्र्शों के प्रति निष्ठा ने हमें युद्ध में जिताया।अब उसी लगन से हमें गरीबी हटानी है।इसके लिए हमें विभिन्न प्रदेशों में ऐसी स्थायी सरकारों की जरूरत है जिनकी साझेदारी केंद्रीय सरकार के साथ हो सके।’
 साप्ताहिक पत्रिका ‘दिनमान’@5 मार्च 1972 @  ने इस संबंध में लिखा था कि ‘ जहां तक कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र का संबंध है,उसने यह बात छिपाने की कोशिश  नहीं की है कि भारत -पाक युद्ध में भारत की विजय श्रीमती इंदिरा गांधी के सफल नेतृत्व का प्रतीक है और श्रीमती  गांधी के हाथ मजबूत करने के लिए विभिन्न प्रदेशों में अब कांग्रेस की ही सरकार होनी चाहिए।’
  --और अंत में-
दिल्ली के एक अपराधग्रस्त मुहल्ले में 2062 सीसीटीवी कैमरे लगाए गए।
 यह खबर आई है कि पहले की अपेक्षा वहां अपराध कम हो गया।
पटना में भी कई जगह कैमरे लगे हंै।हाल में जब अपराधी हत्या करके भाग रहे थे तो उनकी छवि को कैमरे ने पकड़ लिया।
पर वह छवि इतनी धुंधली पाई गई कि वह किसी काम की नहीं है। अरे, भई जरा कैमरे की गुणवत्ता की भी तो जांच कर लिया कीजिए ।
@ 1 मार्च 2019 के प्रभात खबर-बिहार- में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से@

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