--नकद नकारने वाला मतदाता ही होगा लोकतंत्र का असली प्रहरी--
चुनावों में मतदान से पहले मनी और माल का वितरण अब कोई खबर नहीं है।
संभवत पहले दक्षिण भारत में इसका प्रचलन बड़े पैमाने पर शुरू हुआ था।
बाद में यह देश के कुछ अन्य हिस्सों तक पहुंंचा।
बिहार जैसे अपेक्षाकृत गरीब राज्य
के कुछ इक्के दुक्के अमीर नेताओं ने तो यह सब बहुत पहले से शुरू कर दिया था।पर अब तो जल्दी यह तय करना कठिन हो जाता है कि बिहार में भी कौन उम्मीदवार अमीर हैं और कौन गरीब !
कल्पना कीजिए कि जो उम्मीदवार आठ-नौ करोड़ रुपए में टिकट ही खरीदेगा,वह चुनाव क्षेत्र में कितने पैसे छिटेगा !
सत्तर के दशक में बिहार में हुए एक लोक सभा के उप चुनाव में एक उम्मीदवार ने 33 लाख रुपए खर्च किए थे।
यह राशि उन कुछ उम्मीदवारों से भी अधिक थी जिनके पास तब निजी हेलीकाॅप्टर हुआ करते थे।
पर, बाद के चुनावांे में बिहार के कई अन्य उम्मीदवारों द्वारा मतदाताओं के बीच नकद बांटने की लगातार खबरें मिलती रहंीं।
ऐसा नहीं है कि सारे उम्मीदवार ऐसा करते हैं।यह भी नहीं है कि नकदी ने हमेशा ही बंाटने वाले के पक्ष में अनुकूल रिजल्ट ही दिए हैं।
फिर भी इससे राजनीति दूषित तो होती ही है।
चुनावों के दिनों इन बिछे हुए प्रलोभनों को ठुकराने वालों की कहानियां भी यदाकदा सुनी जाती हैं।
पर संकेत मिल रहे हंै कि इस बार पहले की अपेक्षा नकदी का वितरण कुछ अधिक ही हो सकता है।यानी प्रलोभन अधिक ‘आकर्षक’ होगा।
क्योंकि इस लोक सभा चुनाव से अनेक उम्मीदवारों ,नेताओं,दलों और अंततः देश की तकदीरें तय होने वाली हैं।
टिकट खरीदने और नेताओं के बैंक खातों में पैसों के आदान- प्रदान होने की खबरें तो अभी से आने लगी हैं।
पर वह दिन दूर नहीं जब नकदी तथा सामान भी बंटेंगे।
उम्मीद है कि इन सब चीजों पर नजरें रखने वाली सरकारी
एजेंसियां भी इस बार कुछ अधिक सक्रिय रहेंगी।पर खुद मतदाताओं व हर दल के ईमानदार राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं को भी सावधान रहना होगा।
वे देश का लोकतांत्रिक भविष्य धनपशुओं के काले धन से तय न होने दें।वैसे भी बिहार एक जागरूक व और आंदोलनों की भूमि रहा है।
--चुनाव पूर्व दल बदल-
हर चुनाव की पूर्व संध्या पर दल -बदल होते ही रहते हैं।
उसके कई कारण होते हैं।
हर बार अनेक दलों को दल बदल से नेताओं की ‘आमद’ हो जाती है।
पर एक बात ध्यान देने लायक है।
चुनाव में किस दल के प्रति दलबदलुओं यानी मौसमी पक्षियों का अधिक आकर्षण रहता है।
जिसकी ओर अधिक है,उसकी चुनावी हवा मानी जाती है।क्योंकि राजनीति के मौसमी पक्षियों की घ्राणशक्ति अन्य लोगों ंंकी अपेक्षा कुछ अधिक होती है।
ओपिनियन पोल के नतीजों की बात अलग है।
पर अपवादों को छोड़कर अधिकतर विश्लेषण कत्र्ताओं को वही दल जीतता हुआ नजर आता है जिसे वे जिताना चाहते हैं।
इस बार भी खूब भविष्यवाणियां होंगी।होनी शुरू भी हो चुकी है।
जिनके पास समय हो,वे ऐसी भविष्यवाणियां नोट करते जाएं।उन्हें रिजल्ट से मिलाए।फिर गलत भविष्यवाणी करने वाले संबंधित विश्लेषणकत्र्ताओं की बातों पर अगले किसी चुनाव के समय ध्यान न दें।
--कितना बदल गया इनसान !--
चांद न बदला,सूरज न बदला, न बदला आसमान,
कितना बदल गया इनसान !
1954 की फिल्म ‘नास्तिक’ के लिए कवि प्रदीप ने यह गीत लिखा था।यानी, 1954 में ही इस देश में इतना बदलाव आ चुका था ।अब जरा आज तक के हुए परिवत्र्तनों की कल्पना कर लीजिए।
सर्वाधिक बदलाव पक्ष-विपक्ष की राजनीति में ही आया है।
इसका असर समाज और शासन के अन्य क्षेत्रों में भी पड़ा है।
किसी आम चुनाव के समय ही इस बात की सही जांच हो जाती है कि राजनीति में शुचिता बढ़ रही है या गिरावट !
इस चुनाव में उसे एक बार फिर साफ-साफ देख पाना संभव होगा।
एक पुराने नेता ने बताया था कि आजादी की लड़ाई के दौरान व बाद के कुछ वर्षों तक नजारे कुुछ और होते थे।
तब घर का कोई अमीर व्यक्ति भी राजनीति में पैर रखता था तो उसके बोलचाल और वस्त्र में भी सादगी टपकती थी।
किन्तु अब ?
अब तो ‘डायनेस्टिक डेमोक्रेसी’ के दौर में कई सिनियर नेता राजा और जूनियर नेता राज कुमार की तरह दिखते हैं।
देखना है कि ऐसी राजनीति का अगले कुछ दशकों में क्या हश्र होता है !
--एक बढि़या नारा--
सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने कहा है कि ‘इस चुनाव में एक तरफ कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपना जनाधार तैयार करना चाहती है तो दूसरी ओर हम भाजपा को हराना चाहते हैं।’
-- भूली बिसरी याद--
अधिक दिन नहीं हुए।नब्बे के दशक की बात है।तब तक राजनीति अपराधियों व धन लोलुपों से भर चुकी थी।
मांझी से विधायक और महाराजगंज से सांसद रहे राम बहादुर सिंह ने एक बार मुझसे कहा था कि अब मुझे चुनाव लड़ने की इच्छा नहीं होती है।
मैंने पूछा --क्यों ?
उन्होंने कहा कि ‘अब क्षेत्र में नौजवान गोली-बंदूक और शराब मांगते हैं।यह काम तो मुझसे कभी नहीं होगा।’
खबर मिली थी कि खगडि़या के निवत्र्तमान समाजवादी सांसद शिव शंकर यादव ने 1977 में चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया था।
कहा कि सांसद होने पर लोगबाग नाजायज पैरवी के लिए दबाव डालते हैं।वह काम मुझे मंजूर नहीं।
अगली कहानी तब की है जब विधायिकी कमाई का जरिया नहीं हुआ करती थी।
1957 में कांग्रेस का टिकट बंटने वाला था।
मोरारजी देसाई पर्यवेक्षक के रूप में पटना आए थे।
पूर्वोत्तर बिहार के एक क्षेत्र से 1952 में निर्वाचित विधायक के बारे में किसी ने शिकायत कर दी कि वे छुआछूत मानते हैं।मोरारजी ने उनसे पूछा।उन्होंने कहा कि ‘हां,मानता
हूं।’
उस पर देसाई ने कहा कि तब तो आपको टिकट नहीं मिलेगा।उहोंने कहा कि ‘अपने पास रखिए यह टिकट।’यह कह कर वे तुरंत घर लौट गए।
1969 में राम इकबाल पीरो से विधायक थे।
बाद में जब उनसे चुनाव लड़ने के लिए कहा गया तो उन्होंने कहा कि हर बार मैं ही क्यों लड़ंगा ? दूसरे व्यक्ति लड़ें।
1967 में बिहार में गैर कांग्रेसी सरकार का गठन हो रहा था।
संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के शीर्ष नेता ने राज्य सभा सदस्य भूपेंद्र नारायण मंडल से कहा कि आप मंत्री बन जाइए।
मंडल जी ने यह कहते हुए मंत्री बनने से इनकार कर दिया कि लोहिया जी बुरा मानेंगे ।क्योंकि लोहिया जी कहते हैं कि जो जहां के लिए चुना जाए,वहीं काम करे।
लोहिया ने यह नियम बनाया था कि जो लोक सभा या विधान सभा का चुनाव लड़े,वह राज्य सभा या विधान परिषद में न जाए।
इसी आधार पर मधु लिमये और कपिल देव सिंह जैसे समाजवादी कभी उच्च सदन में नहीं गए जबकि आॅफर थे।
एक वे दिन थे और एक आज की राजनीति !!
--और अंत मेें--
जद@से@के सुप्रीमो व पूर्व प्रधान मंत्री एच डी देवगौड़ा के दो पोते इस बार लोक सभा चुनाव लड़ रहे हैं।
एक पुत्र मुख्य मंत्री हैं।दूसरे पुत्र राज्य में मंत्री हैं।
पतोहू कर्नाटका विधान सभा की सदस्या हैं।
बुधवार को एक जन सभा में देवगौड़ा ने कहा कि ‘ बताइए, मुझ पर परिवारवाद का आरोप लगाया जा रहा है !’
यह कह कर वे रोने लगे।
अब भला बताइए ! डायनेस्टिक डेमोक्रेसी के इस दौर में किसी वंशवादी-परिवारवादी नेता के प्रति ऐसा ‘अन्याय’ न तो उत्तर भारत में होता है और न ही बगल के तमिलनाडु में !
उत्तर प्रदेश में तो दो राजनीतिक परिवारों ने एक दूसरे के परिजन के खिलाफ उम्मीदवार तक नहीं देने का निर्णय किया है।
फिर एक परिवार के सिर्फ 5 ही सदस्य के राजनीति में आने पर कर्नाटका के मीडिया,लोग और दल इतना बड़ा ‘अन्याय’ देवगौड़ा परिवार के साथ आखिर क्यों कर रहे हैं ! ?
बात समझ में आ रही है न कि देश किस ओर जा रहा है !
@15 मार्च 2019@
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