गुरुवार, 25 अक्तूबर 2018

स्वतंत्रता सेनानी ,समाजवादी नेता, विचारक और प्रखर सांसद रहे मधु लिमये ने 1995 में लिखा था कि 
‘1996 के बाद की स्थिति के 
संबंध में मैं गहरी चिंता ही व्यक्त कर सकता हूं।
समाजशास्त्री और सिद्धांतशास्त्री भले ही केंद्रीकरण की निंदा करें और केंद्र में पार्टियों के ढीले- ढाले महासंघीय  गठबंधन की सत्ता की बात करें,किंतु वे यह भूल जाते हैं कि कि राज्य स्तर की सूबेदारी नयी दिल्ली में सत्ता के अत्यधिक केंद्री- करण का ही दूसरा पहलू है।
  सूबेदारों की लात खाए लोग किसके पास जाएंगे ?
इस देश को जरूरत है मजबूत लोकतांत्रिक केंद्र और लोकतांत्रिक राज्यों की, शासन-व्यवस्था और संविधान के रूप में भी और राजनीतिक दलों के आंतरिक संगठन के रूप में भी।
 यदि पार्टियों के अंदर और विभिन्न पार्टियों  के बीच आपस में न्याय,सहयोग और सत्ता की साझेदारी की भावना नहीं होगी,तो इस देश का भविष्य निराशापूर्ण ही रहेगा।
भले ही 1996 के लोक सभा चुनावों में कोई भी पार्टी जीते या पार्टियों का गठबंधन जीते।मैं यह बात इसलिए कह रहा हूंं कि मैं एक भारतीय,मानव जाति के एक विनम्र सदस्य और विराट विश्व के एक नगण्य बिंदु के रूप में अपनी पहचान को अन्य किसी भी  पहचान से बड़ा मानता हूं।’
@---पाक्षिक पत्रिका ‘माया’-15 जनवरी 1995@  
मधु लिमये का 8 जनवरी 1995 को निधन हो गया था।
यानी, जीवन के अंतिम दिनों में लिखा गया यह संभवतः उनके आखिरी कुछ लेखों में एक है।यह लेख दिल की गहराइयों से लिखा गया है।
लेख तो लंबा है,पर मैंने उसकी मुख्य बात यहां उधृत की है।इस लेख में व्यक्त  भावना से यह भी पता चलता है कि हमारे पुराने नेता देश के बारे में क्या-क्या  सोचते थे।@


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